जब
मैं प्राइमरी स्कूल की पहली कक्षा में गया तो अपनी कक्षा के अन्य छात्रों की तुलना
में कद में छोटा था। एक और छात्र था जो मुझसे भी छोटा था. लेकिन उसका तो नहीं पर
छोटा कद होने की वजह से मेरा नाम चीनी पड़ गया। नाम तो कक्षा के मेरे अध्यापक ने
रखा था और यह बात केवल क्लास तक ही सीमित थी लेकिन धीरे-धीरे बात मुहल्ले के
बच्चों तक पहुंच गयी। वे मुझे चीनी कहकर चिढ़ाते। आरंभ में तो ऐसा कभी-कभी होता था
पर जल्द ही इसकी फ्रीक्वेंसी बढ़ने लगी। हद तो तब हो गयी जब बात-बात पर साथी चीनी
कह कर चिढ़ाते। कभी कभी तो मैं इतना चिढ़ जाता कि जिस अध्यापक ने यह नाम लिया था
छिपकर चालाकी से उसकी साइकिल के पहिए की हवा निकाल देता। मेरी इस शरारत का उन
अध्यापक महोदय को कभी पता ही नहीं चला और वो मुझे निहायत शरीफ,
सीधी-सादा और आज्ञाकारी विद्यार्थी मानते। दरअसल उन
को भी नहीं पता था कि उन्होंने कक्षा के विद्यार्थियों की जो ज्ञानवृद्धि की है
उससे मेरा कितना मानसिक नुकसान हुआ था। वास्तव में उन दिनों भारत चीन युद्ध चल रहा
था। देश में हर तरफ उस युद्ध की चर्चा थी। अध्यापक महोदय न जाने क्यों स्वयं बहुत
तनाव में थे। मैं दूसरी कक्षा का छात्र था, और
मेरी उम्र रही होगी लगभग सात वर्ष। मेरी कक्षा के अध्यापक चीनी आक्रमण से बहुत
अधिक आहत थे और गुस्सा भी। मैं कयोंकि सामने ही बैठा था अत: उनकी दृष्टि सीधे मुझ
पर आकर ठहर गयी। गुस्से से मेरी ओर देखते हुए कहने लगे कि, इतने
छोटे-छोटे होते हैं कम्बख़्त चीनी लोग और देखा कितना बड़ा धोखा दिया है इन चीनियों
ने। हिम्मत देखो उनकी। कुछ और भी इसी प्रकार बड़बड़ाने लगे। वे तो इतना कहकर चले
गए लेकिन मेरे लिए बड़ी समस्या कड़ी कर गए. मेरी उम्र के छात्रों को क्या लेना-देना
था भारत-चीनी युद्ध से। उन्हें तो मुझे चिढाने का बहाना मिल गया। पहले तो बात केवल
कक्षा तक ही सीमित रही फिर न जाने मेरे साथियों को इसमें क्या उर्वरता दिखाई दी कि
उन्होंने इसका युद्ध स्तर पर प्रचार करने का मन बनाया और अध्यापक द्वारा कक्षा में
कही बात को गली, मुहल्ले और फिर गांव तक ले गए। उनके लिए यह केवल
मनोरंजन का साधन था पर मेरे लिए छवि भंजन का। हालांकि सभी छात्र ऐसे नहीं थे। केवल
कुछ ही शरारती थे। पर थे वे एक गंदी मछली की भांति जिनके सामने पूरा तालाब था।
परिणामत: मैं अपने ही साथियों से बचने का प्रयास करता।