जेएनयू में जब मैंने पहली बार और वही आखरी बार भांग
पी। मैं उस समय एम.फिल का विद्यार्थी था। हमारे एक वरिष्ठ साथी थे घनश्याम मिश्र।
(जो संभवत: अब नहीं हैं, अत: उनकी स्मृति के प्रति पूर्ण सम्मान के साथ)।
घनश्याम मिश्र बहुत ही प्रिय स्वभाव के एक मददगार व्यक्ति थे। यद्यपि वे भांग और
भांग की प्रजातियों के यूं भी बहुत शौकीन थे पर यदि कोई विशेष अवसर हो तो फिर तो
कहने ही क्या? खैर
होली पर वे सदैव भांग तैयार किया करते थे। वे गंगा होस्टल में रहते थे ग्राउंड
फ्लोर पर। उनकी सेलेक्टिव लिस्ट होती थी और कलेक्टिव आयोजन। फिर बाद में जो आ जाए।
ना किसी के लिए भी नहीं। अत:1979 की घटना है जब पं. घनश्याम मिश्र ने कुछ छात्रों के
आपसी सहयोग से होली के लिए भांग तैयार करने की योजना बनाई। ज़रूरी सामान खरीदकर
लाया गया जिसमें मेवाओं पर विशेष जोर दिया गया था। मिश्र जी के कमरे में बाज़ार से
खरीदकर सब सामान लाकर रख दिया गया. देर रात को में अपने कमरे में जाकर सो गया.
सुबह के 5 बजे होंगे जब डिब्बों के सड़क पर बार-बार टकराने की आवाज़ से मेरी आँखें
खुल गयी. बालकोनी से बाहर झांककर देखा तो दो कुत्ते बड़ी तेजी के साथ पेरियार
हॉस्टल की ओर से गंगा हॉस्टल की ओर दौड़े चले जा रहे थे. उनकी पूँछ में किसी शरारती
लड़के ने डिब्बे बाँध दिए थे. डिब्बे तीन के थे और उनकी आवाज़ से कुत्ते और भी तेजी
से दौड़ रहे थे. अन्याय तो उनके साथ हो ही चुका था. देखकर दुःख भी हुआ. बड़ी रूचि के
साथ भांग तैयार की गयी। सामान की कोई कमी नहीं थी. भरपूर दूध और चीनी। बादाम,
किशमिश और काजू आदि मेवे मिश्राजी की अलमारी से निकाले गए. किसी साथी ने ध्यान
दिलाया कि पोटली में वजन कल की अपेक्षा
कुछ कम है. मिश्राजी मुस्करा कर बोले, जो बचा है सब घोट डालो. देर की तो वजन और
हल्का हो जायेगा. भांग खूब मेहनत से तैयार की गयी थी। भांग तैयार करने की
प्रक्रिया और उसमें डाली गयी सामग्री को देखकर मन ललचाने लगा था, अत: सोच लिया था
कि आज तो भांग का भरपूर आनंद अवश्य लिया जाएगा। होली वाले दिन सभी साथियों ने भांग
पी. हमारे एक मित्र थे हरप्रकाश गौड़ और सुरेश शर्मा. उन्होंने भी भांग पी पर उनपर कुछ असर न हुआ.
कहने लगे और पीना चाहिए. दोबारा घनश्याम मिश्र के कमरे में गए और पुनः भांग का
स्वाद चखा. हरप्रकाश जी को मेवों का कुछ लोभ आ गया अतः भांग के बर्तन की तलहटी से
जिसमें भांग भी शामिल थी, काफी सारे पदार्थ लेकर खा गए. परिणाम हुआ कि भांग के नशे
में एक व्यक्ति जो जो कर सकता है उन दोनों ने किया, जो सोच सकता है उन्होंने सोचा और
जो नहीं कर सकता है उन्होंने न किया. वे कथाकार हो गए, संगीतकार हो गए, गायक हो गए
और अभिनेता तो बनना ही था सो बन गए. उनकी हालत देखकर तीसरी कसम के राजकपूर की
भांति मैंने एक निर्णय लिया कि जीवन में आगे कभी भांग नहीं पीयेंगे.
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