प्राइमरी स्कूल के जिन अध्यापकों ने मुझे पढाया
उन अध्यापकों की तस्वीर मेरे मन में ठीक उसी प्रकार आज भी अंकित है जैसी उस दौरान
थी, जब में पहली से पांचवीं कक्षा तक स्कूल में पढ़ता था. मुझे आज भी अनेक
प्रसंगों, विशेष रूप से गाँव से जुड़े प्रसंगों में उन सभी अध्यापकों की बहुत याद
आती है जिन्होंने बड़ी मेहनत और लगन से मुझे ही नहीं अपने सभी छात्रों की नीव तैयार
की. अब तो खैर पूरा माहौल ही बदल गया है-गाँव का भी और शहर का भी. वे अध्यापक अपने
छात्रों को काम ठीक प्रकार न करने और किसी भी गलत बात पर बहुत डांटते थे, बल्कि
पिटाई भी करते थे. पर प्यार भी उतना ही करते थे. अच्छा काम करने पर तारीफ़ भी कम
नहीं करते थे. सौभाग्य से न तो मुझे कभी डांट पड़ी और न ही पिटाई हुई. मैं तेज़
छात्रों में गिना जाता था. अपनी लघु आकारित काया के कारण मैं मॉनिटर तो कभी नहीं
बनाया गया पर कभी-कभी उन विद्यार्थियों की पीठ में मुक्का मारने के लिए मुझे
प्रायः कहा जाता जिनको पहाड़ा अथवा गिनती तक ठीक से नहीं आते थे. मेरे छोटे-छोटे
हाथ मज़बूत फिसड्डी पीठों पर मुक्का मारते-मारते दुःख जाते और मुर्गा बने एक्सपर्ट
छात्र नीचे मुंह किये मुस्कराते रहते. ऐसा ही एक छात्र था रमेश. रमेश हमारे ही
मोहल्ले का था. बहुत ही मज़बूत कद काठी का. ऐसा लगता था कि जैसे वह पढ़ने के लिए बना
ही नहीं है. उसको कुछ भी याद नहीं हो पाता था. यहाँ तक कि मेरे घूंसे भी. क्योंकि
स्कूल समाप्त हो जाने के बाद मुस्कराते हुए हम लोग साथ-साथ घर को जाते. उसने
मुक्काबाज़ी का कभी न तो विरोध किया और न ही जिक्र. आपको आश्चर्य होगा जानकर कि रमेश
ने अपने फेल होने को कक्षा की संख्या से जोड़ रखा था, अध्यापकजी ने बताया था कि यह
तीन वर्ष से तीसरी कक्षा में ही है. उन्होंने यह भी घोषणा कर राखी थी कि क्योंकि मेरा
प्रिय रमेश दूसरी कक्षा में दो साल रहकर आया है तो नियमानुसार चौथी कक्षा में चार
साल रहने के लिए कटिबद्ध है. पांचवीं में तब जायेगा जब चौथी से निकलेगा. मास्टरजी
के विश्वास की लाज रखते हुए रमेश ने चौथी की लक्ष्मण-रेखा कभी पार नहीं की और
सीताजी से बिल्कुत उलट चौथी कक्षा से ही सीधे भैंसा बुग्गी हांकने में माहिर हो
गया. जो मुक्के उसे पड़ते थे अब वो उन मुक्कों को और भारी बनाकर अपने भैंसे पर
मारने लगा. खैर, ये तो बाद की बात है. उस समय तो मैं जब तीसरी कक्षा में पहुंचा तो
रमेश, पूरा नाम रमेश चंद्र शर्मा उस पायदान पर पहले से ही मौजूद था. मेरा नाम पहली
कक्षा में उम्र बढाकर कुछ आगे करके लिखाया गया था, इसलिए औरों की अपेक्षा मैं आकार-प्रकार
में थोड़ा छोटा लगता था. इसलिए सभी अध्यापक मुझ पर थोड़ा ध्यान देते थे. मेरे पिताजी
स्वयं तो पढ़े-लिखे थे नहीं, पर उनको मेरी पढाई की बहुत चिंता थी, इसीलिए उन्होंने
अंग्रेजी सिखाने के लिए विशेष रूप से एक अध्यापक को घर पर आकर मुझे पढ़ाने की
व्यवस्था कर दी थी. हालाँकि मेरी अंग्रेजी फिर भी देशी ही रही.
पांचवीं के मेरे अध्यापक श्री प्रह्लाद शर्मा
मुझे सर्वाधिक प्रिय थे. यद्यपि वे दिनभर कुछ बड बुदाते रहते और छात्रों को अक्सर
गालियाँ देते रहते. शिष्ट गालियाँ. जैसे ‘तुम्हारे पिताजी का सत्यानाश क्यों नहीं
जाता जो तुम जैसे गंवार को पढ़ना चाहते हैं’, ‘उनका तो वंश ही डूब जाना चाहिए
जिन्होंने तुन्हारे जैसा कपूत पैदा करके हमारा खून पीने के लिए छोड़ दिया’, ‘पढ़ने
से अच्छा है कि कहीं नदी में जाकर कूद जाओ और डूब मरो’. कमबख्त मरते भी नहीं’. इसी
तरह की पिताओं को संबोधित गलियां वे कन्याओं को भी दिया करते. एक बार हमारे गाँव
के मुखिया की लड़की को उन्होंने काम ठीक से न कर पाने के कारण बड़े ही प्यार से अपने
पास बुलाया और धीरे से सिर पर हाथ फिरते हुए बोले कि ‘अपने बाप को जाकर आज बता
देना कि उसका सत्यानाश इस कार्तिक तक अवश्य हो जायेगा. तुम्हारे जैसी मूर्ख लड़की
पैदा करते हुए उसे लाज नहीं आई’. दुर्भाग्य से भोली-भाली उस लड़की ने ठीक उसी
प्रकार शब्दशः सबकुछ अपने पिताजी को जाकर कह दिया. आश्चर्य इस बात का है कि लड़की
के पिताजी स्कूल आये और और हेड मास्टर साहब से माफ़ी मांगी. कहा कि आप इस लड़की को थोडा
और अधिक समझाइए. मास्टर जी की छवि ही ऐसी थी कि मुखिया तक ने उनकी बात का बिलकुल
बुरा नहीं माना. ऐसे अध्यापक और अभिभावक अब कहाँ?
1 टिप्पणी:
अच्छा संस्मरण। अब के मानकों के अनुसार वह पद्धति अमनोवैज्ञानिक, अशास्त्रीय कही जाती है किंतु सीमित साधनों में भी विद्यार्थी से जो लगाव तब शिक्षकों में था वह अब तथाकथित वैज्ञानिक और साधनसम्पन्न शिक्षा में दुर्लभ है।
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