बुधवार, 19 अप्रैल 2017

जे एन यू में बस

बात जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र जीवन के आरम्भ के दिनों की है. उन दिनों कैम्पस में कुछ ही बसें चलती थीं. जब तक पूर्वांचल का काम्प्लेक्स नहीं बना था तो बस केवल गोदावरी हॉस्टल तक ही आती-जाती थीं. आरम्भ में 612 और 613 नंबर की बसें चलती थी. 612 सफदरजंग हॉस्पिटल तक जाती थी और 613 डाउन कैम्पस तक। कुछ दिनों बाद 666 नंबर की एक और बस चली जो मुद्रिका की तरह माइनस और प्लस दिशाओं में चलती थी और मुनीरका, सरोजिनी नगर, सफदरजंग हॉस्पिटल, एआइआइएमएस, ग्रीन पार्क, आईआईटी गेट, आईआईटी हॉस्टल, जेएनयू के पुराने कैम्पस, बेर सराय, मुनीरका डीडीए फ्लेट्स और जेएनयू के नए परिसर के बीच चक्कर लगाती थी फिर इसी प्रकार विरीत दिशा में उसी प्रकार चलती थी. इसके कुछ दिनों बाद जब पूर्वांचल परिसर बन गया जिसमें ब्रह्म पुत्र हॉस्टल और महानदी हॉस्टल और शिक्षकों के लिए आवासीय परिसर थे तो 615 नंबर की एक बस और जुड़ गयी और सभी बसें पूर्वांचल परिसर तक जाने लगीं. कुछ बसें ड्राइवरों और कंडक्टरों की ड्यूटी समाप्त होने के समय कभी-कभी वसंत विहार डिपो तक ही जाती थीं और वहां से किसी दूसरी बस में जाना पड़ता था जिसके स्टाफ की ड्यूटी शुरू हो रही होती थी. लेकिन धीरे-धीरे डीटीसी बस वालों ने इस ड्यूटी शिफ्ट होने की कला को अपनी सुविधानुसार जेएनयू जाने से बचने के लिए एक आदत ही बना ली थी. आदत यह थी कि रात होते ही उन दिनों डीटीसी बस वाले जेएनयू के परिसर में अन्दर जाने में आनाकानी करने लगते थे. वे अक्सर ड्यूटी के पूरे होने के वक़्त का बहाना बना दिया करते या बस को ख़राब बता देते. हाँ यदि सवारियां अधिक हों तो जहां तक सवारियां जाने वाली होतीं बस को वहीं तक ले जाते थे. अंतिम स्टॉप पूर्वांचल होता था जहाँ रिहायशी मकानों के साथ-साथ दो हॉस्टल भी थे. एक विवाहित छात्रों के लिए और दूसरा लड़कों का हॉस्टल. उनमें से ब्रह्मपुत्र हॉस्टल में हमारे सहपाठी रामकृष्ण पाण्डेय रहा करते थे. पाण्डेय जी उन दिनों समाचार भारती नाम की एक न्यूज एजेंसी में काम किया करते थे और देर रात को बस से लौटते थे, वह भी प्रायः आखिरी बस से. बस वाले वैसे तो उनको पहचान गए थे, अतः कृपा पूर्वक आखिरी बसस्टॉप तक बस को ले जाते थे, पर कभी-कभी बसस्टॉप दूर होने के कारण कोई-कोई ड्राइवर समय की बचत के लिए गंगा हॉस्टल पर ही बस रोककर, सवारियां उतारकर वापस लौट जाता था. अगर किसी मजबूरी में आगे तक जाना ही पड़े तो बहुत गुस्से में बिना क्लच दबाये, जोर से गेयर डालकर, नयी बन रही पर तारकोल से बनी सड़क से ठीक पहले की हालत वाली गड्ढेदार और ख़राब सड़क पर झटकों के साथ बस को तेजी से भगाते हुए चले जाते थे. पूर्वांचल परिसर में लगभग चलती बस से ही सवारी को उतर जाने के लिए विवश करके बिना कोई नयी सवारी लिए सीधे डिपो वापस भाग जाते थे. ऐसा गुस्सैल ड्राइवर किया करते थे, सब नहीं. उस ज़माने में डीटीसी बस चालकों का बहुत बुरा रवैय्या था. वैसे वहां सावधानी के लिए औ हर बस पूर्वांचल अवश्य जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए डीटीसी ने एक टाइम कीपर भी पूर्वांचल बस स्टॉप पर तैनात कर रखा था. जा तक वह रहता तो व्यवस्था बनी रहती. वह भी बेचारा धनुष के आकार का था. पता नहीं क्या रोग हुआ होगा कि उसकी पीठ संसार के बोझ से या डीटीसी के कामकाज के बोझ से समय से कुछ पहले ही झुक गयी थी. इस कारण उसकी निगाह सदैव नीचे को रहती थी. जब उससे कई बार बसों के आने-जाने के बारे में सवाल किये जाते तो पांच बार किये गए सवालों के उत्तर केवल एक बार में दिया करता था. ऐसा लगता था कि प्रश्न का उत्तर देने के लिए वह और प्रश्नकर्ताओं का इंतजार करता था और जब सब प्रश्नकर्ता इकठ्ठा हो जाते तो सबको एक साथ उत्तर दे देता. तब तक बस भी आजाया करतीं और लोग बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बस में बैठ जाना ही बेहतर समझते. रोज़ एक जैसी प्रक्रिया से गुजरने के बाद ऐसी स्थितियों की धीरे-धीरे आदत ही बन गयी. लेकिन शाम को वह भी टाइम कीपिंग को महँ दार्शनिक कार्ल-मार्क्स के भरोसे छोड़कर अपने घर चला जाया करता था.
बस-व्यवस्था की दूसरी स्थिति ऐसी थी कि यदि बस में सवारियां बहुत कम हों तो चालक द्वय कोई न कोई बहाना बनाकर बस को प्रायः मुनीरका से अगले स्टॉप पर ही रोक देते थे और इंजिन बंद कर दिया करते. लोगों को ऐसा लगता कि जैसे बस में कुछ खराबी आ गयी. ज्यादा पूछताछ करने पर कोई उलटा-सीधा ज़बाव दे देते थे. दो-चार लोग तो कुल होते ही थे, विशेषकर रात के समय, तो मन मारकर बस से उतर कर पैदल ही चल देते थे. शर्म और संकोच अलग से होता था कि वैसे तो क्रान्ति करने चले हैं पर बस ड्राइवर तक को कुछ कह नहीं सकते. शायद इस लोभ से कि उसी मजदूर वर्ग से है, जिससे हमें सहानुभूति है और अंततः यही तो क्रांति में साथ देगा. उसको नाराज़ न करो. अतः सब शांत भाव से सिर नीचा किये, बिना एक दूसरे से बात किये इस प्रकार धीरे-धीरे अपने गंतव्य के लिए चल देते थे जैसे कि श्मशान में कोई मुर्दा जलाकर आ रहे हों.
कभी-कभी कम लोगों को तो ज़बरन भी उतार दिया करते थे और यदि उससे भी काम न चले तो ऐसी कोशिश करते कि जितनी भी सवारियां जेएनयू के परिसर में अन्दर जाने वाली होतीं वे किसी प्रकार स्वयं बाहर ही उतर जाएँ. अतः कुल मिलाकर आपके पास परिसर के बाहर ही बस से उतर कर पैदल चलने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता था. या फिर बहुत हिम्मत दिखाई तो बस वालों से बहस कर ली, थोडा-सा लड़ लिए. खड़ी बोली के असल अक्खडपन और लक्कड़पन का आनंद ले लिया. वैसे ऐसा कभी-कभी ही होता था कि किसी ड्राइवर द्वारा ऐसी भाषा में डांटा जाता कि लगता डांट से अच्छा होता कि वह पिटाई ही कर देता. खैर, शाम के बाद अँधेरा होते ही वैसे भी दो चार लोग ही रह जाते थे तो थोड़ी निरर्थक बहस के बाद पैदल यात्रा का विकल्प ही शेष बचता था. मेरे साथ भी ऐसा कुछ प्रायः होता था और वैसा ही उस दिन भी हुआ. उनकी ही भाषा में बात करने के बावजूद. ड्राइवर बोला कि ‘तम नी समझे कै भाई, कहा न कि गोली होल्लो’ यानी ‘भाई तुम नहीं समझे क्या. कहा नहीं कि गोली की रफ़्तार से निकल लो’. मैंने सोचा कि यदि सतलज हॉस्टल बताया तो ड्राइवर कहेगा कि पास ही है, पैदल निकल जाओ. दूर बताया तो इसको हॉस्टल तक छोड़ने जाना ही पड़ेगा. मुझे पाण्डेय जी द्वारा बताई तरकीब सूझी. जो मैंने पहले भी एक-दो बार आजमाई थी और बहुत कारगर साबित हुई थी. उन्होंने ऐसी हालत से निपटने के लिए एक उपाय बताया था कि यदि ड्राइवर वसंत विहार डिपो या मुनीरका पर ही बस से उतर जाने को कहे, तो उससे कहना कि पूर्वांचल हॉस्टल जाना है. वह फिर मना नहीं करेगा क्योंकि दूर होने के कारण वह आपको वहां अवश्य ले जाएगा. फिर आप रास्ते में अपने हॉस्टल यानी सतलज पर उतर जाना. अतः एक दो बार ऐसा ही हुआ और पाण्डेय जी द्वारा बताई गयी तरकीब काम आई थी. आज भी मैंने वही दोहराया. वैसे भी विश्वविद्यालयों, कालेजों और स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की धोंस और क्रांति प्रायः अपने संस्थानों के अन्दर तक सीमित रहती है और यदि बहुत जोर मारा तो आप-पास के दुकानदारों और रिक्शे चालक आदि तक. बस में भी केवल कैम्पस के अन्दर तक. मैंने भी सोचा कि पहले कैम्पस तक तो चाले बाद में सब देखा जायेगा. हम कुल दो बचे थे. एक मैं और दूसरा मेरा एक ईरानी मित्र. वह तो हालाँकि कह रहा था कि छोड़ो, हम यहाँ से पैदल ही निकल जाते हैं. बहुत दूर भी नहीं है. लेकिन मैं साढ़े बारह रुपये के अपने बसपास का पूरा आनंद लेने के मूड में था. उससे कहा कि तुम चुप रहो. मैं बात करता हूँ. मैंने ड्राइवर से कहा कि हमें पूर्वांचल जाना है. ड्राइवर पूरा घाघ निकला. वह संभवतः पहचान गया. हो सकता है मैंने पहले अपनी तरकीब उसी के साथ आजमाई हो. अतः उसने एक जोर के झटके के साथ गेयर डाला और तुरंत बस दौड़ा दी. रास्ते में गंगा हॉस्टल आते ही मैंने उससे कहा कि रहने दो. अब हम चले जायेंगे. लेकिन वो तो गुस्से में था. बोला कोई बात नहीं. अब तो तू पूर्वांचल ही जायेगा. बिना ठीक से ब्रेक लगाये, बस को मोड़ों पर दौड़ाता हुआ वो चल दिया. दर के मारे दोनों हाथों से हम लोग हैन्डिल कसक पकडे हुए थे. फिर भी झटकों ने हिलाकर रख दिया. कमबख्त सर्दी की रात में 11 बजे पूर्वांचल होटल पर हम दोनों को बस से उतारकर वापस चला गया. मैंने उससे बहुत कहा कि यार गलती हो गयी, मुझे दरअसल सतलज हॉस्टल ही जाना था. चालाकी में ही कहा था. माफ़ करो. किराया भी और ले लो पर वापस ले चलो. यहाँ रात में अब कोई दूसरा साधन नहीं मिलेगा. पर सब अनुनय-विनय व्यर्थ. रात में सर्दी में टहलता हुआ और सच-झूट पर ईरानी दोस्त के भाषण का आनंद लेता हुआ 12 बजे अपने हॉस्टल पहुंचा.    


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