कभी-कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि जिस पर चाहकर भी आपका वश नहीं रहता। ऐसा ही मेरे और मेरे मित्र के बीच हुआ। दक्षिण कोरिया के सिओल स्थित हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय में अध्यापन हेतु कार्यरत समस्त प्राध्यापकों और गैर शिक्षक कर्मचारियों को विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा विजिटिंग कार्ड छपवाकर दिए जाते हैं. सभी कार्ड्स का रंग बिलकुल एक समान होता है. जैसा प्रायः होता है कि पहली बार मिलते समय विजिटिंग कार्ड देने की परंपरा है। इसलिए जब लोग आपस में मिलते हैं तो विजिटिंग कार्ड्स का आदान-प्रदान होता है। यहाँ हमारे जैसे विदेशी प्राध्यापकों के पास कार्ड तो बहुतायत में होते हैं अपने देश की अपेक्षा मिलने वाले कम, अब कार्ड के लिए समस्या है कि वह जाये कहाँ? मेरे एक सहकर्मी साथी की यही पीड़ा थी। अपना सुन्दर-सा विजिटिंग कार्ड वो दे किसे? एक दिन उसने अपनी वह पीड़ा मुझे बताई और कहा कि ‘देखिये इतने सारे विजिटिंग कार्ड्स हैं। अब हमारे लिए इनका क्या उपयोग है? भारत जाएंगे तो वहाँ भी किसको दें? मेरे लिए सब बेकार हैं।’ मुझे उनका कष्ट देखकर अच्छा नहीं लगा। सोचा कि एक राय दे दूँ और राय होती भी देने के लिए है। राय के साथ एक और महत्वपूर्ण बात जुड़ी है कि भारत में उसे बिन मांगे देने की परंपरा है। अतः परंपरा का निर्वाह करते हुए मैंने अपनी राय मित्र को दे दी। राय देने का परिणाम क्या हुआ और मित्र ने किस तरह उस बिन मांगी राय पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, वह बाद में। पहले राय सुनिए। मैंने कहा कि आप प्रातः जब घर से निकलते हैं तो सबसे पहले अपनी जेब में पर्स या रुपये रखने से भी पहले दस-बीस विजिटिंग कार्ड रख लिया कीजिए। रास्ते में जो भी मिले उसे एक थमा दीजिये। विश्वविद्यालय के सभी विभागों में जाइए और कार्ड का आदान-प्रदान कीजिये। एक ही दुकान से सामान मत खरीदिए। अलग-अलग दुकानों पर जाइए। सबको अपना कार्ड दे दीजिये। क्योंकि मैं पहले से कार्यरत था तो वहाँ की अपनी वरिष्ठता का सम्मान करते हुए उनको बताया कि कोरिया में यदि दुकानदार को बताएं कि आप प्रोफेसर हैं तो बहुत सम्मान करते हैं और कभी-कभी सामान खरीदने पर कुछ छूट भी दे देते हैं। भारत मैं तो ऐसा है नहीं, इसलिए अपने पद के महत्व का आनंद लीजिये। कोई काम न हो तब भी बस या सबवे में कार्ड के लिए ही सही, कभी-कभी यात्रा कीजिये और साथ बैठे व्यक्ति को मुस्कराहट के साथ अपना कार्ड थमा दीजिये।‘ बाकी सुझाव तो मित्र को अच्छे लगे, पर व्यर्थ बस या सबवे की यात्रा का विचार पसंद नहीं आया। कहने लगे कि ‘केवल कार्ड बांटने के लिए मैं बस और सबवे में टिकट के पैसे क्यों खर्च करूँ। आप क्यों नहीं अपने साथ मेरे भी कुछ विजिटिंग कार्ड रख लेते? जहां अपने दें मेरे भी दे दें।‘ मुझे उनकी बात अच्छी लगी पर मज़ाक में गलती से उनसे वह कह गया जो नहीं कहना चाहिए था। कहा कि ‘मैं ऐसा करता हूँ कि कल और परसों मेरी कक्षा नहीं है, अतः नाश्ते के बाद सबवे स्टेशन पर आपके कार्ड लेकर चला जाता हूँ और जहां विज्ञापन करने वाले खड़े रहते हैं वहीं उनकी बगल में खड़े होकर आपके सभी कार्ड दो दिनों में बाँट देता हूँ। समस्या समाप्त।‘ अब राय देने का परिणाम और प्रतिक्रिया सुनिए। कहते हैं कि कमान से निकला तीर और ज़ुबान से निकली बात कभी वापस नहीं आती। पर ऐसा हुआ नहीं। तीर भी वापस आया और बात भी। तीर नज़रों से वापस आया क्योंकि मित्र ने बहुत ही खतरनाक दिखने वाली निगाहों से मुझे घूरा और मुंह से निकली मेरी बात मित्र के मुखारविंद से और भी अधिक फलीभूत होकर वापस आयी। गुस्से से भरकर इतना तेज़ मुंह खोला कि उसके बाद कई दिनों तक उनको मेरे साथ खाना खाने के लिए मुंह खोलने की आवश्यकता नहीं हुई। अपने बनाए कोपभवन में ही चले गए। बोनस में दो-तीन सप्ताह बात तक नहीं की, वह अलग से। यहाँ तक कि नाश्ते पर साथ जाने का समय भी बदल लिया।
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