कोरिया प्रवास के
दौरान जब मैं सुबह-शाम खेल के मैदान में घूमने गया तो एक दिन वहां अफगानी जैसा
दिखने वाला व्यक्ति घूमते हुए दिखाई दिया. मेरा ध्यान उस आदमी पर इसलिए गया कि मुझे
वह जिज्ञासा से घूर रहा था. यहाँ तक कि घूमते-घूमते मुझे ध्यान से देखने के लिए ही
बीच-बीच में थोडा रुक भी जाता. फील्ड चौकोर था और घूमने का ट्रैक गोलाकार. अतः फील्ड के
कोनों में उसे रुकने का बहाना भी मिल जाता. जब
घूमता-घूमता मैं उसके बराबर से निकलता, वह बिलकुल अनजान-सा होकर मेरी तरफ कनखियों से देखता. फिर तेज़ी से कदम रखता हुआ
मेरे बराबर से आगे निकलने का प्रयास करता, कुछ इस तरह कि मुझे उसकी
गतिविधि पर किसी प्रकार का कोई शक भी न हो. शक करने का हालांकि कोई कारण भी नहीं
बनता था क्योंकि ऐसा अनेक बार होता था जब घूमते-घूमते कई लोग इस तरह रुक-रुक कर
टहला करते थे और इस प्रक्रिया में कभी आगे निकल जाते तो कभी पीछे छूट जाते. पर
मैंने धीरे-धीरे महसूस किया कि वह लड़का जैसे मेरे आस-पास ही रहने का प्रयास कर रहा
था. वरना रुकने के बाद जैसे ही मैं उसके पास से आगे जा रहा होता था वह अपनी कनखियों
से मुझे ही क्यों घूरता हुआ लगता. कई वार तो ऐसा
भी हुआ कि जैसे ही मैं चलते-चलते उसके बराबर से गुज़रा तो वह मेरे आगे निकलते ही
पुनः चल दिया. पहले तो मैंने उसपर कोई ध्यान न दिया, क्योंकि न तो मैं उसे जानता
था और किसी भी कारण से न ही मेरे पास उसपर या उसकी गतिविधियों पर शक करने का कोई आधार
था. सच पूछा जाय तो उसकी कोई आवश्यकता थी भी नहीं थी. रोज़ लोग टहलते ही रहते थे. मैं
उस दिन कुछ ज़यादा देर फील्ड में रहा गया. लगभग एक घंटे तक. जब मैं टहलने के बाद अपने अपार्टमेंट की ओर जाने लगा तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह लड़का वहीं एक बेंच
पर बैठा हुआ था, जो सुस्ताने के लिए ग्राउंड में दोनों ओर रखी हुई थीं. वह लगातार
मुझे इस तरह देख रहा था जैसे कि पहचानने का प्रयास कर रहा हो. लड़का देखने में बहुत गोरा था
और उसके चेहरे पर बहुत हल्की-सी दाढ़ी थी. चेहरा
गोलाकार था और कद बहुत लंबा नहीं था. वह
अनौपचारिक पोशाक में था पर वह स्पोर्ट्स ड्रेस नहीं थी. हाँ, स्पोर्ट्स के ब्रांडेड जूते अवश्य पहने हुए था. उसकी ड्रेस से वह देखने में किसी अच्छे परिवार का लगता था. बातचीत हुई नहीं थी, इसलिए यह कह पाना कठिन था कि
वह पढ़ा-लिखा कितना है. इन सब जिज्ञासाओं के बीच मैंने उसके साथ बातचीत करके उसके
बारे में जानने का मन बनाया. और उसके निकट गया तो उसने स्वयं ही मुझसे बात करने की पहल की। उसने अपना नाम हबीब बताया और यह भी
कि वह पाकिस्तान का रहने वाला है। मैंने अपना परिचय दिया और साथ में अपना विजिटिंग कार्ड भी, जो इत्तफाक से उस
समय मेरे पर्स में था. उस लड़के को देखकर लग रहा था कि वह कहीं कड़ी मेहनत वाली नौकरी
करता होगा. मैंने देखा कि वह मेरे विजिटिंग कार्ड को बड़े ध्यान से पढ़ रहा था और पढ़ते-पढ़ते
उसके चहरे का रंग भी तेज़ी से बदलता जा रहा था. यह कुछ क्षणों के अंतराल में ही हुआ
होगा कि वह तुरंत ही व्यवस्थित होकर मुस्कराया और बोला कि ‘ओह, तो आप हिंदुस्तान से
हैं. मैंने समझा था कि आप पाकिस्तान से हैं.’ खैर, चलिये, आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। मुझे
उसकी प्रतिक्रिया जानकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उसके पहले भी न जाने क्यों, कई लोग इसी
प्रकार मुझे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ब्राजील, नेपाल, स्पेन आदि का समझने की भूल
कर चुके थे. मुझे अपना अंतर्राष्ट्रीयकरण किये जाने पर अच्छा भी लगता था और
आश्चर्य भी होता था. उस पाकिस्तानी व्यक्ति ने भी ऐसा ही कुछ सोचा होगा जैसा मैंने
उसके अफगानी होने के बारे में सोचा था। हम दोनों ही गलत निकले। लेकिन फर्क केवल यह
था कि मुझे उसके अफगानी न होने पर कोई दुख या आश्चर्य नहीं हुआ जबकि उसको मेरे
पाकिस्तानी न होने पर कुछ ऐसा हुआ जो उसके चहरे के भावों से पता चलता था पर वह बता
नहीं रहा था। खैर, जब उसने मुझसे कहा कि ‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई’ तो मैंने मज़ाक में कहा कि ‘सचमुच खुशी हुई या सिर्फ कहने के लिए?’ इस पर वह बहुत ज़ोर से हंसा और बोला कि ‘आप जो समझें’।
सामान्य परिचय के बाद शिष्टाचारवश मैंने उसे चाय ऑफर
की। किंचित संकोच के बाद वह तैयार हो गया, लेकिन मेरे अपार्टमेंट में नहीं, विश्वविद्यालय
कैंटीन में। कमरे चलने में वह हिचक रहा था। मैंने भी बहुत आग्रह नहीं किया। पहली
बार मिल रहा था तो मुझे भी बहुत आग्रह करने की आवश्यकता नहीं महसूस हुई। वैसे भी
मेरे लिए वो और उसके लिए लिए मैं आपस में अजनबी ही थे। उसको मैंने विश्वविद्यालय के कैंटीन में ले जाकर चाय पिलाई और बातचीत की। मैंने यह भी पूछा कि वह मुझसे क्यों मिलना चाहता है? जसने अजीब-सी बात बताई। बोला कि 'मैं यहाँ किसी पाकिस्तानी से मिलना चाहता था। पता चला था कि एक पाकिस्तानी अध्यापक इस विश्वविद्यालय में रिसर्च के
लिए आए हैं। मैं उनको और उनके बारे में कुछ नहीं जानता। बस सुना ही है। आपको देखा
तो ऐसा लगा कि आप पाकिस्तान से हैं।‘ मैंने पूछा कि मुझे देखकर आपको कैसे लगा कि मैं पाकिस्तानी
हूँ. क्या खास है मेरे चेहरे में?’ वह चुप रहा। फिर मैंने दोबारा पूछा तो बोला कि आपका चेहरा
पाकिस्तानी इसलिए लगता है कि आप दाढ़ी और मूंछ रखते हैं। इस देश में ज़्यादातर
पाकिस्तानी मूंछ रखते हैं और हिंदुस्तानी नहीं रखते हैं।‘ मुझे उसकी बात में थोड़ी-थोड़ी
सच्चाई लगी। क्योंकि कुछ कोरेयाई विद्यार्थी भी मुझसे पूछते थे कि मैं पाकिस्तानी
हूँ या हिंदुस्तानी? इसका कारण
संभवतः मूंछ ही रहा होगा। कैसी अजीब बात है? खैर, उस पाकिस्तानी के प्रति मेरे
मन में रूचि बढ़ने लगी। वह बातें बहुत शानदार करता था। उसको हिन्दी नहीं आती थी।
उर्दू भी नहीं आती थी। केवल ऐसी भाषा बोल रहा था जो पंजाबी जैसी थी. हालांकि वह
स्वात का रहने वाला था। उसी ने मुझे बताया कि स्वात बहुत सुंदर जगह है। मौसम बहुत
अच्छा है और प्रायः ठंड रहती है। उसने तो यहाँ तक कहा कि ‘स्वात आपके कश्मीर से भी अधिक
सुंदर है।‘ उसके मुंह से ऐसा सुनकर अजीब-सा लगा. हम तो कश्मीर को स्वर्ग कहते हैं, पर हबीब? मैंने
मजाक में उससे यूं ही कहा कि हिन्दुस्तानी ही क्यों ज़यादर पाकिस्तानी भी विदेशों
मूंछ नहीं रखते हैं. उस लड़के के चेहरे पर भी मूंछें नहीं थीं. हम मूंछ नहीं तो
मूंछ की बात अवश्य रखते हैं. वह जोर से हंसा और बोला आप अच्छी बातें करते हैं. थोड़ी
ही देर में हबीब से ढेर साड़ी बातें हो गयीं. पता चला कि उसकी जिंदगी बहुत व्यस्त
है। वह अधिक पढ़ा लिखा नहीं है। उसको अंग्रेजी भी ठीक से नहीं आती है। शब्दों का
उच्चारण बहुत खराब करता है। अशुद्ध भी बोलता है। वाक्य सही से नहीं बना पाता। फिर
भी वह कई साल से कोरिया में रहता
है और किसी प्राइवेट कंपनी में काम करता है। हबीब ने यह भी बताया कि वह विवाहित है
और उसकी पत्नी कोरियाई है। आगे बातचीत के दौरान यह भी मालूम हुआ कि उसकी पत्नी
डॉक्टर है और एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत है। उसने मुझे अपने घर बुलाने के लिए
कहा और यह भी कि यदि कोरिया में कहीं कोई काम पड़े तो वह मदद करेगा. वह कोरियाई
बहुत अच्छी बोल लेता था. बीच में किसी से फोन पर बात करते हुए उसको सुना. मैंने हबीब को धन्यवाद कहा और उसे
बाहर तक छोड़ आया। वह चला गया तथा पुनः आने के लिए भी कह गया। हबीब अगले दो-तीन दिन
नहीं आया। अब मुझे उससे मिलने की इच्छा होने लगी। मैंने उसको फोन किया। लेकिन वह फोन
पर नहीं मिला। फोन शायद बंद था। कोरेयाई भाषा में कोई संदेश आ रहा था। मैं कोरेयाई
संदेश नहीं समझ सका। फोन करने के दो दिन बाद हबीब का फोन आया। बोला कि दूसरे शहर में
किसी काम के सिलसिले में गया था। उसने मेरे पास मिलने आने के लिए कहा. अगले दिन
हफ़्स में आया। लेकिन मेरे टहलने के बाद। मैंने पूछा कि ‘तुम नियमित नहीं टहलते हो’। हबीब बोला कि ‘बिलकुल नहीं’। कभी-कभी समय मिलने पर ही
टहल पाता हूँ. नौकरी के बाद समय ही कहाँ
मिलता है कि टहलूं भी........आगे ....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें