‘प्राचीन’ काल से ही उस्तरा और नाई का गहरा संबंध रहा है.
हालाँकि ‘उस्तरा’ शब्द आज भी बहुत चलता है. पर आज उस्तरे के मूल रूप से सब लोग परिचित नहीं हैं.
वैसे लोग प्रायः कहते मिल जायेंगे कि ‘चलो अपने सिर पर उस्तरा फिरवालो’. या ‘अरे उस्तरा लग गया’ ‘उस्तरे से बालों को घोटमघोट
करा लो’ अथवा ‘आपके बाल उस्तरे से काटूं या मशीन से?’ आदि-आदि अनेक वाक्य बहुधा कहे और सुने जा सकते
हैं. लेकिन उस्तरे के आरंभिक रूप को अब लोग लगभग भूल-सा गए हैं. आजकल ‘यूज एंड थ्रो’ वाले उस्तरे भी बाज़ार में आ
गए हैं लेकिन दाढ़ी बनाने के लिए विशेष रूप से नाइयों की दुकानों में और घर पर भी
सर्वाधिक प्रचलित माध्यम रेज़र ही है, जिसमें ब्लेड लगाया जाता है. आजकल उस्तरे में भी ब्लेड
लगाया जाता है. पहले उस्तरे में ब्लेड नहीं लगाया जाता था. बहुत पहले की बात मुझे
याद है कि जब गाँव में नाई बाल काटने आया करता था तो सबसे पहले साथ लाई अपनी पोटली
खोलकर एक-एक करके उसके अन्दर का सामान निकाला करता था. इस प्रक्रिया में सबसे पहले
वह कपडे की एक पोटली निकालता था जिसमें उस्तरा लपेटा हुआ होता था. उस पोटलीनुमा
कपडे की एक-एक तह को खोलता जाता था. उसके अन्दर से उस्तरा निकालकर एक तरफ को रख
देता था. उसके बाद कटोरी निकालकर रख देता था. एक पत्थर भी निकाला जाता था जो
सिलेटी रंग के एक साबुन के आकार का होता था. पत्थर उस्तरे पर धार लगाने के लिए
होता था यानी उस्तरे को पैनाने के लिए. पत्थर पर पानी लगाकर उस्तरे को उसपर
बार-बार घिसने के कारण ऊपर से एक कर्व-सा बन जाता था. उस्तरा और पत्थर निकालने के
बाद नाई पोटली में से चमड़े का एक पट्टा-सा लिकालकर एक ओर को अलग रख देता था.
कभी-कभी एक सस्ते साबुन की गोलाकार डिब्बी भी साथ में होती थी जो दाढ़ी बनाते समय
काम में आती थी. सब सामान को निकलने के पश्चात् उस्तरे को साथ लाये पत्थर पर काफी
देर तक घिसा जाता था. यह एक कलात्मक काम होता था. पत्थर के बाद नाई महोदय उस
उस्तरे को दाढ़ी पर इस्तेमाल करने से पहले उस चमड़े के पट्टे पर रगड़ना नहीं भूलते
थे. यदि नाई गलती से भी उसको चमड़े पर रगड़ना भूल जाता था तो उसके इस्तेमाल से दाढ़ी
पर न जाने क्यों दाने-से निकल आते थे. इसलिए पहली बार उस्तरे पर धार लगाने के बाद
नाई उसको चमड़े पर उलट-पलटकर एक बार ज़रूर रगड़ता था.
मैंने बचपन में एक
बुजुर्ग नाई को देखा था जिसका हाथ कांपता था. उस्तरे की धार भी वह ठीक प्रकार नहीं
लगा पाता था. वह तो उस्तरे को पत्थर पर थोडा-सा रगड़ने के बाद अपने दायें पैर की
पिंडली पर उलटते-पुलटते ज़रूर रगड़ता था और इसीलिए उसकी पिंडली के उस हिस्से पर एक
भी बाल शेष नहीं बचा था, जहाँ उस्तरे को उल्टा-पलटा जाता था. एक बात और कि ब्लेड का
उपयोग शुरू हो जाने के बाद ब्लेड से बनाई गयी दाढ़ी को उस्तरे से बनाना कठिन हो
जाता था. वह ‘हार्ड’ हो जाती थी. इसलिए यदि उस नाई का
यजमान किसी कारण कभी ब्लेड से अपनी दाढ़ी बना लेता था तो हमारे घर का वह नाई बहुत
नाराज़ हो जाता था और दाढ़ी बनाने से मना तक कर देता था. वह रेज़र से दाढ़ी बनाने के
कारण उस व्यक्ति से तो नाराज हो ही जाता था, साथ ही उस्तरे के इस्तेमाल की भी अनेक कमियां
गिनाने लगता था. लोग उस समय कहा करते थे कि यह नाई ब्लेड लगे रेज़र से दाढ़ी बनने की
इसलिए बुराई करता है ताकि कोई रेज़र को उस्ताएर का विकल्प न बना ले और नाई का महत्व
कम न हो जाए. एक बार ऐसा हुआ भी था कि सुक्खी नाई ने ब्लेड से बाल बनवाने वालों के
बाल काटने से मन कर दिया था और उस घर का काम करना ही छोड़ दिया था. हालाँकि
शादी-ब्याह बगैरा में उसने काम करना नहीं छोड़ा था. बुलाने पर ही नहीं यदि उसको पता
चल जाए तो भी ज़रूर आ जाता था. वैसे कोई भी परिवार बिना नाई के उन दिनों काम नहीं
चला पता था. शादी के लिए प्रस्ताव लाने से लेकर शादी हो जाने के एक वर्ष बाद तक
पड़ने वाले सभी तीज-त्योहारों पर सामन ले जाने और लाने का काम नाई ही किया करता था.
वह जब भी किसी लड़की की ससुराल जाता तो उस गाँव में रहने वाली अपने गाँव की सभी
लड़कियों, चाहे वह बुजुर्ग ही क्यों न हो गयी हो, अवश्य मिलकर आया करता था. सभी घरों में उसके
बेरोक-टोक आने-जाने की अनुमति थी. कुछ लोग उसको उसके नाम यानी ‘सुक्की’ नाई कहकर पुकारते और बाकी
लोग उसको ससम्मान ‘नाई ठाकुर’ कहकर संबोधित करते. जो लोग नाम लेकर आवाज़ देते तो सुक्की को
कम पसंद आता था. ‘नाई ठाकुर’ संबोधन उसको अच्छा लगता था. मैं सुको सदैव ‘सुक्की’ ही कहता था. हालाँकि मेरे
चाचाजी की उम्र का था पर और लोगों से सुन-सुनकर ‘सुक्की’ नाई ही कहता. उसको बुरा लगता था लेकिन कहता कुछ
नहीं था. मैं भी उस समय नहीं जान पाता था कि उम्र में अपने चाचा के बराबर होने के
बावजूद मैं चाचा को तो चाचा कहता पर नाई को सदैव उसके नाम से ही पुकारता. बड़ा होने
पर जब रिश्तों का बोध हुआ तो भी व्यवसायगत अंतर के कारण सुक्की मेरे लिए सुक्की ही
रहा. हालाँकि मैं बड़ा हो चुका था और सुक्की तो और भी बड़ा हो चुका था. पर नाई और
उसके यजमान के रिश्ते में आजतक कोई अंतर नहीं आया.
सुक्की पूरे गाँव का
नाई था. लेकिन वह केवल ब्राह्मणों के बाल ही बनाता था. गाँव की अन्य जातियां जो
विभिन्न व्यवसायों से जुडी थीं और मुख्यतः किसानों की फसल पर ही निर्भर जातियां
थीं क्योंकि उनके पास खेती के लिए जामीन नहीं थी. बाल आदि कटाने के लिए उनकी अपनी
व्यवस्था हुआ करती थी. अब नाइयों की शैली बहुत बदल गयी है गाँव में कम पर शहर में
ज्यादा. शहर में तो तरह-तरह के उपकरण और सामान आ गए हैं. तरह-तरह का सामान, सुन्दर कुर्सियां, आकर्षक शीशे एलसीडी और वह
भी चलता हुआ. यानी बिना किसी व्यस्तता के अब आप नाई की दूकान पर थोड़ी देर बैठकर
अपनी बारी का इंतजार भी कर सकते हैं, बिना बोर हुए. सामान में भी तौलिया, बाल काटने से पहले लगाने
वाला कपडा और ब्रश आदि भी नए प्रकार के आ गए हैं. सुन्दर कपड़ा लगाने से पहले कागज
का एक टेप की पट्टी जैसी चीज गले के चारों ओर लगायी जाती है. उसके ऊपर पर कपड़ा
बाँधा जाता है. सब काम एक करीने से किया जाता है. जितने सलीके से काम किया जाता है
उतने सलीके के पैसे भी लिए जाते हैं. गाँव का नाई तो अपने हाथ को पानी में भिगोकर
उससे दाढ़ी को पलता रहता था और सॉफ्ट हो जाने के बाद शेव करना शुरू करता था. यहाँ
तो ट्यूब से फोम निकालकर लगाईं जाती है, फिर उस्तरे को खोलकर उसे डिटोल से धोया जाता है.
फिर एक स्टाइल के साथ एक ब्लेड को तोड़कर उसके आधे हिस्से को उस उस्तरे में लगाया
जाता है. उसके बाद ही शेव की जाती है. यह एक लंबी प्रक्रिया है इसलिए फीस की राशि
भी ठीक-ठाक होती है. सड़क किनारे के नाइयों की कहानी बाद में.
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