यह बात लगभग तीस साल पुरानी है जब मैं अपने मित्र के साथ उसके किसी दूर के
रिश्तेदार के घर गया था. मित्र के घर पर उसके की बात चल रही थी और मित्र थे कि
अपने विवाह का जिक्र आते ही बिदक जाते थे. इस ऊहापोह की हालत में कई साल बीत गए.
एक दिन मित्र अपने परम्पगत स्वाभाव में किंचित परिवर्तन लाते हुए से दिखे. सुबह-सुबह
मेरे कमरे आये और कहने लगे कि ‘आज शाम को वसंत विहार चलना है.’ मैंने मन में सोचा
कि क्या खास बात है इसमें? वसंत विहार तो निकट ही था और हम अक्सर वहां जाते रहते
थे. यह बात अलग थी कि हम जे एन यू के छात्र थे और मार्क्सवाद में नए-नए दीक्षित
हुए थे. इसलिए वसंत विहार या ऐसे ही अन्य स्थान जो अमीरी के द्योतक थे हमको चिढाते
थे. चार सौ रूपये की कमीज या पेंट का महत्व नहीं था. अगर आप पहनते हों तो पहनें
कोई नहीं जानना चाहता था, आपसे उसके बारे में उन दिनों, लेकिन दस रुपये की जनपथ के
फुटपाथ से खरीदी हुई शर्ट हमारे बीच चर्चा का विषय बन जाती थी. शानदार शादी ब्याह
तो बुर्जुआ वर्ग के लक्षण कहे जाते थे. खैउर, जब मित्र ने कहा कि वसंत विहार चलना
है तो मैं चौंका. मेरे चौंकते ही मित्र मेरा आशय समझ गए और तुरंत बोले कि ‘वसंत
विहार तो मैंने यूं ही कह दिया था. वसुत्श तो हमें वसंत गाँव के समीप बने डीडीए
फ्लेट्स में चलना है.’ मैंने कहा कि ‘ठीक है. कब चलना है और क्यों चलना है?’ इस पर
मित्र थोडा शरमाते हुए बोले कि ‘यार किसी से अभी कुछ मत कहना. घर से बहुत दबाव है.
एक लड़की देखने जाना है.’ मैं चुप हो गया. अच्छा भी लगा कि एक शुभकाम के लिए मित्र
का साथ देना है. वैसे अनेक तरह की लुम्पिनगीरी में तो साथ निभा ही चुके थे. ....शाम
को सात बजे वसंत गाँव के डीडीए फ्लेट के निकट मित्र के बताये स्थान पर पहुँच गया.
थोड़ी देर में मित्र भी आ गए. हम दोनों साथ-साथ कन्या के घर गए. वह एक एमआईजी फ्लेट
था. ड्राइंग रूम में एक ओर सोफा था. पीछे भारी जूडावाला शायद 25 इंच का एक टीवी चल
रहा था. बीच वाले थ्री सीटर सोफे पर फ्लेट के मालिक यानी संभवतः लड़की के पिताजी
बैठे हुए थे. वे न जाने क्यों बैठे ही रहे यानी हमारे स्वागत के लिए उठे नहीं. हो
सकता है उन्होंने हमको इस लायक न समझा हो. या अपनी गोद में बैठे कुत्ते को
डिस्टर्ब न करना चाह हो. कुत्ते से हम दोनों ही डरते थे. मित्र और मैं. हम कुत्ते
को देख रहे थे और अन्दर ही अन्दर डर भी रहे थे. कुत्ता लगातार हमको देख रहा था और
कुत्ते के मालिक कुत्ते के सिर पर लगातार हाथ फिरा रहे थे. थोड़ी देर में लड़की और
उसकी माताजी किचेन बहर निकलकर ड्राइंग रूम में आ गयीं. दोनों शायद हमारे लिए कुछ
खान-पान का सामान तैयार कर रही थीं. माताजी एक तौलिये से अपना एक हाथ पोंछते हुए
आते ही मित्र की ओर मुखातिब हुईं और हाल-चाल जानने लगीं. लड़की बिना शर्माए अपनी
लम्बाई को गर्दन तानकर और भी लम्बा करते हुए मित्र को निहार रही थी. कुछ इस भाव के
साथ कि कहो, आ गए बच्चू? बच्चू यानि मित्र लगातार सिकुड़े जा रहे थे. अगर मैं उनको
चिकोटी न काटता तो सोफे के साइज से भी और छोटे हो जाते.
खैर थोड़ी देर में चाय आई, बिस्कुट आये और बहुर दिनों के बाद दिखने वाले पकोड़े भी. खाने का
सामान देखते ही मैंने धीरे से मित्र से कहा कि लड़की अच्छी है. मित्र ने मेरी बात को
अनसुना कर दिया और लड़की की बजाय कुत्ते को देखते रहे. कुता भी बहुत ढीठ था. लड़के
यानी मित्र से निगाह मिलाने की लगातार कोशिश कर रहा था. हम बिस्कुट उठाने का
प्रयास करते और कुत्ता भौंकता. कुत्ते के भौंकते ही बिस्किट हाथ से छूट जाता. कई
बार प्रयास किया और फिर केवल चाय का प्याला उठा लिया. लड़की के पिताजी कुछ लेने का
आग्रह करते और कुत्ता न लेने देने का. खैर थोड़ी देर औपचारिक-सी बातचीत करने के बाद
हम विदा लेकर वापर अपने हॉस्टल लौट आये. मित्र ने लड़की के स्वाभाव, या निगाह के उसके
चश्मे या कुत्ते की हठधर्मिता को देखकर निर्णय कर लिया कि वे उस लड़की के लिए नहीं
बने हैं. मैंने मित्र का साठ दिया. क्योंकि खा तो कुछ मैं भी नहीं सका था.
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