जब मैं सन 76 में जे.एन.यू. पढने पहुंचा तो वहां
अनेक नये लोगों से मुलाक़ात हुई. इनमें
वैसे तो सभी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे पर कुछ तो ऐसे थे कि उस विलक्षणता
की सीमा में भी नहीं आते थे. ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे चौ. रामवीर सिंह. चौ. रामवीर
सिंह भारतीय भाषा केंद्र में शोधार्थी थे. उनका विषय था ‘भारतीय नवजागरण की दृष्टि
से मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती और मुसद्दस-ए-हाली का आलोचनात्मक अध्ययन. उनके
शोध निर्देशक थे गुरुवर प्रो. नामवर सिंह और सह-शोध निर्देशक थे, भारतीय भाषा
केंद्र में ही उर्दू के प्रो. एस. आर. किदवई. क्योंकि विषय हिंदी और उर्दू दोनों
से ही सम्बंधित था इसलिए एक शोध निर्देशक हिंदी से और एक उर्दू से थे. चौ. रामवीर
सिंह को मैंने पहली बार भारतीय भाषा केंद्र के दफ्तर मैं ही देखा. उनका क़द बहुत लम्बा
नहीं था पर छोटा भी नहीं था. जिसे ठीक-ठाक कहना चाहिए वैसा ही था. थोड़े छरहरे शरीर
के थे इसलिए थोड़े लम्बे ही लगते थे. पर पूरे लम्बे से थोड़े कम. चेहरे पर बड़ी-छोटी
दोनों माताओं ने बचपन में मेहबानी की होगी थी. पर माताओं की नाराज़गी भी उनके चेहरे
के सौंदर्य में कोई अवरोध पैदा नहीं कर पायी थी. ये निशान सौंदर्य को बढ़ा रहे हों
ऐसा भी उस वक़्त नहीं कहा जा सकता था. उन्होंने अलीगढ मुस्लिम विश्विद्यालय से पढाई
की थी, अतः उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा प्रायः पहना
जाने वाला लिवास ड्रेस की तरह पहन रखा था. शेरवानी और पाजामा. फर्क केवल टोपी का
था. चमड़े की काली जूतियाँ और सिर पर सफ़ेद कपडे से बनी टोपी लगा राखी थी, जैसी प्रायः
उस समय नेता पहना करते हैं. अब तो नेताओं ने भी टोपी पहनना छोड़ दिया है. लेकिन
मुझे विश्वास है कि चाहे चौधरी साहब कहीं भी हों, पर उन्होंने टोपी पहनना नहीं बिलकुल
छोड़ा होगा. क्योंकि अपनी पूरी पोशाक में वे सबसे अधिक महत्व टोपी को ही देते थे.
वे सबकुछ त्याग सकते थे, पर मूंछे और टोपी तो कदापि नहीं. उनकी अचकन का रंग काला
नहीं था बल्कि हलके मटमैले रंग का था. चेहरे पर मूंछें थीं ही जिनको वे पूरा
सम्मान देते थे. कुल मिलाकर चौ. रामवीर सिंह पूरे जे.एन.यू. में एक अलग ही
व्यक्तित्व लेकर अवतरित हुए थे. इसलिए प्रायः सभी विद्यार्थी चाहे विभाग के हों या
विभाग के बाहर के, उनको पहचानते थे. उनकी पूरी पर्सनालिटी ही ऐसी थी. उस समय के
किसी विद्यार्थी से आज भी बात करिए तो उनके बारे में अनेक झूठे-सच्चे किस्से आपको
बताने लगेगा. लेकिन मेरे इस संस्मरण से ऐसी कोई अपेशा आप न करें. मैं तो वही लिख
रहा हूँ जो मैंने देखा, यानी आँखों देखा. खैर, चौधरी रामवीर सिंह एक निहायत ही सज्जन,
भारतीय संस्कृति के प्रति प्रतिबद्ध एक जुझारू कार्यकर्ता, ग्रामीण संस्कृति के
स्वयं वाहक, राजनीति के प्रदूषण के खिलाफ निरंतर सक्रिय राजनेता यानी एक शानदार और
अविस्मरणीय व्यक्तित्व. भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी द्वारा
आरम्भ किये गए दो महत्वपूर्ण नारे, जैसे अंग्रेजो भारत छोड़ो और विदेशी सामान का
बहिष्कार करो चौधरी अब भी चला रहे थे. इस आन्दोलन में उन्होंने दो और चीजे शामिल
कर ली थीं, एक पाश्चात्य सभ्यता और दूसरा अंग्रेजी. वे अंग्रेजी और अंग्रेजियत
दोनों के उतने ही विरोधी थे जितना उन्हें होना चाहिए था. उनके इस विरोध के कारण
बहुत से विद्यार्थी उनको नापसंद करते थे. उनके रहने का अपना स्टाइल था. मैं तो ठेठ
ग्रामीण था. था क्या आज भी हूँ. मुझे भी अंग्रेजी ठीक से नहीं आती थी, विदेशी
सामान तो देखा भी नहीं था इसलिए विरोध क्या करता पर, हां करना चाहता था, क्योंकि
मैं पहले विरोध कर नहीं पाया था. इसलिए भी रामवीर जी के प्रति लगाव था.
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.ए. हिंदी
करके आये थे. संभवतः वहीं पास के ही किसी गाँव के रहने वाले थे. घर पर ठीक-ठाक
ज़मीन भी थी. उनके पूरे व्यक्तित्व में एक खास प्रकार का खांटी देशीपन तो था ही.
मेस में खाना खाते समय अपने कमरे से देशी घी का दो किलो का डिब्बा साथ लाया करते थे.
खूब घी-दूध के शौकीन थे. प्रेमी जीव थे अतः स्वयं भी खाते और जो पास बैठा होता
उसको भी खूब घी खिलाते. घी के साथ रोटी खाने के शौक़ीन कभी-कभी भोजन के समय उनके
आने का इंतजार भी कर लेते.
पहलवानी का उन्हें बहुत शौक था. मेरे सामने तो
नहीं, पर सुना था कि जे.एन.यू. की वेट लिफ्टिंग टीम का वे हिस्सा रहे थे. मैं जब
उनसे मिला तो किंचित बीमार ही रहते थे. किसी ने बताया कि जब वे वजन उठा रहे थे तो
किसी शरारती छात्र ने उनका फोटो खींचना चाहा. वे फोटो के लिए पोज़ देने लगे. तभी छात्र
ने उनसे मुस्कराने के लिए कहा. वे सज्जनता में समझ नहीं पाए कि जब भार उठाये हुए
हैं, सांस रोककर रखना है तो मुस्कराने का क्या मतलब. चौ. साहब किंचित मुस्कराए ही
थे कि बेलेंस बिगड़ गया, चोटग्रस्त हो गए. परिणामतः भार उठाना बंद हो गया. खाने-पीने
पर भी असर पड़ा, अतः कुछ कमज़ोर भी हो गए. मुझे उनसे मिलना अच्छा लगा. इसलिए भी कि
हमारी जैसी पृष्ठभूमि के थे. ग्रामीण थे, किसान थे. हमारी जैसी ही भाषा बोलते थे यानी
ब्रजभाषा का प्रभाव लिए हुए हिंदी. क्योंकि हमारे क्षेत्र से थे और भारतीय भाषा
केंद्र से भी. अतः बहुत से समान बिंदु थे जिनके कारण मेरी चौधरी रामवीर सिंह को
जानने में रूचि बढ़ी.
चौधरी रामवीर सिंह के बारे में कैम्पस में अनेक
प्रकार की धारणाएं प्रचलित थीं. लोग कहते थे कि वे मदर डेरी का दूध पसंद नहीं
करते. वे उसको नकली और बेकार दूध मानते थे. वे चाहते थे कि जे.ऐन.यू. कैम्पस में गाय
अथवा भैसों का दूध मिलने की व्यवस्था भी होनी चाहिए. इसीलिए जब चौ. रामवीर ने जे.एन.यू.
छात्र-संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा तो विद्यार्थियों ने उनके मेनिफेस्टो में
दूध और घी खाकर स्वस्थ्य रहने की बात भी शामिल की. उनके समर्थक विद्यार्थी
जिन्होंने उनका प्रचार करने का वादा किया, यहाँ तक घोषणा करते घूमते थे कि यदि
चौधरी साहब चुनाव जीत गए तो पूरे कैम्पस की काया-पलट कर देंगे. कैम्पस को गाय और
भैंसों से भरवा देंगे. यहां तक कि मदर डेरी पर भी भैंस का असली दूध मिला करेगा.
काश ऐसा ही होता. लेकिन चुनाव का जब परिणाम आया तो वैसा ही था जिसका मुझे पूर्ण
विश्वास था. चौधरी साहब नीचे से पहले नंबर पर रहे. उन छात्रों के वोट देने पर भी
शक हुआ जो उनके साथ रात और दिन घूम-घूम कर प्रचार करते थे. हाँ मैंने अपना वोट चौ.
रामवीर सिंह को ही दिया था. महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक में जब हिंदी विभाग
खुला तो चौधरी रामवीर सिंह ने भी आवेदन किया. साक्षात्कार देने गए. बाद में पता
चला कि विषय विशेषज्ञ के रूप में स्वयं उनके गुरूजी विद्यमान थे. चौधरीजी को अपने
गुरुजी से और गुरुजी को अपने शिष्य से न जाने कितनी उम्मीदें थीं कि कुछ भी न हो
सका. नियुक्ति डा. रामबक्ष और श्री मनमोहन की हुई. रामवीर को पता चल चुका था. जब
साक्षात्कार के बाद भारतीय भाषा केंद्र लौटे तो एक किलो मिठाई का डिब्बा साथ लाये.
सब लोगों ने सोचा कि लगता है कि इस बार चौधरी साहब का सेलेक्शन हो ही गया. चौधरी
साहब ने उस समय वहां मौजूद सबको बड़े ही प्रेम से रोहतक से लायी मिठाई खिलाई. सबने उसी
प्रेमभाव से मिठाई खायी भी. लेकिन जब चौधरी रामवीर ने नियुक्त होने वालों में अपना
नाम नहीं बताया तो विश्वास ही नहीं हुआ. हमसब यह मानते थे और विश्वास भी था कि
रोहतक उनके लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है. केंद्र और राज्य दोनों में उसदल की
सरकार थी जिस दल में चौधरी रामवीर थे. उस समय के गृहमंत्री चौ. चरण सिंह से रामवीर
सिंह का परिचय था, यह बात मैं स्वयं जानता था. इसलिए जानता था कि एक बार मैं चौ.
रामवीर सिंह के साथ तुगलक रोड स्थित चौ. चरण सिंह के घर गया भी था. यूंही उन्हीं
के साथ जिज्ञासावश. विशेषज्ञ रामवीर सिंह को जानते थे. मुझे तो सचमुच विश्वास नहीं
हुआ. खैर मिठाई तो खाई जा चुकी थी जिसकी भी नियुक्ति हुई हो. यहाँ तो दोनों अपने
मित्र थे. जो हुआ पर इस बात से बहुत ख़ुशी हुई कि रामवीर जी कितने जिंदादिल इंसान
हैं की अपनी नियुक्ति नहीं होने पर भी अपने साथियों के नौकरी मिलने पर ख़ुशी मना रहे
हैं और अपने पैसे से मिठाई खिला रहे है.
मैं तो आश्वस्त था कि हो
न हो एम.डी.यू. रोहतक में उनकी नियुक्ति हो जाएगी. न हो सकी तो मैंने रामवीर जी से
इसका कारण जानना चाहा. वे बोले कि ‘सबकुछ ठीक चल रहा था. साक्षात्कार भी अच्छा
हुआ. विशेषज्ञ भी खुश एवं संतुष्ट नज़र आ रहे थे. पर संभवतः मेरी टोपी ने मरवा दिया’.
मैंने पूछा कि वो कैसे? तो कहने लगे कि ‘अंत में कुलपति चौ. हरद्वारीलाल ने मुझसे
मेरी टोपी को लेकर सवाल किया. वे बोले कि टोपी से तो आप नेता लगते हैं, कांग्रेसी नेता
लगते हैं. यहाँ भी राजनीती करेंगे क्या? मैंने उत्तर दिया कि ‘सर, डोंट सी माई
हेट, सी माई हेड’. फिर भी वे संतुष्ट नहीं हुए और शायद मुझे विरोधी दल का राजनेता
मान बैठे. जबकि मैं उन्हीं की पार्टी का हूँ. मैं यह बात भली प्रकार जानता था कि उस
समय रामवीर जी को नौकरी की बहुत ही अधिक आवश्यकता थी. उम्र भी हो रही थी और घर पर
ज़रुरत भी थी. गाँव वालों की आशाएं अलग थीं. विवाह हो ही चुका था. कई बार तो वे फसल
बेचकर दिल्ली में रहने का प्रबंध करके आये थे. शोध के लिए मिलने वाली फेलोशिप
समाप्त हो चुकी थी. और भी अनेक परेशानियाँ थीं. पर सब जानते हैं कि नौकरी
आवश्यकतानुसार प्रायः नहीं मिलती. भारतीय भाषा केंद्र द्वारा जो विषय उनको गया था,
शायद बहुत सोच-समझ कर ही दिया गया होगा पर चौधरी साहब उस विषय पर अपना शोध-कार्य
पूरा कर नहीं पाए और अंततः बिना कोई उपाधि लिए ही जे.एन.यू. से चले गए. चौ. रामवीर
सिंह के साथ भी वही हुआ जो प्रायः ऐसी पृष्ठभूमि के छात्रों के साथ हुआ करता है.
नौकरी नहीं लगी तो उन्होंने राजनीति की ओर रुख किया. कितने सफल हुए इसका ठीक-ठीक
ज्ञान मुझे नहीं है. मेरी जानकारी तो बहुत दिनों पहले उनके बाबू जगजीवन राम वाली
कांग्रेस की युवा इकाई के हरियाणा के अध्यक्ष बनने तक की थी. बस. बाद मैं क्या हुआ
मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं. जहाँ भी होंगे मस्त ही होंगे.
1 टिप्पणी:
Bahut marmik rekhachitra kheencha hai aapne. Lekin ab we kahaan hain, iska pata lagana chahie. Taaki kahani poori ho sake.
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