जामिया में मेरी अध्यापकी सन मार्च 1984 शुरू
हुई और उसी साल से जामिया में एम.ए. हिन्दी आरम्भ हुआ था. उस समय प्रथम वर्ष के बैच की कक्षाएँ चल रही थीं. वार्षिक पाठ्यक्रम था और अप्रैल के पहले सप्ताह तक कक्षाएँ चलनी थीं. हमारा
टाइम-टेबल अगले अकादमिक वर्ष से यानी एक अगस्त
से आरंभ होना था. प्रोफ़ेसर मुजीब रिज़वी उस समय विभाग के अध्यक्ष थे, छात्र-कल्याण
अधिष्ठाता भी थे, स्टेट रिसोर्स सेंटर तथा जामिया के अन्य भी अनेक विभागों की उनपर
जिम्मेदारियां थीं, अतः उनके द्वारा पढाये जा रहे पाठ्यक्रम का कुछ भाग शेष रह गया था. उन्होंने मुझसे अपनी कुछ कक्षाएँ
शेयर करने के लिए कहा. मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती थी? जामिया
में नयी-नयी नौकरी मिली थी. एक सप्ताह से खली बैठा हुआ था, नया-नया पाठ्यक्रम बन
रहा था. अत: ख़ुशी-ख़ुशी मैं प्रो. मुजीब रिज़वी द्वारा ली जा रही कक्षा में चला गया. तकनीकी रूप से वह जामिया में
मेरी पहली कक्षा थी. विद्यार्थियों
में अनेक तो दिल्ली के स्कूलों के अध्यापक थे जो बी. ए. करने के बाद बी.एड. तो कर
चुके थे पर हिंदी में एम. ए. नहीं थे. उन दिनों जामिया में लड़कियों. जामिया के
कर्मचारियों और सेना में काम करने वालों और प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों के लिए
प्राइवेटछात्र के रूप में परीक्षा देने की व्यवस्था थी. ऐसे विद्यार्थी यदि चाहते
तो नियमित कक्षाएं भी ‘अटेंड’ कर सकते थे. इसीलिए अनेक अध्यापक भी हिंदी की उस
कक्षा में प्राइवेट होते हुए भी नियमित पढ़ रहे थे. खैर एम.ए. हिंदी की जामिया की
पहली कक्षा में भी लगभग आठ ऐसे विद्यार्थी थे जो पहले से ही अध्यापक थे. उनमें
प्रायः सभी मुझसे उम्र में बड़े थे. बड़े क्या काफी बड़े थे. एक तो ऐसे थे जिनका बेटा
एम.ए. अर्थशास्त्र में और बेटी समाजशास्त्र में एक कर रहे थे. एक तरह से तीनों
समकालीन थे. कक्षा में पहुंचा तो ऐसा लगा कि अभिभावक अपने बच्चों के साथ आये हुए
हैं. पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि यह एम. ए. प्रथम वर्ष की कक्षा है. मैंने
जैसे ही दरवाज़ा खोला कक्षा में बड़ी उम्र वाले लोगों को देखते ही तुरंत दरवाज़ा बंद
कर दिया. वापस लौटने को ही था कि तभी एक छात्र जो संभवतः मुझे थोडा-बहुत जानता था,
बाहर निकलकर आया. वह शायद यह भी जानता था या मुजीब साहब ने कक्षा में बता दिया
होगा कि मैं उनकी जगह कक्षा लेने आने वाला हूँ, उस विद्यार्थी ने मुझे कक्षा में
अन्दर आने के लिये कहा. यद्यपि जे.एन.यू. में शोध करते हुए ऑप्शनल हिंदी की
कक्षाएं पहले ही ले चुका था पर यह मामला दूसरा ही था. डरते-डरते कक्षा आरम्भ की. फिर
धीरे-धीरे फ्लो बना और अध्यापकी शुरू हो गयी. उस कक्षा में मुझे जे.एन.यू. में
गुरुवर नामवर सिंह द्वारा एम.ए. के प्रथम सत्र में पढाया हुआ ‘साहित्य की रूपवादी दृष्टिकोण’
वाला पाठ्यक्रम बहुत काम आया. पढ़ाते हुए मैंने अनुभव किया कि कुछ छात्र तो बहुत ही
तल्लीन भाव में निमग्न लगभग उकडू-से होकर अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठे थे और मुझे लग
भी रहा था कि मेरी बात को कुछ-कुछ समझ रहे हैं. कुछ छात्र अपने दिमाग पर बहुत जोर
डालटे हुए ऐसे बैठे हुए थे जैसे की महिलायें गोलगप्पे वाले कि दूकान पर हाथ में
प्लेट या कटोरी पकडे हुए अपनी बारी के आटे या सूजी के बने गोलगप्पे का इंतजार करती
हैं. बाक़ी जिनमें अधिकाँश अध्यापक थे, वे ऐसे बैठे हुए थे जैसे कि बेगानी शादी में
अब्दुल्ला बैठा रहा होगा. ..... शेष बाद में.
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