कल अपने मित्र के साथ
किसी के यहाँ एक कार्यक्रम में गया तो खाने में रायता भी बनाया गया था. मुझे
क्योंकि अनुभव था इसलिए जब रायता देखा तो चौंका. स्वाद का थोडा लोभ भी था पर थोडा चौंका
इसलिए कि सन्नाटा बहुत मारक होता था. सामने वाला दर्शनीय ‘आइटम’ केवल रायता मात्र
नहीं था बल्कि पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में ब्याह-शादियों या ऐसे ही समारोहों के अवसर
पर परोसे जाने वाले भोजन का अनिवार्य हिस्सा रहने वाला ‘सन्नाटा’ था और उसी की तरह
प्रभावकारी भी. सन्नाटा बनाने की प्रक्रिया कुछ इस तरह है कि देहात में शादी या
समारोह के लगभग पंद्रह दिन पहले से छाछ एकत्रित करना शुरू कर देते थे. गर्मिंयों
के मौसम में तो इतने दिन रहने के बाद वह छाछ अत्यधिक खट्टी हो जाती थी, किसी अम्ल
की तरह. उसके बाद तेज़ नमक और ढेर सारी तेज़ मिर्चें डालकर उस मट्ठे को अच्छी तरह जीरे
और हींग के द्वारा छोंक लगाकर ‘धुमार’ दिया जाता था. इस तैयार माल का देहात में उन
दिनों बहुत आकर्षण हुआ करता था. पहले तो लोग कई गिलास ‘सूंत’ जाते थे पर अब हो
सकता है कि आजकल लोग पचा भी न पायें. लोग कहते थे कि इसके सेवन से आद्द्मी खाना कम
खता है और पानी अधिक पीता है. अब आजकल कुल्हड़ तो रहे नहीं, फैशन का हिस्सा बन चुके
हैं, पर किसी ज़माने में कुल्हड़ तथा सकोरे खाने के समय पत्तल का अनिवार्य भाग हुआ
करते थे. धीरे-धीरे कागज और प्लास्टिक की प्लेटों और गिलासों ने उन्हें लगभग गायब ही
कर दिया और उसी के साथ-साथ गायब हो गयी कुम्हारों की आमदनी. आधुनिक विकास का एक
रूप यह भी है. खैर, मैं सन्नाटे की बात कर रहा था. ‘सन्नाटा’ नाम शायद रायते के पेट
में जाने के त्वरित ‘एक्शन’ के कारण पड़ा है. पीते ही यह ‘सन्न’ करता हुआ निकल जाता
है और आपकी सभी इन्द्रियों को अचानक जागृत कर देता है. यानी छाछ या मट्ठे से बने
इस द्रव्य का एक घूँट लेते ही आपका हाथ स्वभावतः पानी के गिलास की ओर जाना लाज़मी
है. पानी पीते ही आप पेट की आवश्यकता और मुंह की शांति के लिए पुनः खाने का एकाध
कौर मुंह में डालेंगे, इसके बाद मुंह का जायका बनाने के लिए फिर सन्नाटे का पहले
से थोडा हल्का घूँट लेंगे और मुंह खाली होते ही सन्नाटे के कारण पैदा हुई मुंह की जलन
शांत करने के लिए इस बार पहले से ज्यादा पानी पीयेंगे. थोडा लड्डू खायेंगे, मुंह
मीठा करने और मिर्चों का असर कम करने के लिए. कोई देखे या न देखे लेकिन तेजी से
घटित हो रही आपकी इस खाद्य-प्रक्रिया में किसी तरह का अंतर नहीं आएगा. मिर्चों के
प्रभाव से बना तेज-तर्रार सन्नाटा, भयंकर चीनी से भरे लड्डू और बर्फ पड़े पानी को पी-पीकर
आप अपना पेट इतना भर चुके होंगे कि बाकी कुछ भी खाने के लिए आपके पेट में जगह शेष
न रहेगी. मेरा हाल जो हुआ सो हुआ पर मित्र का बहुत बुरा हाल तो उससे भी बुरा हुआ.
क्योंकि मिठाई मैं पसंद नहीं करता, बर्फ का पानी कभी पीता ही नहीं. अब बचा सन्नाटा
तो केवल स्वाद के लिए थोडा-सा ही लिया. क्योंकि बाद में होने वाले उसके असर के
बारे में मैं जानता था. लेकिन मेरे साथी की आदत और किंचित लोभ के कारण सन्नाटे का
असर उनपर कुछ ज्यादा ही हो गया. वैसे भी लड्डू और सन्नाटा उन्होंने बहुत लिया ही था.
मैं सन्नाटे के बारे में उनको सचेत तो करना चाहता था पर रुक गया. मैंने सोचा कि
भोजन के बीच में उनका ध्यान-भग्न नहीं करना चाहिए. वैसे भी ‘भोजन भट्ट’ होने के
कारण वे मेरी कहाँ सुनने वाले थे. इसलिए उनको भरपूर आनंद लेने दिया. सन्नाटे का
स्वाद पहली बार ले रहे थे. उनको अच्छा भी लगा इस कारण सचमुच ले गए. और भरपूर भी. परिणामस्वरूप
असर होना ही था. सुबह-सुबह उनका फोन आया था. सोफा और बाथरूम के बीच चक्कर लगा रहे
हैं. अब लगता है दो या तीन दिन तक सन्नाटे का असर रहने वाला है. पहले तो कभी किया
नहीं लेकिन अब कहते हैं कि ‘पश्चाताप आज बहुत हो रहा है’.
शनिवार, 22 दिसंबर 2018
गुरुवार, 20 दिसंबर 2018
साथी का केक
बार-बार मना करने पर भी
साथी न माने और केक बना ही दिया. लेकिन जो बना शायद वह किसी कुशल पाकशास्त्री के
लिए भी पहचानना मुश्कल हो जाय कि अपने रंग और शक्ल में मिल्क केक जैसा दिखने वाला
यह खाद्य पदार्थ वास्तव में मिल्क केक है या कुछ और. आपको आश्चर्य होगा कि यह सच
में ‘मिल्ककेक’ नहीं है, सचमुच केक ही है. पर नाम बड़े और दर्शन छोटे की भांति इसमें
केक का एक भी गुण नहीं है. दरअसल निर्माता की पाक-कला की गलतियों की सजा केक को मिलने के
कारण यह केक के नाम को ही बहुत बट्टा लगा रहा है. हुआ यह कि मुझे अपने एक साथी के
साथ विश्वविद्यालय के दूसरे परिसर में जाना था जो वहाँ से दूर था. काफी इंतजार के
बाद भी जब वे नहीं आये तो मैंने फोन किया. फोन पर कुछ बदली हुई आवाज़ आ रही थी.
मैंने पूछा तो बोले कि ‘आप ही आ जाइए मेरे यहाँ, मेरे तो आज दांतों में दर्द है.’ वैसे
दांत दर्द किसी को भी हो सकता है लेकिन मुझे अन्दर से कुछ अच्छा नहीं लगा कि
हँसते-खेलते मेरे इतने युवा साथी को दांत-दर्द हो जाय. मानव स्वाभाव के विश्लेषण
के आधार पर भी वे सब दर्दों से परे लगते थे. अतः दांत के दर्द का कारण पूछने के बदले
मैं उनके अपार्टमेंट में गया तो उदास बैठे थे. मैने कहा कि क्या हुआ? आप तो उदास
होते अच्छे नहीं लगते. उन्होंने कुछ बोलने से पहले समीप रखा केक मेरी ओर सरका
दिया. उनके उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए मैंने केक की ओर हाथ बढाया. उन्होंने तो
उत्तर देने में जल्दी नहीं की, लेकिन मैंने केक का एक पीस अपने हाथ में पकड़कर खाने
के लिए जल्दी से अवश्य उठाया. मगर स्पर्श करते ही ऐसा लगा जैसे सीमेंट और बदरपुर
की खुरदुरी मगर किसी मज़बूत दीवार को तोड़ने पर उससे निकली ईंट का सीमेंट लगा टूटा
हुआ, भयानक खुरदुरा-सा कोई टुकड़ा छू दिया हो, लगभग वैसा ही टुकड़ा जिसके स्पर्श से
कभी-कभी हाथ भी छिल जाता है. हाथ में लेकर दवाया तो अंगूठे में ही दर्द हो गया.
दीवार पर मारकर देख नहीं सकता था ज़रूर आवाज़ होती. फिर यहाँ की दीवारें भी लोगों की
तरह औपचारिक-सी और कृत्रिम स्वाभाव की लगती हैं. लगा कि गुस्से में दीवार में
मारकर देखा भी तो पार निकलकर, यदि हमारी तरह ही पड़ौसी भी फालतू बैठा हो तो उसका
सिर ही न फूट जाय. मुझे इस स्थिति में देखकर प्रोफेसर साहब हंसने लगे. शायद उनको
मेरी ऐसी ही प्रतिक्रिया की आशा थी. मैंने कहा कि केक बना रहे थे या कोरिया में घर
बनाने के लिए ईंटें? आपसे जब कहा था कि अपने आप को सामान्य दाल-चावल अथवा खिचड़ी पर
ही कन्सेंट्रेट करो. विदेश में अतिरिक्त जोखिम मोल न लो. तो रोज-रोज ये नए
अनुसन्धान करते ही क्यों हैं. बोले, गूगल पर सर्च करके देखा है. केक बनाना कोई
मुश्किल काम नहीं है. बस अनुपात ठीक हो. पहली बार प्रयास किया, पर लगता है कि
अनुपात ही बिगड़ गया. अंडा मैं खाता नहीं. और यहाँ की भाषा के कारण बाज़ार से लाकर कुछ
ऐसा भी नहीं डाल सका कि जिससे केक में थोड़ी सॉफ्टनेस आये, फिर कल आपका फोन बार-बार
आ रहा था तो समय पर ओवन बंद करना भी भूल गया. देखने में तो अच्छा लग रहा था. लोभवश
थोडा-सा ही खाया था, परिणामस्वरूप एकाध दांत में नहीं पूरे मुंह और मसूड़ों में ही ज़बरदस्त
दर्द है. आपको अतिश्योक्ति लगेगी मगर रात को दर्द इतना था कि दवा लेनी पड़ी. बोलने
में ही कठिनाई हो रही है. कक्षा क्या लूँगा. आप भी तो ज़रा-सा खाकर देखिये. इतना
बुरा नहीं है. उन्होंने ‘शानदार केक’ के लिए मुझे ही दोबारा दोषी ठहराते हुए पुनः
कहा, ‘आपके फोन के कारण ही तो ऐसा बना है. समय पर ओवन बंद करना भूल गया थान. अब थोडा-सा तो आप
भी खाइए ही.’ मैं उनका चेहरा देखने लगा. कहा कि ‘यार आप मित्र हैं या शत्रु? हर
काम में... जब आपको पता चल ही गया है अपने
करामाती प्रयोगों का और कल के उस प्रयोग के कारण कष्ट भी उठा रहे हैं, तो मुझे जानबूझकर
अपने कष्ट में इस तरह शामिल क्यों कर रहे हैं कि मेरे भी दांत टूट जाएँ? मेरी आपके
प्रति पूर्ण सहानुभूति है. मैं इतना रिस्क ले सकता हूँ कि इस बचे हुए केक को किसी
गोपनीय स्थान पर दफनाने में आपकी मदद कर सकता हूँ. वर्ना इस तरह कहीं बाहर फेंकोगे
तो लोगों को बेकार में शक होगा. समझ तो कोई पायेगा नहीं कि यह क्या है और क्यों
बनाया गया है. और ‘जिस चीज के बारे में कुछ पता न हो वह बम भी हो सकती है’ वाली
बात के आधार पर तो कुछ भी हो सकता है. यदि किसी कोरियाई को पता चला तो न जाने क्या
सोचे. ‘नार्थ’ वैसे भी यहाँ से समीप ही है.’ इस पर भी साथी न समझे और कहने लगे कि ‘चलिए,
आज फिर एक बार कोशिश करते हैं’. मैंने कहा कि ‘आराम करो. यदि केक ही खाना है तो
मैं आते समय बाज़ार से लेता आऊंगा. आप कम्प्लीट बेडरेस्ट करें. शाम को बाहर चलकर
खायेंगे’. बोले इतना भी बीमार नहीं हूँ. चलिए. आपकी बात ही सही. इस केक को दोनों
कहीं नीचे फेंक आते हैं. एक तो इन्होंने न जाने क्यों, नीचे दस तरह के कूड़ेदान क्यों
रखे हैं. कन्फ्यूज़ करके रख दिया है. यहाँ कुछ ज्यादा ही चक्कर है. हर तरह के वेस्ट
के लिए अलग पोलीथिन तैयार करो और इतना ही है तो ऐसे केक अदि के लिए भी फिर लिख
दें. इसको कहाँ डालें?
बुधवार, 19 दिसंबर 2018
साथी प्रोफ़ेसर
जामिया ज्वाइन करने के
बाद जब मैं एक दिन हिंदी विभाग पहुँच तो सबसे पहले विभाग में पाठक जी बैठे मिल मिल
गए. दोपहर का समय था. उन दिनों दोपहर एक बजे के बाद जामिया लगभग वीरान-सी हो जाती
थी. इसके कई कारण थे. एक तो अधिकाँश विषयों में एम ए की पढाई शुरू से नहीं होती
थी. दूसरे जामिया आवासीय विश्वविद्यालय नहीं थी. तीसरे जो छात्र ओखला के बाहर से
आते थे उनके लिए दूसरी जगहों के लिए जाने वाली सभी विश्वविद्यालय स्पेशल बसें एक
से दो बजे के बीच ही चली जाती थीं. इसलिए विद्यार्थी अन्य गतिविधियों के बारे में
तो कम और अपनी बसों के लिए विशेष रूप से सचेत रहा करते थे. कारण कि यदि किसी
विद्यार्थी की बस छूट जाय तो जामिया से बाहर जाने के लिए विकल्प उन दिनों बहुत ही सीमित
हुआ करते थे. निष्कर्ष यह कि जामिया एन आरंभ के दिनों में एक कॉलेज जैसा ही
वातावरण हुआ करता था. यहाँ तक कि जामिया आने वाली सभी बसों पर भी लिखा होता था ‘जामिया
कॉलेज’. प्रमाण के लिए कुछ बस स्टॉप्स पर आप आज भी लिखा हुआ पढ़ सकते हैं ‘जामिया
कॉलेज’. खासकर इंजीनियरिंग कॉलेज के बाहर. आज से उस ज़माने के जामिया की कोई बराबरी
नहीं. खैर, मुझे पाठक जी से मिलवाते समय असग़र भाई ने मेरी तारीफ के पुल तो भली-भांति
बांधे ही साथ ही पाठक जी को भी मेरे समक्ष हिंदी के श्रेष्ठ कवियों में स्थापित कर
दिया. लेकिन साथ ही यह एक बात कहना भी न भूले कि ‘यदि पाठक जी अपनी शायरी को
जामिया तक महदूद न रखते तो सचमुच हिंदी के एक बड़े कवि हो जाते. अपनी इतनी प्रशंसा
सुनते ही राधेश्याम पाठक जी अपने आप को रोक न सके और तुरंत लिखी अपनी एक कविता
मुझे सुना दी. पाठक जी की एक विशेषता थी कि वे किसी को नया या पुराना परिचित नहीं
मानते थे. जिससे मिलते कुछ इस तरह मिलते कि जैसे लम्बे समय से उसे जानते हैं. मुझे
भी उन्होंने ऐसा ही पूर्व परिचित समझा क्योंकि जैसे ही वजाहत साहब मुझे उनसे
मिलवाकर कहीं चले गए, संभवतः अपनी कक्षा में, तो पाठक जी ने अनेक किस्से मुझे सुना
डाले. मैं तो नया था और उससे भी नए थे पाठक जी के किस्से जो अधिकांश जामिया और
जामिया के लोगों से ही जुड़े थे. मैं तो जामिया से था ही अपरिचित और पाठक जी के
अधिकांश पात्र हिंदी अथवा मानविकी संकाय की अन्य भाषाओँ से सम्बद्ध अध्यापक ही नहीं
जामिया के विभिन्न विषयों के लोग थे. मैं समझ गया कि पाठक जी जामिया के मारे हुए
हैं. उनके जेहन में जामिया बसी थी और वे जामिया में. धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि उठते-बैठते,
सोते-जागते, पढ़ते-पढ़ाते उनको जामिया ही दिखाई देती थी.
स्व. राधेश्याम पाठक
मूलतः अनूपशहर (बुलंदशहर) के रहने वाले थे. मैं भी वहीं का रहने वाला. हिंदी के
प्रसिद्ध मध्यकालीन रीति कवि सेनापति भी अनूपशहर के रहने वाले थे. हालाँकि पाठकजी
को नहीं मालूम थ कि वे सेनापति के शहर के हैं. मैंने जब उनको बताया तो उन्होंने
सेनापति की शैली कि अपनी लिखी कुछ कवितायेँ सुनायीं. उनमें से एक तो जामिया के ही
प्रोफ़ेसर पर उन्होंने नाराज़गी की मुद्रा में लिखी थी. उनके लिखे एक कवित्त की
बानगी देखिये :
‘तुम जीए ज़िया जी न जीते
हुए, गलियन में बड़ी बदनामी भई.
सब काम किये अपने ही लिए
अपने ही लिए मनमानी रही.
सुनने को सुनी नहीं संतान
की लुच्चन की पसंद कहानी रही.
षड्यंत्र किये, भरपूर
किये जीवन की अजब कहानी रही.’ मंगलवार, 18 दिसंबर 2018
प्रोफ़ेसर त्रिशंकु
एक लम्बे अंतराल के
बाद कल न चाहते हुए भी त्रिशंकु जी दिखाई दिए. न जाने अबतक कहाँ छिपे हुए थे. प्रोफेसर
विट्ठलनाथ ‘त्रिशंकु’ आधुनिक परंपरा के आचार्य हैं. देखने में बिलकुल लघुमानव की
तरह. शायद उन दिनों विजयदेव नारायण साही उस निबंध को लिख रहे होंगे जिन दिनों श्री
वल्लभनाथ का जन्म हुआ था या वल्लभनाथ के माता-पिता ने भविष्य के गर्भ में छिपी
लेकिन ऐतिहासिक महत्व प्राप्त करने की सम्भावना वाली अपनी संतान के बारे में कल्पना
की होगी. उनके बचपन के बारे में तो कुछ भी कहना आज संभव नहीं है क्योंकि उनका बचपन
एक किवदंती की भांति है जिसे केवल उनके माता-पिता ने देखा था और वे जन्म के अनुक्रम
के हिसाब से अपने तीसरे बेटे को खलनायकी से भरी इस दुनिया में न जाने किसके हवाले
करके बैकुंठलोक सिधार गए. बालत्रिशंकु ने स्वयं भी अपना बचपन उस तरह नाहीं देखा था
जैसा वे देखना चाहते थे और यदि कुछ देखा भी होगा तो प्रो. त्रिशंकु उसे अब याद
नहीं करना चाहते. कारण यह है कि वे अपने बचपन की खट्टी-खट्टी यादों में अब वे
लौटना नहीं चाहते. वैसे देखा जाय तो ज्ञान प्राप्ति के दिनों में तो कष्टों में
बीता उनका जीवन ही उनकी सबसे बड़ी पूँजी था, उनका संबल था पर जैसे ही उनको ब्रह्म-ज्ञान
मिला, सत्य का आभास हुआ अथवा परमसत्य का इलहाम हुआ तो उनका कष्टों से भरा वही
बेशकीमती अतीत ही उनके लिए समस्या बन गया. न जाने क्यों अब वे उसको किसी नव धनाड्य
– नए-नए बने धनवान व्यक्ति - की भांति बिसरा देना चाहते थे. परिणामस्वरूप जो भी व्यक्ति
उनके उस अतीत की याद दिलाता उसको वे बेहद नापसंद करते. उनके पूर्व परिचित और
मुसीबतों में साथी रहे लोग और खासकर वो जो उन्हें पुराने चश्मे से देखते थे, बिलकुल
नहीं भाते थे. ऐसे लोगों से बचने के लिए प्रो. विट्ठलनाथ ने अपना पता भी बदल दिया,
फोन नंबर बदल दिया, यहाँ तक कि अपना पुराना फोन यानी फोनयंत्र तक बदल दिया.
फोन डायरेक्टरी तो वे कब की बदल चुके थे बल्कि उसको जल समाधि दे चुके थे. मैंने
ऐसा पहला चरित्र देखा कि तरक्की के साथ-साथ जिसकी शक्ल और अक्ल दोनों बदल गए हों. पुरानी
स्मृतियों को वे अपने पुराने कस्बे में घर के समीप से निकलने वाली किसी गंगनहर में
बहा आये थे और नयी स्मृतियों के पीछे दौड़ लगाने लगे थे. परिणामस्वरूप नए शहर, नयी
नौकरी, नए लोगों और नए विचारों में रच-बसकर वे खुद भी नित नूतन होते गए. सांसारिक
और अलौकिक बौद्धिक सम्पदा से संपन्न परम तत्व ज्ञानी. परम स्वतंत्र और नंगे सिर. मतलब
कि ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई’ जैसा भाव लिए हुए. किसी का हाथ तो क्या वह गाँधी टोपी
तक जिसके अन्दर से सर्दी के मौसम में केवल उनकी आँखें ही दिखाई देती थीं, उन्होंने
अपने सिर पर न रहने दी. किसी समय वह टोपी ही उनकी पहचान हुआ करती थी. जिस किसी ने
उनको देखा होगा वह वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के भूतपूर्व स्पिनर लैरी गोम्स की पुरानी
तस्वीर देखकर उनके प्राचीन रूप का अंदाज बड़ी आसानी से लगा सकता है. उनके गाल और
बाल दोनों ठीक गोम्स की तरह ही हुआ करते थे. अब शक्ल और अक्ल दोनों बिगड़ गयी हैं. प्रतिष्ठित
भारतीय विद्वानों में से तो किसी से उनकी तुलना नहीं की जा सकती पर विदेशी
आचार्यों में भी किसी से उनकी उपमा देने के लिए तलाश चल रही है. ज्ञान के भार से
इतने गंभीर हो गए है कि किसी को देख ही नहीं पाते. कंधे इतने झुके हुए कि किसी भी
तरह का कोई हल्का-सा थैला भी वहां स्थान नहीं पा सकता, आँखे छोटी पर नीचे झुकी हुई
जैसे ज़मीन के अन्दर का सम्पूर्ण रहस्य जानने को उद्यत हों. एक हाथ में अपनी दाहिनी
तरफ सीने से लगाकर ले जाई जा रही आलोचना की चार-पांच भारी-भारी पुस्तकें जिनके
शीर्षक देखने और उनको पढने में ही किसी विद्यार्थी को आधा घंटा लग जाए. साथ में लिए
हुए कक्षा में पहुँचते हैं. कभी नहीं हँसते और किसी समूह में तो कदापि नहीं लेकिन
सुना है कि वे अकेले में कमरा बंद करके मुस्कराते हैं. अगर मान लिया जाय कि आचार्य
सचमुच मुस्कराते हैं तो दुनिया के पहले विद्वान व्यक्तित्व होंगे जो मुस्कराते हैं
तो आवाज करते हैं. उनको देखकर और उनसे बात करके आपको लग सकता है कि जितना उनको पढना
था या फिर पढने की जितनी सामर्थ्य उनमें थी, वे उसे बीस वर्ष पूर्व ही पढ़ चुके
हैं. उनके शरीर पर केवल ज्ञान का बोझ ही शेष रह गया है जिसके नीचे नित्य-प्रति वे
दबे चले जा रहे हैं. अब वे सूफियों की भांति स्वयं ही किसी को ज्ञान दें तो बोझ कम
हो और आचार्य किंचित हल्के हों. उन ज्ञानियों की भांति जिनके बारे में बचपन में
सुना करते थे कि ज्ञान के अपच से वे बहुत परेशान रहा करते थे. परेशां भी इतने कि
जब तक किसी सुपात्र पर उस ज्ञान को उड़ेल न दें उनको और उनकी आत्मा को किसी तरह भी
शांति नसीब नहीं होतो थी. आचार्य भी इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि किसी तरह ज्ञान-दान
करके उनके शरीर को आराम मिले. ........
एक अलग पोस्ट
एक अलग तरह की पोस्ट
कभी-कभी आदमियों के ‘हवेले’ से बाहर निकलकर भैंसों के ‘तबेले’ में भी जाना चाहिए. थोड़ी देर के लिए ही सही शोर-शराबें से बचे रहेंगे. मैं एक दिन वहां गया. इन भैंसों में प्रमुख थीं – भदावरी (उत्तर प्रदेश), मुर्रा (पंजाब), मेहसाना (गुजरात). मैंने टोडा (तमिलनाडु), सुरति (गुजरात), नागपुरी (महाराष्ट्र), जाफराबादी (काठियाबाड़), नीली रावी (पाकिस्तानी) आदि नश्लों की भैंसें नहीं देखीं. हालाँकि इन भैसों के बारे में सुना बहुत है. मेरे पिताजी को भैंसों का बहुत शौक था. वे अच्छी नश्ल की भैंसें रखना पसंद करते थे. उनका कहना था भैंस भले ही दूध कम दे लेकिन भैंस होनी सुन्दर चाहिए. उनके पास दूद-दूर के व्यापारी भैंस बेचने और खरीदाने आते थे. मैंने देखा कि पिताजी को भैंसों की बेहतर जानकारी थी पर वे भैंसों के बेचने और खरीदने में घाटा ही सदैव उठाते थे. दादाजी उनको सदैव सचेत करते थे और कहते थे कि व्यापार का काम हमारा नहीं है. हम तो किसान हैं और किसानी ही हमें करनी चाहिए. ये भैस खरीदना बेचना बंद करो. जो आ गयी, दूध अच्छा देती है तो बस, उसे रहने दो.’ पर पिताजी कहाँ मानने वाले थे. मुझे तो विश्वास नहीं पर मेरे मित्रों ने बताया कि जब वे मेरे पास जामिया में आया करते थे तो चुपके से ओखला जाकर भैंसों के बारे में जानकारी लिया करते थे. हालाँकि भैंस पालना उन्होंने बहुत पहले छोड़ दिया था. उन्हीं से पता चला कि भैंसों की नश्ल और उनकी गुणवत्ता को कैसे पहचाना जा सकता है. वे बताते थे कि भैंसों में नीली रावी (पाकिस्तानी), मुर्रा, मेहसाणा के सींग बहुत सुन्दर लगते हैं और ऊपर को गोलाकार इस तरह मुड़े हुए होते हैं कि उनमें कभी-कभी तीन छल्ले तक बन जाते हैं. लेकिन टोडा, जाफराबादी, भदावरी और नागपुरी भैंसों के सींग लम्बे होते हैं. देशी भैंस वे न जाने किस भैंस को कहते थे लेकिन मैंने गाँव में देखा था कि वह थोड़ी सीधी-सी होती थी. सुरति भैंस दूध अधिक देती है पर कद में अपेक्षाकृत छोटी होती है. हमारे घर में कुन्नी नाम की जो भैंस थी वह 16 किलो दूध प्रतिदिन के हिसाब से दूध देती थी. आठ किलो सुबह और आठ किलो शाम को. मेरी माताजी को उस भैंस के ‘कटिया’ (पड़िया) देने का बड़ा इंतजार रहा करता था. चौथी बार में उसने कटिया/पड़िया दी जो उससे भी अधिक खूबसूरत निकली. मैं और मेरे घर में भी गाय को कभी पसंद नहीं किया गया और न ही गाय के दूध को. मेरी माताजी को गाय के दूध में से अजीब-सी आया करती थी. वे कहती थीं कि ‘गाय के दूध में एक अलग तरह की गंध होती है जो भैंस के दूध से भिन्न होती है. दूध भी गाया का पतला होता है’. मुझे लगता था कि शायद जिस भैंस की नश्ल का कोई पता न चले उसको लोग देशी कह देते थे, हालांकि सभी भैसें भारतीय ही हैं और जहाँ तक मेरी जानकारी है भैंसें भारत में ही अधिक पायी जाती हैं. विदेशों में मैंने भैंसें नहीं देखीं, पर सोचता हूँ कि यदि अंग्रेजी में ‘बफेलो’ शब्द है तो दुनिया के किसी अन्य हिस्से में भैंस भी होती ही होगी. लेकिन मुझको शक है.
सोमवार, 17 दिसंबर 2018
जामिया में पहली कक्षा
जामिया में मेरी अध्यापकी सन मार्च 1984 शुरू
हुई और उसी साल से जामिया में एम.ए. हिन्दी आरम्भ हुआ था. उस समय प्रथम वर्ष के बैच की कक्षाएँ चल रही थीं. वार्षिक पाठ्यक्रम था और अप्रैल के पहले सप्ताह तक कक्षाएँ चलनी थीं. हमारा
टाइम-टेबल अगले अकादमिक वर्ष से यानी एक अगस्त
से आरंभ होना था. प्रोफ़ेसर मुजीब रिज़वी उस समय विभाग के अध्यक्ष थे, छात्र-कल्याण
अधिष्ठाता भी थे, स्टेट रिसोर्स सेंटर तथा जामिया के अन्य भी अनेक विभागों की उनपर
जिम्मेदारियां थीं, अतः उनके द्वारा पढाये जा रहे पाठ्यक्रम का कुछ भाग शेष रह गया था. उन्होंने मुझसे अपनी कुछ कक्षाएँ
शेयर करने के लिए कहा. मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती थी? जामिया
में नयी-नयी नौकरी मिली थी. एक सप्ताह से खली बैठा हुआ था, नया-नया पाठ्यक्रम बन
रहा था. अत: ख़ुशी-ख़ुशी मैं प्रो. मुजीब रिज़वी द्वारा ली जा रही कक्षा में चला गया. तकनीकी रूप से वह जामिया में
मेरी पहली कक्षा थी. विद्यार्थियों
में अनेक तो दिल्ली के स्कूलों के अध्यापक थे जो बी. ए. करने के बाद बी.एड. तो कर
चुके थे पर हिंदी में एम. ए. नहीं थे. उन दिनों जामिया में लड़कियों. जामिया के
कर्मचारियों और सेना में काम करने वालों और प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों के लिए
प्राइवेटछात्र के रूप में परीक्षा देने की व्यवस्था थी. ऐसे विद्यार्थी यदि चाहते
तो नियमित कक्षाएं भी ‘अटेंड’ कर सकते थे. इसीलिए अनेक अध्यापक भी हिंदी की उस
कक्षा में प्राइवेट होते हुए भी नियमित पढ़ रहे थे. खैर एम.ए. हिंदी की जामिया की
पहली कक्षा में भी लगभग आठ ऐसे विद्यार्थी थे जो पहले से ही अध्यापक थे. उनमें
प्रायः सभी मुझसे उम्र में बड़े थे. बड़े क्या काफी बड़े थे. एक तो ऐसे थे जिनका बेटा
एम.ए. अर्थशास्त्र में और बेटी समाजशास्त्र में एक कर रहे थे. एक तरह से तीनों
समकालीन थे. कक्षा में पहुंचा तो ऐसा लगा कि अभिभावक अपने बच्चों के साथ आये हुए
हैं. पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि यह एम. ए. प्रथम वर्ष की कक्षा है. मैंने
जैसे ही दरवाज़ा खोला कक्षा में बड़ी उम्र वाले लोगों को देखते ही तुरंत दरवाज़ा बंद
कर दिया. वापस लौटने को ही था कि तभी एक छात्र जो संभवतः मुझे थोडा-बहुत जानता था,
बाहर निकलकर आया. वह शायद यह भी जानता था या मुजीब साहब ने कक्षा में बता दिया
होगा कि मैं उनकी जगह कक्षा लेने आने वाला हूँ, उस विद्यार्थी ने मुझे कक्षा में
अन्दर आने के लिये कहा. यद्यपि जे.एन.यू. में शोध करते हुए ऑप्शनल हिंदी की
कक्षाएं पहले ही ले चुका था पर यह मामला दूसरा ही था. डरते-डरते कक्षा आरम्भ की. फिर
धीरे-धीरे फ्लो बना और अध्यापकी शुरू हो गयी. उस कक्षा में मुझे जे.एन.यू. में
गुरुवर नामवर सिंह द्वारा एम.ए. के प्रथम सत्र में पढाया हुआ ‘साहित्य की रूपवादी दृष्टिकोण’
वाला पाठ्यक्रम बहुत काम आया. पढ़ाते हुए मैंने अनुभव किया कि कुछ छात्र तो बहुत ही
तल्लीन भाव में निमग्न लगभग उकडू-से होकर अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठे थे और मुझे लग
भी रहा था कि मेरी बात को कुछ-कुछ समझ रहे हैं. कुछ छात्र अपने दिमाग पर बहुत जोर
डालटे हुए ऐसे बैठे हुए थे जैसे की महिलायें गोलगप्पे वाले कि दूकान पर हाथ में
प्लेट या कटोरी पकडे हुए अपनी बारी के आटे या सूजी के बने गोलगप्पे का इंतजार करती
हैं. बाक़ी जिनमें अधिकाँश अध्यापक थे, वे ऐसे बैठे हुए थे जैसे कि बेगानी शादी में
अब्दुल्ला बैठा रहा होगा. ..... शेष बाद में.
बुधवार, 21 नवंबर 2018
पुराना टीवी
कल मैं अपने एक पुराने मित्र के घर गया था तो एक बहुत पुराना टीवी सेट दिखाई दिया. उसे देखकर
मुझे आरम्भ में देखे अनेक तरह के टीवी सेट याद आ गए. आमतौर से सभी ब्लेक एंड
व्हाइट में हुआ करते थे 1982 में एसियन गेम्स में रंगीन समाचार प्रसारित किये जाने
तक. कुछ आरंभिक टीवी सेट तो शटर लगे केस के अन्दर रखे होते थे और उस पर भी एक सुन्दर
कपडे का कवर रखा होता था. टीवी, रेडियो,
फ्रिज, टेलीफोन, मोटर साइकिल-स्कूटर आदि वालों के पडौसियों से अच्छे सम्बन्ध हुआ
करते थे. दूरदर्शन के आरंभिक विकास की चर्चा चली तो वह दौर याद आया जब दूरदर्शन पर
पहली बार सीरियल आना शुरू हुए थे. जहाँ तक मेरी जानकारी है उस समय के सबसे पोपुलर
प्रोग्राम ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ हुआ करते थे. गाँव में टेलीविजन जा ही चुका था और
मेरे पिताजी ने ‘रामायण’ देखने के लिए मुझसे टीवी मंगवाया था. इस निमित्त मै अपने पिताजी
की सेवार्थ 14 इंच का ब्लेक एंड व्हाइट टीवी सेट खरीदकर ले गया था. घर के ऊपर एक ऊँचा-सा
एंटीना लगाया गया. सिग्नल अच्छा आए इस कारण एंटीना इतना ऊँचा लगाया गया था कि उसको
तीन ओर से रारों द्वारा बाँधा गया था. उस एंटीना की आकृति कपड़े सुखाने के लिए
घरों में आजकल बहुत पोपुलर होते जा रहे जहाजनुमा हेंगर की तरह होती थी. हवा के तेज
प्रवाह से कहिए या बंदरों की कृपा से उस एंटीना का एन एंगेल की दिशा अक्सर बदल
जाती थी. उन दिनों आज की भांति 24 घंटे
के कार्यक्रम तो आते नहीं थे. रामायण, महाभारत, फिल्म अथवा चित्रहार आदि ही अधिकांशतः
देखे जाते थे. उस एंटीना की एक खासियत थी कि जब भी कोई कार्यक्रम देखते उससे थोड़ी
देर पहले छत पर जाकर एंटीना की दिशा को पिक्चर क्वालिटी के हिसाब से दाएँ या बाएँ
घुमाया जाता. यह काम घर या पड़ौस का कोई वीर बालक को ही सौंपा जाता. वह वीरबालक बड़े
उत्साह से दौड़ता हुआ छत पर जाता और एंटीना की दिशा को अपेक्षित दिशा में धीरे-से घुमाता.
नीचे बैठे दर्शक बरामदे में खड़े एक और बालक को सन्देश देते कि ‘अभी थोड़ा और, अभी
थोड़ा और, ज़रा-सा और बस-बस-बस. ऊपर गया हुआ बालक नीचे उतरने से पहले पूछ लेता कि हो
गया ठीक? पिक्चर ठीक है अब? ऐसा अधिकांशतः सब जगह किया जाता. यहाँ तक कि शहरों में
भी आंधी या बन्दर कृपा से अक्सर ऐसी-ही स्थिति पैदा हो जाती. धन्य हो केबिल और दिस
एंटीना का कि समस्या का स्थायी हल निकल आया.
शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018
सुबह की चाय
आज घर में सुबह-सुबह छ बजे चाय बनाते समय पता चला कि चाय की पत्ती ख़त्म हो गयी है. अब क्या करें. पड़ौस गाँव की तरह ऐसा है नहीं कि चाय की पत्ती, नमक, हल्दी, जीरा, या थोड़ी चीनी आदि आवश्यकता पड़ने पर मांग लिया जाय. हो सकता है कि मांगने पर पड़ौसी दे भी दें पर छवि का क्या होगा. बहुत से काम तो कमबख्त यह छवि ही नहीं करने देती. ध्यान रहे कि छवि घर में किसी का नाम नहीं नहीं है. 'इमेज' के लिए है. आजकल हालत यह है कि 'इमेज ' नहीं है तो कोई मेज उसकी भरपाई नहीं कर सकती. चाहे कितनी भी महँगी क्यों न हो. हैं तो अव्वल दर्जे के बदमाश पर कमबख्त छवि बिगड़ जाय इस कारण ठीक से बदमाशी भी नहीं कर सकते. सड़क-चौराहे पर खड़े होकर कुछ खा नहीं सकते. किसी ने देख लिया तो क्या होगा. गयी इमेज. बहुत मन करता है कि सड़क किनारे खड़े किसी छोले-कुलचे वाले से गर्म-गर्म एक पत्ता बनवाकर वहीं खड़े होकर खाया जाए जहाँ और अनेक सामान्य जन खा रहे हैं ताकि छोले खाते-खाते छोले ख़त्म होने पर कहा जा सके कि 'थोड़े और छोले देना भाई', पर नहीं. चाहे सब सामान ठंडा ही क्यों न हो जाय पर किसी से मंगवाकर कमरा बंद करके छुपकर ही खायेंगे. इमेज का सवाल है. कोई कहेगा कि 'देखिये, कैसे आदमी हैं. छोला-कुलचा खा रहे हैं. जरा इमेज का तो ध्यान रखना चाहिए' जैसे छोला कुलचा न होकर कोई बम हो गया..
खैर छोडिये, मैं तो चाय-पत्ती की बात कर रहा था और सोच रहा था कि हमें पहले से ही कुछ सावधानी रखनी चाहिए ताकि ऐसी स्थिति न आये कि अचानक कोई ज़रूरो सामान घर में ख़त्म हो गया. तभी मुझे पुराना चुटकुलानुमा एक वाकया याद आया जो इस तरह है;
डीटीसी की बस में एक लड़का चढ़ा और उसने कंडक्टर से दो टिकेट मांगे. कंडक्टर को वैसे तो लड़के के मांगने पर दो टिकिट दे देने चाहिए लेकिन यदि वह ऐसा करता तो उसकी उस भारतीय 'इमेज' का क्या होता जिसके अनुसार कोई भी भारतीय किसी से पास गुजरने वाले को भी बिना सवाल-ज़वाब किये जाने ही नहीं देता. भले ही उससे चाहे दूर-दूर का भी ?उसका कोई सम्बन्ध न हो. इसलिए कंडक्टर ने पलटकर पूछ ही लिया कि "दो टिकिट तुम्हें क्यों चाहिय्र? तुम तो अकेले हो."
"एक कहीं खो गया तो?" लड़के ने कहा.
इस पाकर कंडक्टर ने पुनः कहा कि "खो तो दोनों सकते है फिर?"
लड़का भी कहाँ चूकने वाला था. तुरंत बोला कि "मेरे पास बसपास भी तो है. वो कब काम आएगा.?" और मुस्करा दिया.
कंडक्टर को खुद को संभालना मुश्किल हो गया. हिम्मत करके बोला कि "बड़ी सावधानी बरत रहे हो, कहाँ के हो भाई?"
वैसे तो यह तनिक लम्बा सिलसिला है पर कुछ अपरिहार्य कारणवश आगे नहीं लिख सकता. चाय की पत्ती और एतियातन दूध-चीनी लेने जा रहा हूँ. शुभ-प्रभात मित्रो..
खैर छोडिये, मैं तो चाय-पत्ती की बात कर रहा था और सोच रहा था कि हमें पहले से ही कुछ सावधानी रखनी चाहिए ताकि ऐसी स्थिति न आये कि अचानक कोई ज़रूरो सामान घर में ख़त्म हो गया. तभी मुझे पुराना चुटकुलानुमा एक वाकया याद आया जो इस तरह है;
डीटीसी की बस में एक लड़का चढ़ा और उसने कंडक्टर से दो टिकेट मांगे. कंडक्टर को वैसे तो लड़के के मांगने पर दो टिकिट दे देने चाहिए लेकिन यदि वह ऐसा करता तो उसकी उस भारतीय 'इमेज' का क्या होता जिसके अनुसार कोई भी भारतीय किसी से पास गुजरने वाले को भी बिना सवाल-ज़वाब किये जाने ही नहीं देता. भले ही उससे चाहे दूर-दूर का भी ?उसका कोई सम्बन्ध न हो. इसलिए कंडक्टर ने पलटकर पूछ ही लिया कि "दो टिकिट तुम्हें क्यों चाहिय्र? तुम तो अकेले हो."
"एक कहीं खो गया तो?" लड़के ने कहा.
इस पाकर कंडक्टर ने पुनः कहा कि "खो तो दोनों सकते है फिर?"
लड़का भी कहाँ चूकने वाला था. तुरंत बोला कि "मेरे पास बसपास भी तो है. वो कब काम आएगा.?" और मुस्करा दिया.
कंडक्टर को खुद को संभालना मुश्किल हो गया. हिम्मत करके बोला कि "बड़ी सावधानी बरत रहे हो, कहाँ के हो भाई?"
वैसे तो यह तनिक लम्बा सिलसिला है पर कुछ अपरिहार्य कारणवश आगे नहीं लिख सकता. चाय की पत्ती और एतियातन दूध-चीनी लेने जा रहा हूँ. शुभ-प्रभात मित्रो..
मंगलवार, 29 मई 2018
कामवाली का काम
कामवाली कई दिन से घर का काम करने नहीं आई. पहले जब
किसी दिन नहीं आती थी तो फोन कर देती थी. हालाँकि फोन करते समय आमतौर पर उसके दो
बहाने होते थे. एक बहाना होता था कि ‘मेरी तबियत ख़राब है’. दूसरा बहाना होता था कि ‘मेरी बेटी की तबियत ख़राब है’. जब वह अपनी तबियत ख़राब बताती है तो उसका स्वर बदलकर
स्वस्थ व्यक्ति से बीमार व्यक्ति के स्वर में बदल जाता है. थोड़ी कराहट जुड़ जाती है
और आवाज़ में हल्का कम्पन-सा आ जाता है. लेकिन जब वह अपनी बेटी की तबियत ख़राब होने
की बात करती है तब उसकी आवाज़ में अचानक बहुत सारा विश्वास और मजबूती आ जाती है.
कुछ इस प्रकार कि मैं किसी तरह भी यह न कह सकूं कि ‘अरे बेटी बीमार है तो दवाई दिलवाकर आ जाओ’. उसकी अपनी बीमारी भी दो तरह की होती है, एक कि ‘मेरा पेट ख़राब है. दूसरा ‘मेरे सिर में बहुत दर्द है और दर्द के मारे मेरा सिर
फटा जा रहा है’. ये ऐसी
बीमारी है कि दोनों ही बीमारियों का पता लगाना मेरे जैसे साधारण बुद्धि वाले किसी
व्यक्ति के लिए संभव नहीं. खैर, जब किसी भी कारण से काम पर न आने के बारे में कामवाली
का फोन आ जाता है तो मैं पहले दुखी और फिर निश्चिन्त हो जाता हूँ कि अब वह नहीं
आएगी तो मैं कुछ अधिक समय तक आराम कर सकता हूँ. क्योंकि जबतक कामवाली घर में रहती
है, लगातार
यह लगा रहता है कि अब क्या तोड़ेगी, अब क्या गिराएगी? सफाई कहाँ करेगी और कहाँ छोड़ेगी आदि आदि. ऐसा भी होता
है कि वह अक्सर किसी न किसी बात पर नाराज़ होकर घर से आती है तो उसका व्यव्हार
बिलकुल बदला हुआ होता है. वैसे वह अब अपनी नाराज़गी कहाँ और कैसे दूर करे? तो उसका क्रोध अधिकांशतः किचिन में बर्तनों और घर के
दरवाज़ों पर उतरता है. कामवाली के अनमनेपन का शिकार होकर लकड़ी के दरवाज़े तो कम आवाज़
करते हैं पर स्टील के दरवाज़े इतनी आवाज़ करते है कि घर सिर पर उठा लेते हैं.
दरवाज़ों के खुलने और बंद होने तथा बर्तनों के धोये जाने के कामवाली के तरीके से
मैं अनुमान लगा लेता हूँ कि उसका आज का मूड कैसा है. उस दिन मैं सोच-समझकर उससे
किसी काम के लिए कहता हूँ. ऐसे अवसरों पर कामवाली कुछ अधिक टेक्नीकल हो जाती है और
ज़रा-सा अतिरिक्त काम बताते ही नियम बताने लगती है यानी कुछ अलिखित नियम-कायदे जो
शायद सभी कामवालियों ने मिलकर बनाये होंगे. जैसे मैंने एक बार उससे कहा कि जब तुम
झाड़ू लगाती ही हो तो दीवार के कोनों को भी साफ़ कर दिया करो. वह तुरंत उत्तर देती
है कि यह अतिरिक्त काम है. शोकेस, बुक सेल्व, मेज, सोफे किचिन स्लेव, गैस चूल्हा, डाइनिंग टेबिल, सेन्ट्रल टेबिल, टीवी ट्रॉली और खिड़की की जाली आदि को
कपड़े या फिर झाड़ू से साफ़ करना अलग से पैसे की अपेक्षा करता है. उसके सिद्धांत में
शामिल है कि चाय पिएगी पर बनाएगी नहीं’. नियम के प्रावधान के अनुसार चाय पीने के बाद अपने
बर्तनों के साथ केवल चाय बनाने का बर्तन साफ़ किया जा सकता है और कुछ नहीं. यदि साथ
में और बर्तन हैं तो उसकी मर्ज़ी से साफ़ होगे. उन्हें साफ़ किये जाने की बहुत
अपेक्षा अष्टमी से न करें. घर को साफ़ करने का उसका अपना तरीका है. सुबह-सुबह घर
में अन्दर आते ही वह सबसे पहले हिदायत देने के अंदाज़ में कहती है कि पीछे बाहर का
दरवाज़ा खुला है कि नहीं. चाहे द्वार पहले से खुला न हो पर वह पूछती अवश्य है.
हलांकि वह स्वयं दरवाज़ा खोल सकती है पर स्वयं कभी नहीं खोलती और न ही खोलना चाहती, शायद इसका भी कोई कारण हो. झाड़ू लगाने की शुरुआत वह
प्रायः घर के बीच वाले कमरे से करती है. उसके बाद किचिन में जाती है और पानी की
टंकी चलाकर लगभग दस या बीस सेकेण्ड तक अपना सीधा हाथ टोंटी के नीचे लगाकर पानी
गिरती रहती है. फिर दूसरा हाथ पानी के नीचे लगाये रखती है. उसके बाद किचिन में
झाड़ू लगाती है. तत्पश्चात अष्टमी (नाम) बाहर वाले कमरे में झाड़ू लगाती है. सबसे
अंत में वह अन्दर वाले यानी मुख्य बेडरूम में जाकर झाड़ू लगाती है. मैं उस समय
अखबार पढ़ रहा होता हूँ. इस बीच अष्टमी मेरे पास आकर जानना चाहती है कि मुख्य बातें
अख़बार में क्या हैं. मैं एक या दो प्रमुख समाचार उसकी रूचि के हिसाब से अष्टमी को
बता देता हूँ. उसका घर मेरे घर से लगभग दो किलोमीटर तो अवश्य होगा. रास्ते में
अपने साथ आने वाली कामवालियों से सुनी हुई कोई न कोई खबर वह मुझे बताती है और
जानना चाहती है कि अख़बार ने वो खबर छापी है कि नहीं. जब उसको पता चलता है कि नहीं
छापी है तो दुखी हो जाती है पर पता चलने पर कि खबर छपी है तो बहुत खुश होती है. एक
बात मुझे अष्टमी की बहुत प्रभावित करती है कि वह घर में पौंछा बहुत शानदार लगाती
है. बहुत ही कलात्मकता के साथ. उसके इस काम में एक रिदम रहती है. जिस दिन अष्टमी
मन घर में पोंछा लगाने का नहीं होता तो वह अपना चेहरा पीड़ित व्यक्ति की भांति लटका
लेती हैं. ऐसी स्थिति में वह काम करने की गति को बहुत धीमा कर देती है और सवाल
ज्यादा करती है. कभी कभी बिजली को और कभी किसी रिश्तेदार के घर जाने को वह पोंछा न
लगाने के लिए बहाना बनाती है. कभी-कभी वह पोंछा लगाने के बदले आराम करना पसंद करती
है और लगभग आधा घंटे के लिए कमरे में लेट जाती है. एक उसकी बहुत अच्छी आदत है कि
वह लेट कम ही होती है. ……झाड़ू लगाने में उसका उतना इंटरेस्ट नहीं होता.
गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018
मित्र का अधिकार
मेरे साथी प्रोफ़ेसर इस बात से बड़े परेशान थे कि बिना उपयोग करने पर भी बिल
क्यों देना पड़ता है. ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं है कि जो जितना वाशिंग मशीन का उपयोग
करे उतना बिल दे. मैंने कहा मैं तो पिछले छः माह से इस अपार्टमेंट में रहता हूँ. मैंने
कभी अपने कपडे वहां नहीं धोये. मेरे फ्लेट में मुझसे पहले रहने वाला सज्जन व्यक्ति
वाशिंग मशीन छोड़ गया था. मैं उसी का उपयोग करता हूँ. मुझे तो यह भी नहीं पता कि
वाशिंग मशीनें आखिर हैं कहाँ? कभी ऐसा सोचा ही नहीं कि बिल आता किस प्रकार है.
अपनी अज्ञानता पर मुझे कमतरी का अहसास हुआ. खैर एक दिन मालूम हो गया कि मेरे साथी
ने अपने हिस्से के बिजली-पानी के बिल का प्रबंध किस तरह कर लिया था. हुआ यह कि एक
दिन जब मैं कक्षा लेकर आ रहा था तो दूर से दिखाई पड़ा कि मित्र तेज़ी से एक गैलरी
में चले जा रहे हैं. मुझे जिज्ञासा हुई कि आखिर ये उधर जल्दी-जल्दी क्यों जा रहे
हैं? उधर तो किसी का अपार्टमेंट भी नहीं है. मैं खुद कभी उस तरफ नहीं गया था. विस्तार
से जानने की जिज्ञासा हुई और यह भी कि मित्र को इतनी जल्दी उधर दिखाई क्या दे गया.
अतः थोड़ी देर रुककर उनकी प्रतीक्षा करने लगा. बहुत देर नहीं हुई. लगभग दो मिनट में
ही मित्र उधर से लौट आये. लेकिन गए खली हाथ थे और आते समय भरे हाथ. दरअसल उनके हाथ
में एक छोटा-सा टब था. मैंने ध्यान से देखा कि उस टब मैं एक बनियान, दो कच्छे, एक
रूमाल और एक तौलिया था. मैंने पूछा कि आप ये इतनी महत्वपूर्ण सामग्री कहाँ से ला
रहे हैं? कहने लगे कि वाशिंग मशीन में कपड़े धोकर ला रहा हूँ. मैंने कहा कपड़े?
हालाँकि थे वे कपड़े ही, पर मेरा दिल उनको उस रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि
पांच कपड़ों को भी वाशिंग मशीन के हवाले कर दिया जाए. मैंने कहा कहाँ रखी गयी हैं वाशिंग
मशीनें? और सुना था ड्रायर भी हैं अलग से. कहने लगे आपसे पूछता तो आप तो बताते
नहीं. मैंने अपनी पडौसी एक चीनी महिला को परसों कपड़े धोकर लाते हुए देखा था. उससे
ही पूछ लिया. बहुत सज्जन थी. मुझको ले जाकर उसने वह जगह दिखाई जहाँ वाशिंग मशीनें
और ड्रायर रखे हुए हैं. उन पर सभी निर्देश क्योंकि कोरिया भाषा में हैं, चीनी महिला
ने मुझे संकेतों में समझाने की कोशिश तो की लेकिन मैं समझ नहीं पाया. फिर भी
अनुमान से आज पहले प्रयोग के तौर पर अपने कपड़े वाशिंग मशीन में धो लाया. मैंने कहा
कि अनुमान से क्या अभिप्राय? कहने लगे कि साबुन, लिक्विड या पाउडर डालने के तीन कॉलम
बने हैं. मेरे पास पाउडर या लिक्विड तो था नहीं, किसी का पाउडर वहां रखा हुआ था, मैंने
अनुमान से एक तरफ उसी में से लेकर थोड़ा-सा पाउडर डाल दिया और मशीन चला दी. समय
अवश्य अधिक लगा, पर कपड़े अच्छी तरह धुल गए. मैंने समय के बारे में पूछा तो मित्र
ने बताया कि कुल दो घंटे लगे. मेरी रूचि वाशिंग मशीन में तो नहीं थी पर उस जगह को
देखने में अवश्य थी, जहाँ ये उपकरण लगे हुए थे. सोचा कि मित्र की खोज है देख लूं.
संभव है कभी ज़रुरत पड़ जाए. जब गया तो देखा कि सचमुच वहां पांच अत्याधुनिक वाशिंग
मशीनें और दो अच्छे ड्रायर रखे हुए थे. सब का आकर बहुत बड़ा था. कमसे कम दस किलो
कपड़े एक साथ धोये जा सकते थे. मैंने उस मशीन को भी देखा जिसमें मित्रे अपने कच्छे-बनियान
धोकर लाये थे. उस मशीन का साबुन डालने वाला हिस्सा खोलकर देखा तो विचित्र किन्तु
सत्य जैसी स्थिति हो गयी. यानी मित्र ने पडौसी के पाउडर से निकालकर जितना उस मशीन
में डाला था, सब सुरक्षित था. हाँ साथी के कपडे ज़रूर धुल गए थे. मैंने साथी की ओर
देखा तो मुस्कराने लगे. बोले कि चलो अनुभव तो हुआ और कपडे भी धुल गए. धीरे-धीरे और
भी सीख जाऊँगा. अपने हिस्से के बिजली पानी का उपयोग तो कर ही लूँगा जो मेरा अधिकार
है. पता चला कि आजकल अधिकार के लिए सप्ताह में तीन या चार बार कपड़े धोकर ला रहे
हैं. बार-बार दौड़ भाग करते हैं अलग से. धन्य है अधिकार की मादकता का सुख.
बुधवार, 24 जनवरी 2018
अथ बिल्ली कथा
कुछ लोग कुत्ता न पालकर बिल्ली पालते हैं.
एक बार में अपने मित्र के रिश्तेदार के घर गया जिनके यहाँ एक बिल्ली सकुटुम्ब रहती
थी. गिन तो मैं नहीं सका लेकिन मेरा अनुमान है कि कुलमिलाकर पूरा कुनबा छ-सात का
तो रहा होगा. हमारे जाने से और बार-बार बिल्लियों के दस्तक देने से घर के मालिक
असहज महसूस कर रहे थे. मैं बिल्लियों के कारण असहज अनुभव कर रहा था. मेरे मित्र हम
दोनों के की असहजता के कारण असहज हो रहे थे. निष्कर्षतः सब असहज थे केवल घर की
मालकिन के यानी दोस्त के मित्र की पत्नी के, जिनके कारण बिल्लियाँ घर में अबतक थीं. दोस्त के
मित्र का नाम कबीर था जिनकी उम्र लगभग 55 वर्ष के आसपास रही होगी. वापस लौटते समय
मित्र ने रास्ते में बताया कि कबीर साहब किसी समय भयंकर बिल्ली विरोधी थे. लेकिन
इनकी पत्नी को न जाने कहाँ से प्रेरणा मिली कि ये अपने मायके से एक बिल्ली ले आयीं.
वस्तुतः यह शादी का किंचित विलंब से ही सही पर सही समय पर उत्पन्न हुआ ‘आफ्टर
इफेक्ट’ था. कारण यह था कि जब कई साल के बाद भी घर में कोई संतान न हुई तो मित्र
की घरवाली ने प्राणी-पालन में मन लगाया. मित्र आखिर कैसे, क्यों और कब तक विरोध
करते. अंततः पत्नी की बेरहम इच्छा के आगे उनको समझौता करना पड़ा. पत्नी पर तो उनका
कोई दबाब न चला, पर अपने दिल पर पत्थर रखकर अपने ऊपर तो दबाब कम से कम बना ही सकते
थे. सो उन्होंने बना लिया. इतना कहकर दोस्त चुप हो गया. शायद आगे वाकया या तो उसको
पता नहीं था या मैं उसको सुनाने के लिए उपयुक्त पात्र नहीं था. अतः मैंने भी न
पूछा. लेकिन दोस्त द्वारा मिली इस जानकारी से मेरे अंदर एक जिज्ञासा बलवती हो गयी
कि यदि संभव हो पाए तो दोस्त के मित्र से एक बार और मिला जाय. शीघ्र ही संभावना
बनी तो मुलाक़ात हो ही गयी. बात-बात में पता चला कि बिल्ली-चर्चा दोस्त की दुखती रग
है. लेकिन इससे क्या? अगर रग है और दुखती रग है तो उसे और दुखाने में हरज ही क्या
है? यही दस्तूर भी है. किसी ने कहा भी है कि कुछ खास जानना हो या किसी को चिढाना
हो तो उसकी दुखती रग पर हाथ रख दो. अतः मैंने ईमानदारी से अधिक जानने के लिए ही राग
को छू दिया. जानने पर प्रस्तुत जानकारी मिली जिसमें मित्र के ज्ञान की छाप मौजूद
थी. आप भी सुनिए- अनेक कमियां गिनाने के बात अचानक कुछ यद् आ जाने पर कबीर साहब ने
अपनी सबसे ज़िम्मेदार बिल्ली को बुलाया. उन्होंने धीरे से उसके कान में न जाने क्या
कहा कि वह बोलने लगी. अविश्वसनीय पर उस बोलती बिल्ली ने दुनिया की सभी बिल्लियों का
प्रतिनिधित्व करते हुए बताया कि बिल्ली की अनेक विशेषताएँ हैं। सबसे बड़ी विशेषता
तो यह है कि बिल्ली का सबसे पारिवारिक संबंध हैं। वह रिश्ता इतना मजबूती का है कि वह
सबकी मौसी है। चाहे उसका कोई राजा हो या न हो, लेकिन फिर भी बिल्ली बिन राजा की
रानी है, भले ही चाहे वह खूब
सयानी ही क्यों न हो? बिल्ली इतनी लोकप्रिय है कि बिल्ली के नाम पर कैटवॉक होता है
जिसको मशहूर मॉडेल्स सम्पन्न करते हैं। यानी अपनी चाल से भी बिल्ली अनुकरणीय है।
बिल्ली की आँखें बहुत मार्के की होती हैं इसलिए बिल्ली के नाम पर ‘कैटस आई’ रखा गया है जिसकी विशेषता है
कि वह रात में भी चमकती हैं। बिल्ली प्राणियों में सबसे स्मार्ट होती है और इसीलिए
किसी को यदि स्मार्ट कहना हो तो हम कहते हैं, बड़े कैट हो रहे हो? क्या बात है? हाय कैट। बिल्ली ने चूहों की बड़ी-बड़ी समस्यायेँ सुलझाई
हैं। उनमें से सबसे बड़ी समस्या चूहों के लिए यह थी कि बिल्ली के गले में घंटी कौन
बाँधेगा, इसका समाधान भी आखिर
में बिल्ली ने ही निकाला और आसानी से अपना गला चूहों के सामने कर दिया कि ये लो मेरे
प्यारे दोस्तो, ये लो मेरा गला और निडर होकर बांधो मेरे गले में घंटी। मैं कुछ भी नहीं
करूंगी. चुपचाप अपने गले में आपकी घंटी बंधवा लूंगी. भले ही मुझे चाहे जो तकलीफ़
क्यों न हो. मैं चाहती हूँ कि जब भी मैं इधर से गुज़रूँ, तो मेरे आने का तुमको पहले से ही पता चल जाय। तुम मानसिक
रूप से तैयार हो जाओ। हो सकता है कि अपने बचाव की तैयारी करो और इधर-उधर भागो।
इससे तुम्हारा स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। मैं तो फिर भी किसी तरह अपना काम चला ही
लूँगी, लेकिन तुम्हारे स्वास्थ्य की
ज़िम्मेदारी तो मेरी भी बनती ही है। आखिर पीढ़ियों से हमारा आपसी संबंध है। इस
पुराने संबंध का निर्वाह मैं हर कीमत पर करूंगी। मेरे ही बारे में अक्सर कहा जाता
है कि चूहों की रखवाली बिल्ली, अब उन मूर्खों को कौन बताए कि मैं नहीं तो और कौन
आपकी रखवाली करेगा? मैं तुमको अच्छी तरह जानती हूँ, तुम्हारी नस-नस पहचानती हूँ, खून की तो बात क्या हड्डी तक का हाल जानती हूँ। मुझसे अधिक
तुम्हें कौन जानता है। मैंने चाहे जितने भी चूहे खाये हों, पर ज़रा बताना कि ऐसा
काम करने के बाद भी मेरे अलावा कोई और धार्मिक-यात्रा करने गया था। मैं ही तुमसब
के कल्याण के लिए अनेक कष्ट सहन करते हुए तीर्थयात्रा पर गयी। कुत्ते को देखो। कभी
तुमने सुना है उसके बारे में। सब बुराई करते हैं। कहते हैं, चल कुत्ते, आया है कुत्ता कहीं का। लोगों
ने तो उसके साथ यह तक किया कि धोखा देकर
उसकी जात भी पता कर ली. क्या आवश्यकता थी इसकी. क्या मिला लोगों को कुत्ते
की जाति पता करके. बेचारे को धोखा देकर केवल और वह भी दो पैसे की खली केवल हँडिया
देकर उसकी जात भी पहचान ली गयी। ऐसी गोपनीय बात जिसको वह पीढ़ियों से अपने अन्दर
छिपाए हुए था, लोगों ने उसको इतने सस्ते में जान लिया. धोखा किया सरासर उसके साथ.
लेकिन फिर भी वह वफादारी करता है. मूर्ख जो ठहरा. मेरी तरह चालाक नहीं है. बेचारा
धोबी के घर भी गया तो वहां भी, न घर का रहा न घाट का। कितना वफादार होता है फिर भी
दुत्कारा जाता है। मुझे देखो, मेरे बारे में ऐसी कोई बात नहीं है। मेरी वफादारी का न तो कोई
उदाहरण दिया जाता है, न ही मेरा मज़ाक उड़ाया जाता है। हाँ, केवल धार्मिक मामलों में ही मुझे टोंट
मारा गया था, पर मैंने उसके बाद अबतक बहुत ध्यान रखा है। मैं अब उन ममलों से दूर
रहती हूँ. पूर्णत: शाकाहारी हो गयी हूँ। अहिंसावादी हूँ और सबसे बड़ी बात यह है कि मैं
प्रेम की पुजारन हूँ। बिल्ले के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती, क्योकि इस भद्र
समाज ने जो मूलतः पुरुष प्रधान है, सब बातें केवल मुझे कष्ट पहुँचाने लिए ही कही
हैं और मेरे बारे में हकीक़त से परे जाकर मनमानी झूटी-सच्ची कहानियाँ बनाई हैं। यदि
ऐसा नहीं है तो क्यों नहीं कभी किसी ने घंटी जैसी खतरनाक और भारी वस्तू बिल्ले के
गले में बांधने का सुझाव दिया. आजतक मैंने नहीं सुना कि किसी ने बिल्ला, कुत्ता या
भेड़िया के गले में घंटी बाँधने की हिम्मत की हो? यहाँ तक कि शेर के भी नहीं जो कि हमारा
ही पूर्वज है. हमें बताया गया है और हम भी ऐसा मानते हैं कि हम उसकी प्रजाति के
हैं. इसीलिए हम उसका बहुत आदर करते हैं. तुम तो मुझे यह भी बताओ कि क्यों नहीं
बिल्ला कभी हज जैसी पवित्र यात्रा पर गया। उससे तो कोई शिकायत नहीं, फिर मुझसे ही क्यों? मैं तो आखिर गयी भी और ताना
भी आजतक मुझे ही मारा जाता है. ये सब बातें स्वयं बिल्ली से सुनकर मैं उनको आपको
बताने चल दिया. .......
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