सोमवार, 9 सितंबर 2013

तुम याद करोगे

शिक्षक दिवस बीत गया. लेकिन पूरा माह तो बाकी है. इसीलिए शिक्षक दिवस के सन्दर्भ में मुझे आज जेएनयू में अपने एक प्राध्यापक डा. बी. एम. चिंतामणि जी की याद आ रही है. वे बहुत ही सहज और सरल प्रकृति के अध्यापक थे. यद्यपि अपने ज्ञान का उन्हें कभी कोई गुमान नहीं था और न ही वे कभी अपने ज्ञानी होने का दावा करते थे. लेकिन इतना साफ़ था कि वे जो थे और जो नहीं थे. जितना जानते थे और जितना नहीं जानते थे, उस सभी की उन्हें भली प्रकार जानकारी थी. उनका सबसे बड़ा गुण तो यही था कि वे सभी की मदद करते थे बिना ये जाने कि कौन उनका विद्यार्थी है और कौन नहीं है. चाहे विभाग का कोई काम हो अथवा विश्वविद्यालय का, चिंतामणि जी यदि कह देते तो कार्य पूरा कराकर ही छोड़ते थे. विद्यार्थियों की ही नहीं बल्कि वे साथी अध्यापकों की व्यक्तिगत समस्याओं का भी समाधान सुझाते. विद्यार्थियों के सुख-दुःख, राग-द्वेष, प्रेम-अप्रेम यानी विविध आयामी सभी तरह की समस्याओं में पूरी रूचि लेते और यथा संभव सहायता करते. यही कारण था कि हमारे साथी छात्र उनके पास भीड़ लगाये रहते. उनको भी छात्रों से बात करने और उनकी समस्याएं सुनाने में आनंद आता था. एक प्रकार से वे भारतीय भाषा केंद्र के अघोषित छात्र परामर्शदाता और ‘डीएसडब्लू’ थे. चिंतामणि जी दक्षिण भारतीय थे और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस में रहकर उन्होंने अपनी पढाई की थी. वे कर्नाटक के रहने वाले थे तथा तमिल, तेलुगु और मलयालम आदि भाषाएँ बड़ी कुशलता से बोलते थे. इस कारण भी वे जे एन यू के दक्षिण भारतीय अध्यापकों और अधिकारियों के बीच सक्रिय थे. डा. चिंतामणि एक नोटबुक में देखकर पढाया करते थे. पढाया क्या करते बोलते रहते और हम विद्यार्थी उस सबको नोट कर लेते. एक दिन हम में से एक छात्र को शरारत सूझी और उसने एक दिन जैसे ही मौका मिला उनकी नोटबुक उन्हीं के कमरे की किताबों के बीच छिपा दी. चिंतामणि जी जब हमारी कक्षा को पढ़ने के लिए बैठे तो कुछ तलाशने लगे. सभवतः नोटबुक न मिल पाने पर किंचित परेशान से दिखे, सोचते रहे और अंततः हम लोगों को अगले दिन आने के लिए कहकर अपने काम में लग गए यानी नोटबुक तलाशने लगे. अगले दिन भी कक्षा नहीं हुई. तीसरे दिन हमने अपने उस साथी से कहा कि अब बहुत हुआ, चाहते हो कि कक्षा हो तो नोटबुक की खोज पूरी करा दो. वही हुआ और कक्षा दो दिन के व्यवधान के बाद विधिवत होने लगी. इसका एक दुष्परिणाम ये हुआ कि चिंतामनि जी जिन्हें मुझ पर बहुत विश्वास था नाराज़ हो गए. प्रकटतः तो उन्होंने अपनी नाराजगी नहीं दिखाई लेकिन जहाँ कर सकते थे वहां अपना काम कर दिया. जिस विषय को वे पढ़ते थे उसमें B+ थमा दिया. मेरे बाकी सभी पेपर्स में A और A- थे लेकिन सिर्फ उनके ही कोर्स में B+ था. मैं दुखी हुआ, बहुत दुखी हुआ, साथ ही उनसे नाराज़ भी. अपनी मार्कशीट लेकर उनके पास विरोध प्रकट करने गया. दुखी वे भी हुए पर कहने लगे ठीक है. क्या फर्क पड़ता है. कुल मिलकर तो ग्रेड बहुत अच्छा है. मैंने तर्क दिया कि ज़रा मार्कशीट देखिये कि इसमें केवल एक ही B+ है जो आपने दिया है, बहुत ही ख़राब दिख रहा है. बोले जो है सो ठीक है. अब तुम मुझे कभी भूल नहीं सकोगे. तुम जब-जब ये मार्कशीट देखोगे तो इस B+ को देखकर तुम्हें मेरी याद ज़रूर आएगी. और वास्तव में ऐसा ही होता है. आज भी वही हुआ. जब पुराने कागजों में कुछ ज़रूरी चीज़ें खोज रहा था तो एम. ए. की अपनी अंकतालिका पर भी नज़र गयी, ध्रुव तारे की तरह टिमटिमा रहे उस B+ पर निगाह अनायास चली ही गयी और साथ ही अपने गुरु डा. बी एम. चिंतामणि जी की उक्ति पर भी. सचमुच वे बहुत याद आये. आज उनकी स्मृति को नमन.

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

sahityakar mitra


शिवाजी नामक मेरे एक पड़ोसी साहित्य और कला में बहुत रूचि रखते हैं. वे जब भी मिलने आते हें प्रश्नों और जिज्ञासाओं का अम्बार लगा देते हैं. उनकी जिज्ञासाओं की गुणवत्ता इतनी हाई पोटेंसी की होती है कि कई बार तो मुझे उनके समाधान के लिए टाइम आउट लेकर अलग से पढ़ना पड़ता है. दिल्ली में हो रही साहित्यिक गतिविधियों के बारे में सजग रहना पड़ता है. न जाने कब किस कार्यक्रम के बारे में पूछ लें. हालांकि साहित्य सीधे-सीधे उनकी दिलचस्पी का क्षेत्र नहीं रहा है और न ही कभी उनकी प्राथमिकता. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तेजी से घटी घटनाओं से साहित्य और कला में उसकी अभिरुचि बढती चली गयी. जैसे सरकारी संस्थाओं के पुरस्कार जिनमें धन भी मिलता है और सम्मान भी. या फिर इन पुरस्कारों का भव्य समारोहों में साहित्य अथवा राजनीति के किसी प्रसिद्ध व्यक्तित्व द्वारा प्रदान किया जाना. और भी कुछ इसी प्रकार की लाभप्रद चीजें शिवाजी रोज खोज लाते हैं. आजकल तो शिवाजी ने लिखना भी शुरू कर दिया है. वह भी सोद्देश्य लेखन. सोद्देश्य लेखन से हमारे इन मित्र का आशय है जिस लेखन से उनका उद्देश्य पूरा होता हो यानी लाभ प्राप्त होता हो. आजकल शिवाजी के अन्दर यह आकांक्षा बलवती होने लगी है कि वे कुछ लिखें. उनको भी एक ऐसा पुरस्कार मिलना चाहिए जिससे कुछ आय भी हो. जब वे नौकरी में थे तो उनकी रूचि केवल साहित्य चर्चा तक सीमित थी लेकिन अवकाश प्राप्त करने के बाद उनकी रूचि लिखने और सुनाने में अधिक हो गयी है. पहले बात केवल शौक तक सीमित थी पर अब शौक गहराकर आदत में बदल चुका है. आज स्थिति यह है कि वे जब भी कोई नयी रचना लिखते हैं तो अपना पहला श्रोता मुझे बनाते हैं. मेरी हिंदी पढ़ाने की  नौकरी अथवा मेरे हिंदी अध्यापकत्व को वे हिंदी सेवा मानते हैं, अतः वे कहते हैं कि उनकी रचनाएँ सुनना और सुनना ही नहीं उनपर टिप्पणी करना मेरी पेशेगत और नैतिक ज़िम्मेदारी है. अपने मित्र की बात मानकर और उनका पडौसी होने के नाते मैं अपनी ज़िम्मेदारी बड़ी श्रद्धा व लगन के साथ पूरी करता हूँ. लेकिन यही आजकल मुसीबत का कारण बना हुआ है. कारण यह है मित्र अपनी नयी पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहते हैं. पुस्तक प्रकाशित करना या करवाना आज वैसे भी कोई समस्या नहीं है और यदि आपके पास छोटा सा भी कोई लाभ करा सकने वाला ऐसा पद है तो काम और आसान हो जाता है. फिर शिवाजी तो सरकार के एक बड़े विभाग में बड़े अधिकारी रह चुके हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के एक उपक्रम में निदेशक भी रह चुके हैं. अतः उनके लिए छपना कोई समस्या नहीं है. बात किसी नामी प्रकाशक के यहाँ से रचना के प्रकाशित होने की है. आजकल मेरे ये मित्र कुछ इसी प्रकार की उधेड़बुन में हैं कि क्या छपवाऊँ कहाँ छपवाऊँ और फिर कहाँ विमोचन करवाऊँ, किससे कराऊँ? आदि आदि. अच्छे सलाहकार के रूप में उनकी उम्मीद एक मैं ही हूँ. आज यही हुआ. सुबह जब मैं घर से अपने विश्वविद्यालय के लिए निकल रहा था तो ठीक उसी वक्त मेरे ये पड़ौसी नवोदित साहित्यकार साथी मुझसे मिलने आ गये. सुबह-सुबह की बात थी. विश्वविद्यालय जाना था, कक्षा के लिए देर भी हो रही थी, इसलिए लंबी बातचीत की स्थिति में तो मैं बिलकुल नहीं था। लेकिन साहित्यकार मित्र तो आखिर मित्र ही ठहरे । फुरसत के साथ आये थे। लग रहा था कि उनको जाने की कोई जल्दी नहीं है। मैं चिंतित था और वे निश्चिंत थे. मैं डर रहा था कि मित्र कहीं चिपक ही न जायें। लेकिन मेरी आशंका सच निकली. वास्तव में मित्र लंबी बातचीत के मूड में थे. दरअसल उन्होंने कहीं से ज़बरदस्त प्रेरणा लेकर ढेर साड़ी कवितायेँ लिख डालीं. अपनी कविताओं का एक संकलन भी तैयार कर लिया है. वह अपनी उसी पुस्तक के बारे में बात करने आये थे। बात पुस्तक के प्रकाशन की उतनी नहीं थी जितनी उसके किसी अच्छी जगह विमोचन की। विमोचन कहां करवाया जाय,किससे करवाया जाय? इसे लेकर मित्र उधेड़बुन में थे. उनका आग्रह था कि उनकी पुस्तक का विमोचन किसी ऐसी जगह करवाया जाय जहां विमोचन करवाने से उन्हें प्रसिद्धि मिले। मैंने कहा कि किसी विश्वविद्यालय में करवा देते हैं। विश्वविद्यालय के अध्यक्ष से विमोचन करवा देते हैं। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय में नहीं, बल्कि आईआईसी में करवाइए । मैंने सुना है कि वह बहुत शुभ स्थान है। प्रकाशकों की भी पसंद की जगह है। वहां पत्रकार भी आसानी से आ जाते हैं. और यदि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में नहीं तो इंडिया हेबीटेट सेंटर में प्रबंध करवा दीजिए। लेकिन इन दोनों के अलावा और कहीं नहीं। उसने यह भी कहा कि विमोचन में नामी व्यक्तित्वों को ज़रूर बुलाना है। उनके आने से समारोह की शोभा और भी बढ़ जाएगी। तभी तो लोगों का ध्यान पुस्तक और पुस्तक के लेखक दोनों पर जाएगा। लोग मेरी किताब को पढ़ेंगे । नहीं पढेंगे तो भी किताब पर समीक्षाएं तो अवश्य लिखेंगे। कभी कभी बिना पढ़े भी तो समीक्षाएं लिखी ही जाती हैं। अख़बारों में मेरी चर्चा होगी । मैं उनकी बात सुन रहा था। सहमति में सिर भी हिला रहा था। उन्होंने जो कुछ कहा मैंने सहर्ष स्वीकार किया। सब तरह के सहयोग का वादा किया, नमकीन, बिस्कुट तथा चाय के साथ उनकी खातिर की, कार में साथ बिठाया और समस्या साथ लेकर विश्वविद्यालय के लिए चल दिया।