रविवार, 24 फ़रवरी 2019

Local Market

‘रबुपुरा की पेंठ में कौन किसको पूछता है’ यह एक कहावत सी बन गयी थी जिसे मेरे पिताजी अक्सर सुनाया करते थे. मेले, हाट या पेंठ – पशु पेंठ या सामान्य पेंठ,  ये सभी देहात के लोगों के अद्भुत आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे और अब भी हैं. बुलंदशहर का एक क़स्बा है रबूपुरा. अब तो पता नहीं किसी समय वहां एक मेला लगता था जिसको पेंठ भी कहा जाता था. उस कस्बे के आसपास के गाँव के लोग पेंठ में जाकर अपना सामान बेचते थे और अपनी ज़रुरत का सामान वहां से खरीदते थे. इसको भले ही तकनीकी रूप से आप वास्तु विनिमय भले ही न कहें लेकिन था उसी का पुराना चला आता हुआ रूप. इसी मेले में एक व्यक्ति अपनी कपास बेचकर देशी घी खरीदने गया. उसने जब अपनी कपास को बेचने की कोशिश की पर कामयाब न हुआ. तभी एक महिला जो उसको भांप रही थी, उसके पास आई और बोली कि ‘फूफा राम-राम’. मेले में एक अपरिचित से ‘फूफा’ शब्द सुनकर ताऊ गाद्गद हो गए, पर कुछ सोचकर चौंके भी. इससे पहले कि वे कुछ सवाल करते तबतक उस महिला ने फूफा के हाथ से उनका बड़ा-सा थैला रख लिया और कहले लगी ‘फूफा’ पहचान न रौ है का.? अबई पिछले साल तौ बियाह में मिली ही थी. भूल गए का’ फूफा के घर या पड़ौस में कोई न कोई शायद शादी हुई ही होगी, इसलिए बिना कोई प्रश्न किये फूफा चुप हो गए और उस महिला पर विश्वास कर लिया. बात-बात में महिला ने जान लिया कि फूफा देशी घी लेना चाहते है. उसके पास घी का एक मटका था जिसको वह बेच नहीं पाई थी. बात-बात में उसने फूफा को कपास के बदले अपना देशी घी लेने के लिए राज़ी कार लिया और सामान का आदान-प्रदान करके ‘राम-राम फूफा’ कहकर गायब हो गयी. ‘फूफा. शब्द के संबोधन से गदगद और महिला द्वारा बेचे गए घी को लेकर तेज़ कदमों से अपने गाँव पहुँच गए. घर पर जब मटके का घी दुसरे बर्तन में निकाला गया तो पता चला कि महिला ने बुद्धू बना दिया है. घी के अन्दर नीचे के टेल में लगभग एक किलो के वजन के बराबर पत्थर रखे हुए थे. पांच किलो घी में एक किलो पत्थर. फूफा लुटे जा चुके थे. अगले सप्ताह पुनः उसी मेले में पहुंचे यह मानकर कि शायद ‘फूफा’ कहकर लूटने वाली वह लुटेरी महिला आई होगी किसी अन्य को अपना शिकार बनाने. शाम हो गई पर वह महिला न आई. अब ‘फूफा’ बनकर लुट चुके भले इंसान पेंठ में गाते फिर रहे थे जो इस तरह थे –
‘रबुपुरा की पेंठ में मैं किसका फूफा री.

घर-घर दीये जल गए मुझे किसने लूटा री.’ 

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

मित्र उवाच

मित्र-उवाच
मित्र का घर में मन नहीं लगता. मैंने कहा कि ‘यार यह बताओ कि मन है क्या, जो नहीं लगता?’
मित्र बोले कि ‘मन क्या है, यह बताया नहीं जा सकता. इसको तो केवल महसूस किया जा सकता है’.
मैंने कहा कि ‘कैसे महसूस करूं? जरा प्रकाश डालें.’
मित्र कहने लगे कि ‘आप चाहे जैसे महसूस करें या करना चाहें, पर अभी उतना नहीं कर पायेंगे. जितना अवकाश प्राप्त करने पर.’
मैंने कहा कि ‘ऐसा क्यों?’
इस पर वे कहने लगे कि ‘अवकाश प्राप्त होक के बाद यानी रिटायर होने लके बाद आप घर पर ज्यादा रहेंगे और घर वाले, आपको उतना समय घर पर देखने के आदि हैं नहीं. तब आपके हर एक्शन पार टोकेंगे और आप भी. दोनों एक दुसरे की बात का बुरा मानेंगे पर कहेंगे कुछ नहीं. तनाव बढेगा तो उसको दूर करने के लिए आपको ही क़ुरबानी देनी होगी.’
मैंने कहा कि ‘क़ुरबानी?’
वे मेरी चिंता का भाव समझ गए. तुरंत संभल गए और बोले कि ‘यार, सच वाली क़ुरबानी नहीं बल्कि अपनी मौजूदगी की को घर में कम करके बाहर रहने की क़ुरबानी.’
मैंने कहा कि यार पहेली मत ब्झाओ और साफ-साफ़ समझाओ कि क्या बताना चाहते हो?’
बारिश बहुत तेज़ हो रही थी. मैं तो वैसे भी नहीं भीगता पर सर्दी में तो भीगने का मन हरगिज़ नहीं था. इसलिए मित्र को अपनी कार में बैठाया और एक रेस्तरां पर ले गया. जहाँ जगह मिली बैत्ढ़ गया और दोस्त को गाजर का गरमागरम हलवा और पनीर के चटपटे पकडे खिलवाये. दोस्त का दुखी मन ठीक करना जो था. सबकुछ खा पी लेने के बाद मित्र ने घोषणा की कि ‘आप जैसा समझ रहे हैं ऐसा कुछ भी नहीं है. वह तो मेरी बात आपको बताने का तरीका था. दरअसल मैंने अपने कमरे में न तो एसी लगवाया है और न ही हीटर. पुराना समाजवादी जो हूँ.’
मैंने मित्र को अपनी आँख पर लगा चश्मा हटाकर ध्यान से देखा. कुछ कहने वाला ही था कि मित्र ने आकाशवाणी की. ‘अरे इसमें सोचने की कोई बात नहीं है. घर में सबकुछ है पर घरवालों के लिए. मैं तो ज्यादा बहर ही रहता था. पड़ौस की मार्किट में कुछ दुकानदारों से दोस्ती कर ली थी. आज भी है. सबने अपने यहाँ एसी लगा रखे हैं. समाचार, क्रिकेट मैच, और कोई पसंदीदा प्रोग्राम वाहीन बैठकर देखता हूँ. उनको ज्ञान देता हूँ और वे खातिर करते रहते हैं. दोस्त यह है. तुम क्या जानो. आज तेज़ बारिश में मित्र की अनुभवी बातें सुनकर मेरी हालत ऐसी हो गयी कि ‘मुझे काटो तो खून ही खून.’ 

सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

मित्र की डायरी

यह बात लगभग तीस साल पुरानी है जब मैं अपने मित्र के साथ उसके किसी दूर के रिश्तेदार के घर गया था. मित्र के घर पर उसके की बात चल रही थी और मित्र थे कि अपने विवाह का जिक्र आते ही बिदक जाते थे. इस ऊहापोह की हालत में कई साल बीत गए. एक दिन मित्र अपने परम्पगत स्वाभाव में किंचित परिवर्तन लाते हुए से दिखे. सुबह-सुबह मेरे कमरे आये और कहने लगे कि ‘आज शाम को वसंत विहार चलना है.’ मैंने मन में सोचा कि क्या खास बात है इसमें? वसंत विहार तो निकट ही था और हम अक्सर वहां जाते रहते थे. यह बात अलग थी कि हम जे एन यू के छात्र थे और मार्क्सवाद में नए-नए दीक्षित हुए थे. इसलिए वसंत विहार या ऐसे ही अन्य स्थान जो अमीरी के द्योतक थे हमको चिढाते थे. चार सौ रूपये की कमीज या पेंट का महत्व नहीं था. अगर आप पहनते हों तो पहनें कोई नहीं जानना चाहता था, आपसे उसके बारे में उन दिनों, लेकिन दस रुपये की जनपथ के फुटपाथ से खरीदी हुई शर्ट हमारे बीच चर्चा का विषय बन जाती थी. शानदार शादी ब्याह तो बुर्जुआ वर्ग के लक्षण कहे जाते थे. खैउर, जब मित्र ने कहा कि वसंत विहार चलना है तो मैं चौंका. मेरे चौंकते ही मित्र मेरा आशय समझ गए और तुरंत बोले कि ‘वसंत विहार तो मैंने यूं ही कह दिया था. वसुत्श तो हमें वसंत गाँव के समीप बने डीडीए फ्लेट्स में चलना है.’ मैंने कहा कि ‘ठीक है. कब चलना है और क्यों चलना है?’ इस पर मित्र थोडा शरमाते हुए बोले कि ‘यार किसी से अभी कुछ मत कहना. घर से बहुत दबाव है. एक लड़की देखने जाना है.’ मैं चुप हो गया. अच्छा भी लगा कि एक शुभकाम के लिए मित्र का साथ देना है. वैसे अनेक तरह की लुम्पिनगीरी में तो साथ निभा ही चुके थे. ....शाम को सात बजे वसंत गाँव के डीडीए फ्लेट के निकट मित्र के बताये स्थान पर पहुँच गया. थोड़ी देर में मित्र भी आ गए. हम दोनों साथ-साथ कन्या के घर गए. वह एक एमआईजी फ्लेट था. ड्राइंग रूम में एक ओर सोफा था. पीछे भारी जूडावाला शायद 25 इंच का एक टीवी चल रहा था. बीच वाले थ्री सीटर सोफे पर फ्लेट के मालिक यानी संभवतः लड़की के पिताजी बैठे हुए थे. वे न जाने क्यों बैठे ही रहे यानी हमारे स्वागत के लिए उठे नहीं. हो सकता है उन्होंने हमको इस लायक न समझा हो. या अपनी गोद में बैठे कुत्ते को डिस्टर्ब न करना चाह हो. कुत्ते से हम दोनों ही डरते थे. मित्र और मैं. हम कुत्ते को देख रहे थे और अन्दर ही अन्दर डर भी रहे थे. कुत्ता लगातार हमको देख रहा था और कुत्ते के मालिक कुत्ते के सिर पर लगातार हाथ फिरा रहे थे. थोड़ी देर में लड़की और उसकी माताजी किचेन बहर निकलकर ड्राइंग रूम में आ गयीं. दोनों शायद हमारे लिए कुछ खान-पान का सामान तैयार कर रही थीं. माताजी एक तौलिये से अपना एक हाथ पोंछते हुए आते ही मित्र की ओर मुखातिब हुईं और हाल-चाल जानने लगीं. लड़की बिना शर्माए अपनी लम्बाई को गर्दन तानकर और भी लम्बा करते हुए मित्र को निहार रही थी. कुछ इस भाव के साथ कि कहो, आ गए बच्चू? बच्चू यानि मित्र लगातार सिकुड़े जा रहे थे. अगर मैं उनको चिकोटी न काटता तो सोफे के साइज से भी और छोटे हो जाते.

खैर थोड़ी देर में चाय आई, बिस्कुट आये और  बहुर दिनों के बाद दिखने वाले पकोड़े भी. खाने का सामान देखते ही मैंने धीरे से मित्र से कहा कि लड़की अच्छी है. मित्र ने मेरी बात को अनसुना कर दिया और लड़की की बजाय कुत्ते को देखते रहे. कुता भी बहुत ढीठ था. लड़के यानी मित्र से निगाह मिलाने की लगातार कोशिश कर रहा था. हम बिस्कुट उठाने का प्रयास करते और कुत्ता भौंकता. कुत्ते के भौंकते ही बिस्किट हाथ से छूट जाता. कई बार प्रयास किया और फिर केवल चाय का प्याला उठा लिया. लड़की के पिताजी कुछ लेने का आग्रह करते और कुत्ता न लेने देने का. खैर थोड़ी देर औपचारिक-सी बातचीत करने के बाद हम विदा लेकर वापर अपने हॉस्टल लौट आये. मित्र ने लड़की के स्वाभाव, या निगाह के उसके चश्मे या कुत्ते की हठधर्मिता को देखकर निर्णय कर लिया कि वे उस लड़की के लिए नहीं बने हैं. मैंने मित्र का साठ दिया. क्योंकि खा तो कुछ मैं भी नहीं सका था.