शनिवार, 9 नवंबर 2019

बुरी नज़र वाले

जब कोई नया घर बनवाता है तो पूरा ध्यान रखता है कि किसी की बुरी नज़र उसके नए मकान पर न लग जाए, इसके लिए अनेक बार किसी हंडिया, गत्ते या बर्तन पर एक काला-सा अजीब तरह का डरावना चेहरा बनाकर इस प्रकार लगा दिया जाता है कि सबको दूर से ही वह दिखाई दे और उस देखने वाले की बुरी नज़र मकान पर न पड़े. लोगों की बुरी नज़र से बचने के लिए बच्चों को उनके चहरे पर एक ओर को काला टीका लगा दिया जाता है. ट्रकों और बसों पर उनके पीछे प्रायः एक पुराना जूता लटका रहता है. आजकल लोग एक सीडी किसी मज़बूत धागे में बांधकर लटका देते हैं शायद इसीलिए ताकि बुरी नज़र प्रतिबिंबित होकर इधर-उधर छिटक जाए. गाँव में भी घर के बाहर बुरी नज़र से बचने के लिए कोई बहुत पुराना कपड़ा या मिट्टी का बर्तन लटका दिया जाता था. नज़र तो लोगों की पशुओं तक पर लग जाती थी पर नहीं मालूम कि पशु नज़र से बचने के लिए स्वयं क्या करते होंगे. यदि कोई कुछ कर सकता था तो उनका मालिक जो अपने पशु को लोगों की बुरी नज़र से बचाने के लिए अन्य उपायों के अलावा एक गन्डा, ताबीज़ आदि बनवाकर उनके गले में उसी तरह लटका दिया करता था जैसे कि बच्चों के गले में. मैंने देहात में कभी-कभी महिलाओं को भैंस या बैल के सिर पर पुराना जूता अथवा चप्पल घुमाकर उस पर पड़ी नज़र उतारते देखा है. उस समय पशु चौकन्ना होकर एकटक देखता रहता था. मैंने तो गाँव में पशुओं पर और विशेष रूप से भैसों पर भूत का साया आने की बात भी सुनी है. जब कोई भैंस किसी दिन दूध न दे अथवा अचानक दूध देना बंद कर दे तो यह माना जाता था कि उस पर किसी प्रेतात्मा का साया पड़ गया है. आमतौर पर तो वह प्रेतात्मा पड़ौस की ही असमय गुज़र गयी कोई महिला या असमय गुज़रा हुआ पुरुष हुआ करता था. वाही मुख्या भूत हुआ करता था. पर आश्चर्य की बात यह थी कि किसी मोहल्ले का भूत दूसरे मोहल्ले में नहीं जाता था. भूतों के भी क्षेत्र थे और भूतत्व कर्म के अपने-अपने ढंग होते थे. मसलन भूत लिंगभेद मानते थे. यानी महिला भूत महिला पर और पुरुष भूत पुरुष पर ही आता था. हालाँकि इसके आपवाद भी होते थे पर कम. उस दुनिया में भी तो लोग हममें से ही जाते हैं. खैर, ऐसी स्थिति में गाँव के किसी ऐसे आदमी को बुलाया जाता था जिसे भूतों का विशेषज्ञ माना जाता था. ऐसा आदमी जिसको भूत-प्रेत की गतिविधियों का ज्ञान होता था वह ज्यादातर तो महिलाओं पर आये भूत को सफलतापूर्वक उतारने का कौशल रखता था पर पशुओं पर भी उसको दक्षता हासिल थी. हर गाँव में एक-दो इस तरह के लोग मिल जाते थे जिनको ‘भगत’ या ‘भूत-उतारा’ अथवा ऐसे ही किसी नाम से पुकारा जाता था. मैंने कई बार उन भगतों के किसी पीड़ित आदमी द्वारा पीटे जाने की बात भी नहीं सुनी थी.

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

जामिया के बहाने


जामिया के सामने जो सड़क है वह एक ओर को होली फॅमिली अस्पताल के सामने से निकलकर सराय जुलेना होती हुई मथुरा रोड में मिल जाती है और उसी तरफ को उसका एक भाग फोर्टिस एस्कॉर्ट्स और सुखदेव विहार होता हुआ ओवर ब्रिज के बराबर से निकलता हुआ मथुरा रोड में मिल जाता है. दूसरी ओर को जाती हुई वही सड़क बटला हॉउस कोलोनी के सामने से होती हुई एक ओर को ओखला बैराज को चली जाती है और दूसरी तरफ अबुल फज़ल एन्क्लेव के सामने से यमुना के किनारे-किनारे कालिंदी कुञ्ज होती हुई नॉएडा चली जाती है.बटला हाउस के सामने से निकलने वाली सड़क जाकिर नगर से गुज़रती हुई एक ओर को जोगाबाई और जोगाबाई एक्सटेंशान को छोड़कर आगे जाकर न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के अन्दर से होती हुई, खिजराबाद के सामने से मुड़कर, तैमूरनगर होती हुई जुलैना-महारानीबाग वाली सड़क में मिल जाती है. जामिया के सामने से गुज़रती हुई सड़क जामिया के स्कूल के सामने से थोडी दूर आगे जाकर दो हिस्सों में बंट जाती है. दायें ओर को जाने वाली सड़क आगे जाकर तिकोना पार्क पर पुनः दो भागों में बंट जाती है जो एक ओर तो ओखला हैड कहे जाने वाले स्थान से होती हुई अबुल फज़ल जाने वाली सड़क में ही मिल जाती है और दूसरी ओर टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज तक जाकर पुनः बाएं हाथ को मुड़कर जामिया के अकादमिक कॉलेज के सामने से फिर एक और बार मुड़कर ओखला हैड जाने वाली मुख्य सड़क में ही आकर मिल जाती है. तिकोना पार्क से ही उसकी एक शाखा नूरनगर, ओखला विहार, जौहरी फॉर्म्स और अन्य ऐसी ही कालोनियों की ओर चली जाती है. उसी का एक भाग ओखला विहार से होकर जसोला जनता क्वार्टर्स के सामने से होकर एक और को ओखला सीवेज डिस्पोजल क्षेत्र से गुज़रता हुआ पुनः मथुरा रोड में मिल जाता है और दूसरा जसोला होते हुए डीडीए फ्लेट्स और दिल्ली मेट्रो के सहारे-सहारे कालिंदी कुञ्ज से होकर जाने वाली दिल्ली नॉएडा सड़क में मिल जाता है. सडकों का यह विवरण अभी अधूरा है. लिखा इसलिए कि मैं जामिया के आसपास की इन सड़कों से गुज़रा हूँ और अब आसानी यह है कि बिना मथुरा रोड पर आये इन रास्तों से सरिता विहार से जामिया जाना आसान हो गया है. जहाँ से होकर जाने में मुख्य सड़कों के ट्रैफिक जाम से बचा जा सकता है. बहुत कम लोग अब जानते हैं कि ओखला गाँव अब भी है, जहाँ पुराने निवासी रहते हैं जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों हैं. वहां कुछ दुकानों से मैं अक्सर सामान खरीदता था. ‘नगीना स्टोर’ पहले स्टोर कहे जाने वाले स्थान पर था जो अब नहीं है और वाही पुराना ‘नगीना स्टोर’ अब नूरनगर में है. एक केवल की ग्रोसरी की दूकान होती थी जो अब भी है. एक छावड़ा स्टोर भी था जो अब भी है और एक दवाओं की दूकान थी जो बहुत पहले भी दवाइयां खरीदने पर मुझे कुछ रियायत देता था. ओखला हैड पर पहले अनेक होटल हुआ करते थे जिनमें से कुछ अब बंद हो गए हैं. उन होटलों के सामने एक रामलीला मैदान भी होता था जहाँ मैं अपने बच्चों के साठ अनेक बार रामलीला देखने और दशहरे के दिन पुतले जलते देखने जाया करता था. वहीं पर मेरे एक बहुत ही प्रिय शिष्य राजेश कुमार का घर था जो मुझे प्रायः बुला ले जाता था. अब राजेश वहां नहीं रहता. वह मेरे और ओखला के बीच एक बहुत बड़ा लिंक था. ....

रविवार, 11 अगस्त 2019

कोरिया की यादें


कोरिया की यादें
मैंने तीन बार कोरिया की यात्रा की. पहली बार सियोल में एक अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन में. दूसरी बार हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय सियोल में इंडियन स्टडीज के प्रोफ़ेसर के रूप में अध्यापन हेतु और तीसरी बार पुनः हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय सियोल में ही इंडियन स्टडीज के विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में अध्यापन हेतु. जब मैं सियोल पहुंचा तो एअरपोर्ट पर जहाँ सामान आता है उस बेल्ट पर पहले से ही एक विद्यार्थी मेरी प्रतीक्षा कर रहा था. भारत में तो यह संभव ही नहीं था. यहाँ तो एअरपोर्ट के बाहर भी खड़ा होने से रोकते हैं अन्दर जाने की कि तो हिम्मत ही क्या हो सकती है. इसीलिए जब वह छात्र मेरे पास आया और मेरा नाम पुकारकर मुझे संबोधित करने लगा तो मुझे आश्चर्य हुआ. आश्चर्य इसलिए भी कि मैं उस स्थान पर किसी के द्वारा पहचानने जाने की आशा नहीं कर रहा था जहाँ वह विद्यार्थी पहुंचा था. मैंने तो विस्तार से अपने उस दिन पहुँचने के बारे में बताया भी नहीं था. हालाँकि पहले मैंने विश्विद्यालय को अपना कार्यक्रम लिखा था पर मैं उस दिन नहीं गया था जिस दिन मुझे जाना था. किसी कारण से मुझे अपनी यात्रा दो दिन बाद शुरू करनी पड़ी थी. लेकिन न जाने इस विद्यार्थी को मेरा सही कार्यक्रम कैसे पता चला मुझे यह जानकर किंचित आश्चर्य हुआ. सोचा कि मेरे पुराने सन्देश के आधार पर फ्लाईट से जानकारी प्राप्त करके मेरे कोरिया आने के कार्यक्रम के बारे में किसी तरह पता लगा लिया होगा. खैर, जब मैं उस छात्र के साथ अपना सामान लेकर बाहर निकला तो देखा कि उसी विभाग का एक और छात्र हाथ में मेरा नाम लिखा एक बड़ा-सा एक बोर्ड लेकर खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था. दोनों से संक्षिप्त-सा परिचय हुआ तो उनके साथ कार पार्किंग में पहुंचा. वहां एक बड़ी-सी कार खडी थी जो हमारी प्रतीक्षा में थी. इस तरह हम तीनों इंचोन एअरपोर्ट से सियोल शहर के लिए चल दिए.
मैं तो यह सोचकर कोरिया के लिए गया था कि विश्वविद्यालय के सियोल कैंपस में ही आवास कि व्यवस्था होगी लेकिन शहर पहुंचकर पता चला कि मेरा आवास उसी विश्वविद्यालय के दूसरे कैम्पस के निकट ही होगा. विश्वविद्यालय का दूसरा कैंपस योंगिन नाम के शहर में ही जो ग्वांगजू प्रोविंस के अंतर्गत आता है. उस समय तक योंगिन कैम्पस में प्राध्यापकों के रहने की व्यवस्था नहीं थी. विश्वविद्यालय के निकट ही दो स्थानों पर कई फ्लेट्स किराये पर लेकर अध्यापकों के लिए व्यवस्था की गयी थी. एक देजों अपार्टमेंट्स और दूसरे सिनान अपार्टमेंट. मुझे सिनान अपार्टमेंट में एक बहुत ही सुन्दर और नया फ्लेट दिया गया था. उस फ्लेट में सभी सामान नया था और पूरी तरह से फर्निश्ड था. यानी गृहस्ती का सभी सामान. क्रोकरी सहित.
मुझे मकान बहुत सुन्दर लगा लेकिन कुछ ऐसे ही था जैसे सोने के पिंजरे में अकेला पक्षी. पूरा फ्लेट इलेक्ट्रोनिक डिवाइस से जुदा हुआ था अतः वातानुकूलन की प्रक्रिया से लेकर बाथरूम टब, किचिन और डिशवाशर आदि सभी अत्याधुनिक.
मुझे कमरे के उपकरणों के बारे में उन छात्रों ने बहुत अच्छी तरह समझाया था और उस समय में समझ भी गया था लेकिन बाद में सभी निर्देश न जाने कैसे घुल-मिल गए और इस ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में सब भूल गया. रात को ठण्ड बहुत लगी. मैंने किचिन में लगी हीटिंग प्रणाली को समझने की कोशिश की पर सब असफल. उसमें तरह-तरह लगभग आठ सिस्टम लगे थे. किचिन में लगे कभी एक सिस्टम को चलाकर आता और फिर कमरे के गर्म होने का इंतजार करता. गर्म न होते देख फिर दूसरे सिस्टम को चालत और फिर दोबारा कमरे में जाकर चेक करता. फोन था नहीं मेरे पास क्योंकि उसी दिन पहुंचा था. इसलिए किस्से पूछता. हालाँकि विद्यार्थी अपना फोन नंबर दे गए थे और उन्होंने बताया भी था कि कैसे फोन द्वारा उनसे संपर्क किया जा सकता है पर उनको शायद यह पता नहीं था कि मेरे पास उनको कॉल करने का साधन नहीं था. कोई उपाय न जान मैंने दो-तीन कम्बल ओढ़कर कोरिया में किसी तरह पहली रात बिताई. अब समस्या उससे भी बड़ी आ गयी. यानी स्नान कैसे किया जाय? पानी बहुत ठंडा था. तापमान 1 डिग्री सेल्सियस था. हीटिंग सिस्टम कैसे चले मुझे पता नहीं चल प् रहा था. किसी तरह हिम्मत करके और तेज आवाज़ में गीत गाते हुए यह मानकर स्नान किया जैसे सर्दियों में गंगा-स्नान कर रहा था. काम बहुत जल्दी हो गया और फिर गैस के पास जाकर गर्मी का अहसास किया. उस दिन जब विद्यार्थी मुझे लेने आये तो मैंने उनको अपनी समस्या बताई. उसी दिन छात्रों ने अंग्रेजी और हिंदी में सबकुछ समझाया. कोई दिक्कत दोबारा न आ जाए इसलिए मैंने सब साफ़-साफ़ लिख लिया ताकि भूलने की न कर पाऊं. और उनके साथ विश्वविद्यालय में पहले दिन की कार्रवाई के लिए चल दिया.

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

सावन का महीना और तीज


अरी मइया सावन में लइयो बुलाय रोवैगी तेरी लाडली
वैसे तो सावन के महीने का विशेष महत्व है लेकिन गाँव की नवविवाहित लड़कियों के लिए और भी विशेष. विवाह हो जाने के बाद वैसे भी लड़कियां अपने मायके को बहुत याद करती हैं लेकिन तीज-त्योहारों पर तो और भी. विवाह हो जाने पर उनको एक नितांत ही नया परिवेश मिलता है जिसमें वे धीरे-धीरे स्वयं को ढालने का प्रयास करती रहती हैं. ग्रामीण परिवेश में हर अवसर के लिए एक लोकगीत है और उसी अवसर पर गए जाने पर वह प्रासंगिक भी लगता है. अब तो लोग धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं. जब मैं छोटा था यानी मेरे बचपन में तो यह गीत सावन के महीने में अवश्य सुनने को मिलता था. गाँव की ब्याही-कुँवारी लड़कियाँ नीम के पेड़ पर झूला झूलते हुए और एक-दूसरे को झुलाते हुए, लम्बे-लम्बे झोटे देते हुए यह गीत अक्सर गाती थीं. मैं खुलती और तल्लीनता से गीत गा रही लड़कियों के चेहरों को बहुत ध्यान से देखता और गीत के मायने समझने का प्रयास करता. मेरी दिक्कत यह थी कि गीत को मैं प्रायः स्वयं पर ढालते हुए बिना कुछ ठीक-ठाक उसको समझे, भावुक हो जाया करता और अपनी बड़ी बहन जिसका कम उम्र में विवाह हो गया था, उसे याद करने लगता. वो गांव में होती तब भी और यदि उन दिनों वहां न होती तब भी. अगर वो वहाँ होती तो रोते हुए उससे लिपट जाता और यदि वह वहाँ न होती तो अपनी माँ से लिपटकर रोने लगता. माँ को लड़कियों की तरह इस प्रकार मेरा रोना अच्छा न लगता और इसलिए वे मुझे समझाती तथा कभी-कभी प्यार से डाँटती. फिर यदि बहन गांव में तबतक न आई होती तो किसी को शीघ्र ही उसको बुलाने भेजा जाता या बुलाने के लिए सन्देश भेजा जाता. गाँव के रिश्ते उन दिनों बहुत दूर-दूर नहीं हुआ करते थे. अक्सर आस-पास ही होते थे. सावन में लड़कियां अपनी ससुराल से मायके प्रायः आती है. गाँव की परंपरा के हिसाब से उनको बुलाया जाता, किसी को उन्हें लेने भेजा जाता. यदि कोई न जा पाए तो मेहमान को बूरा खाने आने का निमंत्रण भिजवाया जाता और इस बहाने लड़की भी आ जाती. मैं क्योंकि छोटा था तो ख़ुद बहन की ससुराल उसे लेने जा नहीं सकता था. इसलिए किसी प्रकार सन्देश भेजकर ही बुलाया जाता.
मेरे घर के आगे नीम के अनेक भारी-भरकम हरे-भरे पेड़ थे. सावन का महीना आते ही पिताजी उनमें से सबसे मज़बूत पेड़ पर, एक बहुत ही मज़बूत सी रस्सी का झूला डाल दिया करते. झूला कुछ इस तरह डाला जाता कि एक बार में दो लोग झूल सकें. पेड़ की मज़बूत शाखा पर एक रस्सी इस तरह लटकाई जाती कि दोनों ओर बिलकुल बराबर हो. पेड़ पर रस्सी के ऊपर एक कपड़ा भी लगाया जाता ताकि दवाब से रस्सी कट न जाय. पूरे मोहल्ले की लड़कियाँ आकर बिना किसी रोक-टोक के जब भी मौक़ा लगता झूला झूलतीं. झूले के दोनों ओर के सिरों पर बैठी लड़कियां अपने परों को एक दूसरे के पैरों में मजबूती से फंसा लेतीं और साथ खड़ी और लम्बे-लम्बे झोटे दे रदी लड़कियों के सुर में सुर मिलाकर गाती रहतीं. मेरी कोई भूमिका वहां न होती सिवाय इसके कि झूला मेरे घर के सामने पड़ा था और मेरे नीम के पेड़ों में से सबसे सुन्दर दिखने वाले पेड़ पर. बेटी को याद करते हुए उसकी तीज के अवसर पर शुभकामनाओं के साथ.

रविवार, 24 फ़रवरी 2019

Local Market

‘रबुपुरा की पेंठ में कौन किसको पूछता है’ यह एक कहावत सी बन गयी थी जिसे मेरे पिताजी अक्सर सुनाया करते थे. मेले, हाट या पेंठ – पशु पेंठ या सामान्य पेंठ,  ये सभी देहात के लोगों के अद्भुत आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे और अब भी हैं. बुलंदशहर का एक क़स्बा है रबूपुरा. अब तो पता नहीं किसी समय वहां एक मेला लगता था जिसको पेंठ भी कहा जाता था. उस कस्बे के आसपास के गाँव के लोग पेंठ में जाकर अपना सामान बेचते थे और अपनी ज़रुरत का सामान वहां से खरीदते थे. इसको भले ही तकनीकी रूप से आप वास्तु विनिमय भले ही न कहें लेकिन था उसी का पुराना चला आता हुआ रूप. इसी मेले में एक व्यक्ति अपनी कपास बेचकर देशी घी खरीदने गया. उसने जब अपनी कपास को बेचने की कोशिश की पर कामयाब न हुआ. तभी एक महिला जो उसको भांप रही थी, उसके पास आई और बोली कि ‘फूफा राम-राम’. मेले में एक अपरिचित से ‘फूफा’ शब्द सुनकर ताऊ गाद्गद हो गए, पर कुछ सोचकर चौंके भी. इससे पहले कि वे कुछ सवाल करते तबतक उस महिला ने फूफा के हाथ से उनका बड़ा-सा थैला रख लिया और कहले लगी ‘फूफा’ पहचान न रौ है का.? अबई पिछले साल तौ बियाह में मिली ही थी. भूल गए का’ फूफा के घर या पड़ौस में कोई न कोई शायद शादी हुई ही होगी, इसलिए बिना कोई प्रश्न किये फूफा चुप हो गए और उस महिला पर विश्वास कर लिया. बात-बात में महिला ने जान लिया कि फूफा देशी घी लेना चाहते है. उसके पास घी का एक मटका था जिसको वह बेच नहीं पाई थी. बात-बात में उसने फूफा को कपास के बदले अपना देशी घी लेने के लिए राज़ी कार लिया और सामान का आदान-प्रदान करके ‘राम-राम फूफा’ कहकर गायब हो गयी. ‘फूफा. शब्द के संबोधन से गदगद और महिला द्वारा बेचे गए घी को लेकर तेज़ कदमों से अपने गाँव पहुँच गए. घर पर जब मटके का घी दुसरे बर्तन में निकाला गया तो पता चला कि महिला ने बुद्धू बना दिया है. घी के अन्दर नीचे के टेल में लगभग एक किलो के वजन के बराबर पत्थर रखे हुए थे. पांच किलो घी में एक किलो पत्थर. फूफा लुटे जा चुके थे. अगले सप्ताह पुनः उसी मेले में पहुंचे यह मानकर कि शायद ‘फूफा’ कहकर लूटने वाली वह लुटेरी महिला आई होगी किसी अन्य को अपना शिकार बनाने. शाम हो गई पर वह महिला न आई. अब ‘फूफा’ बनकर लुट चुके भले इंसान पेंठ में गाते फिर रहे थे जो इस तरह थे –
‘रबुपुरा की पेंठ में मैं किसका फूफा री.

घर-घर दीये जल गए मुझे किसने लूटा री.’ 

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

मित्र उवाच

मित्र-उवाच
मित्र का घर में मन नहीं लगता. मैंने कहा कि ‘यार यह बताओ कि मन है क्या, जो नहीं लगता?’
मित्र बोले कि ‘मन क्या है, यह बताया नहीं जा सकता. इसको तो केवल महसूस किया जा सकता है’.
मैंने कहा कि ‘कैसे महसूस करूं? जरा प्रकाश डालें.’
मित्र कहने लगे कि ‘आप चाहे जैसे महसूस करें या करना चाहें, पर अभी उतना नहीं कर पायेंगे. जितना अवकाश प्राप्त करने पर.’
मैंने कहा कि ‘ऐसा क्यों?’
इस पर वे कहने लगे कि ‘अवकाश प्राप्त होक के बाद यानी रिटायर होने लके बाद आप घर पर ज्यादा रहेंगे और घर वाले, आपको उतना समय घर पर देखने के आदि हैं नहीं. तब आपके हर एक्शन पार टोकेंगे और आप भी. दोनों एक दुसरे की बात का बुरा मानेंगे पर कहेंगे कुछ नहीं. तनाव बढेगा तो उसको दूर करने के लिए आपको ही क़ुरबानी देनी होगी.’
मैंने कहा कि ‘क़ुरबानी?’
वे मेरी चिंता का भाव समझ गए. तुरंत संभल गए और बोले कि ‘यार, सच वाली क़ुरबानी नहीं बल्कि अपनी मौजूदगी की को घर में कम करके बाहर रहने की क़ुरबानी.’
मैंने कहा कि यार पहेली मत ब्झाओ और साफ-साफ़ समझाओ कि क्या बताना चाहते हो?’
बारिश बहुत तेज़ हो रही थी. मैं तो वैसे भी नहीं भीगता पर सर्दी में तो भीगने का मन हरगिज़ नहीं था. इसलिए मित्र को अपनी कार में बैठाया और एक रेस्तरां पर ले गया. जहाँ जगह मिली बैत्ढ़ गया और दोस्त को गाजर का गरमागरम हलवा और पनीर के चटपटे पकडे खिलवाये. दोस्त का दुखी मन ठीक करना जो था. सबकुछ खा पी लेने के बाद मित्र ने घोषणा की कि ‘आप जैसा समझ रहे हैं ऐसा कुछ भी नहीं है. वह तो मेरी बात आपको बताने का तरीका था. दरअसल मैंने अपने कमरे में न तो एसी लगवाया है और न ही हीटर. पुराना समाजवादी जो हूँ.’
मैंने मित्र को अपनी आँख पर लगा चश्मा हटाकर ध्यान से देखा. कुछ कहने वाला ही था कि मित्र ने आकाशवाणी की. ‘अरे इसमें सोचने की कोई बात नहीं है. घर में सबकुछ है पर घरवालों के लिए. मैं तो ज्यादा बहर ही रहता था. पड़ौस की मार्किट में कुछ दुकानदारों से दोस्ती कर ली थी. आज भी है. सबने अपने यहाँ एसी लगा रखे हैं. समाचार, क्रिकेट मैच, और कोई पसंदीदा प्रोग्राम वाहीन बैठकर देखता हूँ. उनको ज्ञान देता हूँ और वे खातिर करते रहते हैं. दोस्त यह है. तुम क्या जानो. आज तेज़ बारिश में मित्र की अनुभवी बातें सुनकर मेरी हालत ऐसी हो गयी कि ‘मुझे काटो तो खून ही खून.’ 

सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

मित्र की डायरी

यह बात लगभग तीस साल पुरानी है जब मैं अपने मित्र के साथ उसके किसी दूर के रिश्तेदार के घर गया था. मित्र के घर पर उसके की बात चल रही थी और मित्र थे कि अपने विवाह का जिक्र आते ही बिदक जाते थे. इस ऊहापोह की हालत में कई साल बीत गए. एक दिन मित्र अपने परम्पगत स्वाभाव में किंचित परिवर्तन लाते हुए से दिखे. सुबह-सुबह मेरे कमरे आये और कहने लगे कि ‘आज शाम को वसंत विहार चलना है.’ मैंने मन में सोचा कि क्या खास बात है इसमें? वसंत विहार तो निकट ही था और हम अक्सर वहां जाते रहते थे. यह बात अलग थी कि हम जे एन यू के छात्र थे और मार्क्सवाद में नए-नए दीक्षित हुए थे. इसलिए वसंत विहार या ऐसे ही अन्य स्थान जो अमीरी के द्योतक थे हमको चिढाते थे. चार सौ रूपये की कमीज या पेंट का महत्व नहीं था. अगर आप पहनते हों तो पहनें कोई नहीं जानना चाहता था, आपसे उसके बारे में उन दिनों, लेकिन दस रुपये की जनपथ के फुटपाथ से खरीदी हुई शर्ट हमारे बीच चर्चा का विषय बन जाती थी. शानदार शादी ब्याह तो बुर्जुआ वर्ग के लक्षण कहे जाते थे. खैउर, जब मित्र ने कहा कि वसंत विहार चलना है तो मैं चौंका. मेरे चौंकते ही मित्र मेरा आशय समझ गए और तुरंत बोले कि ‘वसंत विहार तो मैंने यूं ही कह दिया था. वसुत्श तो हमें वसंत गाँव के समीप बने डीडीए फ्लेट्स में चलना है.’ मैंने कहा कि ‘ठीक है. कब चलना है और क्यों चलना है?’ इस पर मित्र थोडा शरमाते हुए बोले कि ‘यार किसी से अभी कुछ मत कहना. घर से बहुत दबाव है. एक लड़की देखने जाना है.’ मैं चुप हो गया. अच्छा भी लगा कि एक शुभकाम के लिए मित्र का साथ देना है. वैसे अनेक तरह की लुम्पिनगीरी में तो साथ निभा ही चुके थे. ....शाम को सात बजे वसंत गाँव के डीडीए फ्लेट के निकट मित्र के बताये स्थान पर पहुँच गया. थोड़ी देर में मित्र भी आ गए. हम दोनों साथ-साथ कन्या के घर गए. वह एक एमआईजी फ्लेट था. ड्राइंग रूम में एक ओर सोफा था. पीछे भारी जूडावाला शायद 25 इंच का एक टीवी चल रहा था. बीच वाले थ्री सीटर सोफे पर फ्लेट के मालिक यानी संभवतः लड़की के पिताजी बैठे हुए थे. वे न जाने क्यों बैठे ही रहे यानी हमारे स्वागत के लिए उठे नहीं. हो सकता है उन्होंने हमको इस लायक न समझा हो. या अपनी गोद में बैठे कुत्ते को डिस्टर्ब न करना चाह हो. कुत्ते से हम दोनों ही डरते थे. मित्र और मैं. हम कुत्ते को देख रहे थे और अन्दर ही अन्दर डर भी रहे थे. कुत्ता लगातार हमको देख रहा था और कुत्ते के मालिक कुत्ते के सिर पर लगातार हाथ फिरा रहे थे. थोड़ी देर में लड़की और उसकी माताजी किचेन बहर निकलकर ड्राइंग रूम में आ गयीं. दोनों शायद हमारे लिए कुछ खान-पान का सामान तैयार कर रही थीं. माताजी एक तौलिये से अपना एक हाथ पोंछते हुए आते ही मित्र की ओर मुखातिब हुईं और हाल-चाल जानने लगीं. लड़की बिना शर्माए अपनी लम्बाई को गर्दन तानकर और भी लम्बा करते हुए मित्र को निहार रही थी. कुछ इस भाव के साथ कि कहो, आ गए बच्चू? बच्चू यानि मित्र लगातार सिकुड़े जा रहे थे. अगर मैं उनको चिकोटी न काटता तो सोफे के साइज से भी और छोटे हो जाते.

खैर थोड़ी देर में चाय आई, बिस्कुट आये और  बहुर दिनों के बाद दिखने वाले पकोड़े भी. खाने का सामान देखते ही मैंने धीरे से मित्र से कहा कि लड़की अच्छी है. मित्र ने मेरी बात को अनसुना कर दिया और लड़की की बजाय कुत्ते को देखते रहे. कुता भी बहुत ढीठ था. लड़के यानी मित्र से निगाह मिलाने की लगातार कोशिश कर रहा था. हम बिस्कुट उठाने का प्रयास करते और कुत्ता भौंकता. कुत्ते के भौंकते ही बिस्किट हाथ से छूट जाता. कई बार प्रयास किया और फिर केवल चाय का प्याला उठा लिया. लड़की के पिताजी कुछ लेने का आग्रह करते और कुत्ता न लेने देने का. खैर थोड़ी देर औपचारिक-सी बातचीत करने के बाद हम विदा लेकर वापर अपने हॉस्टल लौट आये. मित्र ने लड़की के स्वाभाव, या निगाह के उसके चश्मे या कुत्ते की हठधर्मिता को देखकर निर्णय कर लिया कि वे उस लड़की के लिए नहीं बने हैं. मैंने मित्र का साठ दिया. क्योंकि खा तो कुछ मैं भी नहीं सका था.    

बुधवार, 2 जनवरी 2019

नाई और उसका उस्तरा

प्राचीनकाल से ही उस्तरा और नाई का गहरा संबंध रहा है. हालाँकि उस्तराशब्द आज भी बहुत चलता है. पर आज उस्तरे के मूल रूप से सब लोग परिचित नहीं हैं. वैसे लोग प्रायः कहते मिल जायेंगे कि चलो अपने सिर पर उस्तरा फिरवालो’. या अरे उस्तरा लग गया’ ‘उस्तरे से बालों को घोटमघोट करा लोअथवा आपके बाल उस्तरे से काटूं या मशीन से?’ आदि-आदि अनेक वाक्य बहुधा कहे और सुने जा सकते हैं. लेकिन उस्तरे के आरंभिक रूप को अब लोग लगभग भूल-सा गए हैं. आजकल यूज एंड थ्रोवाले उस्तरे भी बाज़ार में आ गए हैं लेकिन दाढ़ी बनाने के लिए विशेष रूप से नाइयों की दुकानों में और घर पर भी सर्वाधिक प्रचलित माध्यम रेज़र ही है, जिसमें ब्लेड लगाया जाता है. आजकल उस्तरे में भी ब्लेड लगाया जाता है. पहले उस्तरे में ब्लेड नहीं लगाया जाता था. बहुत पहले की बात मुझे याद है कि जब गाँव में नाई बाल काटने आया करता था तो सबसे पहले साथ लाई अपनी पोटली खोलकर एक-एक करके उसके अन्दर का सामान निकाला करता था. इस प्रक्रिया में सबसे पहले वह कपडे की एक पोटली निकालता था जिसमें उस्तरा लपेटा हुआ होता था. उस पोटलीनुमा कपडे की एक-एक तह को खोलता जाता था. उसके अन्दर से उस्तरा निकालकर एक तरफ को रख देता था. उसके बाद कटोरी निकालकर रख देता था. एक पत्थर भी निकाला जाता था जो सिलेटी रंग के एक साबुन के आकार का होता था. पत्थर उस्तरे पर धार लगाने के लिए होता था यानी उस्तरे को पैनाने के लिए. पत्थर पर पानी लगाकर उस्तरे को उसपर बार-बार घिसने के कारण ऊपर से एक कर्व-सा बन जाता था. उस्तरा और पत्थर निकालने के बाद नाई पोटली में से चमड़े का एक पट्टा-सा लिकालकर एक ओर को अलग रख देता था. कभी-कभी एक सस्ते साबुन की गोलाकार डिब्बी भी साथ में होती थी जो दाढ़ी बनाते समय काम में आती थी. सब सामान को निकलने के पश्चात् उस्तरे को साथ लाये पत्थर पर काफी देर तक घिसा जाता था. यह एक कलात्मक काम होता था. पत्थर के बाद नाई महोदय उस उस्तरे को दाढ़ी पर इस्तेमाल करने से पहले उस चमड़े के पट्टे पर रगड़ना नहीं भूलते थे. यदि नाई गलती से भी उसको चमड़े पर रगड़ना भूल जाता था तो उसके इस्तेमाल से दाढ़ी पर न जाने क्यों दाने-से निकल आते थे. इसलिए पहली बार उस्तरे पर धार लगाने के बाद नाई उसको चमड़े पर उलट-पलटकर एक बार ज़रूर रगड़ता था.
मैंने बचपन में एक बुजुर्ग नाई को देखा था जिसका हाथ कांपता था. उस्तरे की धार भी वह ठीक प्रकार नहीं लगा पाता था. वह तो उस्तरे को पत्थर पर थोडा-सा रगड़ने के बाद अपने दायें पैर की पिंडली पर उलटते-पुलटते ज़रूर रगड़ता था और इसीलिए उसकी पिंडली के उस हिस्से पर एक भी बाल शेष नहीं बचा था, जहाँ उस्तरे को उल्टा-पलटा जाता था. एक बात और कि ब्लेड का उपयोग शुरू हो जाने के बाद ब्लेड से बनाई गयी दाढ़ी को उस्तरे से बनाना कठिन हो जाता था. वह हार्डहो जाती थी. इसलिए  यदि उस नाई का यजमान किसी कारण कभी ब्लेड से अपनी दाढ़ी बना लेता था तो हमारे घर का वह नाई बहुत नाराज़ हो जाता था और दाढ़ी बनाने से मना तक कर देता था. वह रेज़र से दाढ़ी बनाने के कारण उस व्यक्ति से तो नाराज हो ही जाता था, साथ ही उस्तरे के इस्तेमाल की भी अनेक कमियां गिनाने लगता था. लोग उस समय कहा करते थे कि यह नाई ब्लेड लगे रेज़र से दाढ़ी बनने की इसलिए बुराई करता है ताकि कोई रेज़र को उस्ताएर का विकल्प न बना ले और नाई का महत्व कम न हो जाए. एक बार ऐसा हुआ भी था कि सुक्खी नाई ने ब्लेड से बाल बनवाने वालों के बाल काटने से मन कर दिया था और उस घर का काम करना ही छोड़ दिया था. हालाँकि शादी-ब्याह बगैरा में उसने काम करना नहीं छोड़ा था. बुलाने पर ही नहीं यदि उसको पता चल जाए तो भी ज़रूर आ जाता था. वैसे कोई भी परिवार बिना नाई के उन दिनों काम नहीं चला पता था. शादी के लिए प्रस्ताव लाने से लेकर शादी हो जाने के एक वर्ष बाद तक पड़ने वाले सभी तीज-त्योहारों पर सामन ले जाने और लाने का काम नाई ही किया करता था. वह जब भी किसी लड़की की ससुराल जाता तो उस गाँव में रहने वाली अपने गाँव की सभी लड़कियों, चाहे वह बुजुर्ग ही क्यों न हो गयी हो, अवश्य मिलकर आया करता था. सभी घरों में उसके बेरोक-टोक आने-जाने की अनुमति थी. कुछ लोग उसको उसके नाम यानी सुक्कीनाई कहकर पुकारते और बाकी लोग उसको ससम्मान नाई ठाकुरकहकर संबोधित करते. जो लोग नाम लेकर आवाज़ देते तो सुक्की को कम पसंद आता था. नाई ठाकुर संबोधन उसको अच्छा लगता था. मैं सुको सदैव सुक्कीही कहता था. हालाँकि मेरे चाचाजी की उम्र का था पर और लोगों से सुन-सुनकर सुक्कीनाई ही कहता. उसको बुरा लगता था लेकिन कहता कुछ नहीं था. मैं भी उस समय नहीं जान पाता था कि उम्र में अपने चाचा के बराबर होने के बावजूद मैं चाचा को तो चाचा कहता पर नाई को सदैव उसके नाम से ही पुकारता. बड़ा होने पर जब रिश्तों का बोध हुआ तो भी व्यवसायगत अंतर के कारण सुक्की मेरे लिए सुक्की ही रहा. हालाँकि मैं बड़ा हो चुका था और सुक्की तो और भी बड़ा हो चुका था. पर नाई और उसके यजमान के रिश्ते में आजतक कोई अंतर नहीं आया.
सुक्की पूरे गाँव का नाई था. लेकिन वह केवल ब्राह्मणों के बाल ही बनाता था. गाँव की अन्य जातियां जो विभिन्न व्यवसायों से जुडी थीं और मुख्यतः किसानों की फसल पर ही निर्भर जातियां थीं क्योंकि उनके पास खेती के लिए जामीन नहीं थी. बाल आदि कटाने के लिए उनकी अपनी व्यवस्था हुआ करती थी. अब नाइयों की शैली बहुत बदल गयी है गाँव में कम पर शहर में ज्यादा. शहर में तो तरह-तरह के उपकरण और सामान आ गए हैं. तरह-तरह का सामान, सुन्दर कुर्सियां, आकर्षक शीशे एलसीडी और वह भी चलता हुआ. यानी बिना किसी व्यस्तता के अब आप नाई की दूकान पर थोड़ी देर बैठकर अपनी बारी का इंतजार भी कर सकते हैं, बिना बोर हुए. सामान में भी तौलिया, बाल काटने से पहले लगाने वाला कपडा और ब्रश आदि भी नए प्रकार के आ गए हैं. सुन्दर कपड़ा लगाने से पहले कागज का एक टेप की पट्टी जैसी चीज गले के चारों ओर लगायी जाती है. उसके ऊपर पर कपड़ा बाँधा जाता है. सब काम एक करीने से किया जाता है. जितने सलीके से काम किया जाता है उतने सलीके के पैसे भी लिए जाते हैं. गाँव का नाई तो अपने हाथ को पानी में भिगोकर उससे दाढ़ी को पलता रहता था और सॉफ्ट हो जाने के बाद शेव करना शुरू करता था. यहाँ तो ट्यूब से फोम निकालकर लगाईं जाती है, फिर उस्तरे को खोलकर उसे डिटोल से धोया जाता है. फिर एक स्टाइल के साथ एक ब्लेड को तोड़कर उसके आधे हिस्से को उस उस्तरे में लगाया जाता है. उसके बाद ही शेव की जाती है. यह एक लंबी प्रक्रिया है इसलिए फीस की राशि भी ठीक-ठाक होती है. सड़क किनारे के नाइयों की कहानी बाद में.