शनिवार, 22 दिसंबर 2018

सन्नाटा और साथी

कल अपने मित्र के साथ किसी के यहाँ एक कार्यक्रम में गया तो खाने में रायता भी बनाया गया था. मुझे क्योंकि अनुभव था इसलिए जब रायता देखा तो चौंका. स्वाद का थोडा लोभ भी था पर थोडा चौंका इसलिए कि सन्नाटा बहुत मारक होता था. सामने वाला दर्शनीय ‘आइटम’ केवल रायता मात्र नहीं था बल्कि पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में ब्याह-शादियों या ऐसे ही समारोहों के अवसर पर परोसे जाने वाले भोजन का अनिवार्य हिस्सा रहने वाला ‘सन्नाटा’ था और उसी की तरह प्रभावकारी भी. सन्नाटा बनाने की प्रक्रिया कुछ इस तरह है कि देहात में शादी या समारोह के लगभग पंद्रह दिन पहले से छाछ एकत्रित करना शुरू कर देते थे. गर्मिंयों के मौसम में तो इतने दिन रहने के बाद वह छाछ अत्यधिक खट्टी हो जाती थी, किसी अम्ल की तरह. उसके बाद तेज़ नमक और ढेर सारी तेज़ मिर्चें डालकर उस मट्ठे को अच्छी तरह जीरे और हींग के द्वारा छोंक लगाकर ‘धुमार’ दिया जाता था. इस तैयार माल का देहात में उन दिनों बहुत आकर्षण हुआ करता था. पहले तो लोग कई गिलास ‘सूंत’ जाते थे पर अब हो सकता है कि आजकल लोग पचा भी न पायें. लोग कहते थे कि इसके सेवन से आद्द्मी खाना कम खता है और पानी अधिक पीता है. अब आजकल कुल्हड़ तो रहे नहीं, फैशन का हिस्सा बन चुके हैं, पर किसी ज़माने में कुल्हड़ तथा सकोरे खाने के समय पत्तल का अनिवार्य भाग हुआ करते थे. धीरे-धीरे कागज और प्लास्टिक की प्लेटों और गिलासों ने उन्हें लगभग गायब ही कर दिया और उसी के साथ-साथ गायब हो गयी कुम्हारों की आमदनी. आधुनिक विकास का एक रूप यह भी है. खैर, मैं सन्नाटे की बात कर रहा था. ‘सन्नाटा’ नाम शायद रायते के पेट में जाने के त्वरित ‘एक्शन’ के कारण पड़ा है. पीते ही यह ‘सन्न’ करता हुआ निकल जाता है और आपकी सभी इन्द्रियों को अचानक जागृत कर देता है. यानी छाछ या मट्ठे से बने इस द्रव्य का एक घूँट लेते ही आपका हाथ स्वभावतः पानी के गिलास की ओर जाना लाज़मी है. पानी पीते ही आप पेट की आवश्यकता और मुंह की शांति के लिए पुनः खाने का एकाध कौर मुंह में डालेंगे, इसके बाद मुंह का जायका बनाने के लिए फिर सन्नाटे का पहले से थोडा हल्का घूँट लेंगे और मुंह खाली होते ही सन्नाटे के कारण पैदा हुई मुंह की जलन शांत करने के लिए इस बार पहले से ज्यादा पानी पीयेंगे. थोडा लड्डू खायेंगे, मुंह मीठा करने और मिर्चों का असर कम करने के लिए. कोई देखे या न देखे लेकिन तेजी से घटित हो रही आपकी इस खाद्य-प्रक्रिया में किसी तरह का अंतर नहीं आएगा. मिर्चों के प्रभाव से बना तेज-तर्रार सन्नाटा, भयंकर चीनी से भरे लड्डू और बर्फ पड़े पानी को पी-पीकर आप अपना पेट इतना भर चुके होंगे कि बाकी कुछ भी खाने के लिए आपके पेट में जगह शेष न रहेगी. मेरा हाल जो हुआ सो हुआ पर मित्र का बहुत बुरा हाल तो उससे भी बुरा हुआ. क्योंकि मिठाई मैं पसंद नहीं करता, बर्फ का पानी कभी पीता ही नहीं. अब बचा सन्नाटा तो केवल स्वाद के लिए थोडा-सा ही लिया. क्योंकि बाद में होने वाले उसके असर के बारे में मैं जानता था. लेकिन मेरे साथी की आदत और किंचित लोभ के कारण सन्नाटे का असर उनपर कुछ ज्यादा ही हो गया. वैसे भी लड्डू और सन्नाटा उन्होंने बहुत लिया ही था. मैं सन्नाटे के बारे में उनको सचेत तो करना चाहता था पर रुक गया. मैंने सोचा कि भोजन के बीच में उनका ध्यान-भग्न नहीं करना चाहिए. वैसे भी ‘भोजन भट्ट’ होने के कारण वे मेरी कहाँ सुनने वाले थे. इसलिए उनको भरपूर आनंद लेने दिया. सन्नाटे का स्वाद पहली बार ले रहे थे. उनको अच्छा भी लगा इस कारण सचमुच ले गए. और भरपूर भी. परिणामस्वरूप असर होना ही था. सुबह-सुबह उनका फोन आया था. सोफा और बाथरूम के बीच चक्कर लगा रहे हैं. अब लगता है दो या तीन दिन तक सन्नाटे का असर रहने वाला है. पहले तो कभी किया नहीं लेकिन अब कहते हैं कि ‘पश्चाताप आज बहुत हो रहा है’. 

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

साथी का केक

बार-बार मना करने पर भी साथी न माने और केक बना ही दिया. लेकिन जो बना शायद वह किसी कुशल पाकशास्त्री के लिए भी पहचानना मुश्कल हो जाय कि अपने रंग और शक्ल में मिल्क केक जैसा दिखने वाला यह खाद्य पदार्थ वास्तव में मिल्क केक है या कुछ और. आपको आश्चर्य होगा कि यह सच में ‘मिल्ककेक’ नहीं है, सचमुच केक ही है. पर नाम बड़े और दर्शन छोटे की भांति इसमें केक का एक भी गुण नहीं है. दरअसल निर्माता की पाक-कला की गलतियों की सजा केक को मिलने के कारण यह केक के नाम को ही बहुत बट्टा लगा रहा है. हुआ यह कि मुझे अपने एक साथी के साथ विश्वविद्यालय के दूसरे परिसर में जाना था जो वहाँ से दूर था. काफी इंतजार के बाद भी जब वे नहीं आये तो मैंने फोन किया. फोन पर कुछ बदली हुई आवाज़ आ रही थी. मैंने पूछा तो बोले कि ‘आप ही आ जाइए मेरे यहाँ, मेरे तो आज दांतों में दर्द है.’ वैसे दांत दर्द किसी को भी हो सकता है लेकिन मुझे अन्दर से कुछ अच्छा नहीं लगा कि हँसते-खेलते मेरे इतने युवा साथी को दांत-दर्द हो जाय. मानव स्वाभाव के विश्लेषण के आधार पर भी वे सब दर्दों से परे लगते थे. अतः दांत के दर्द का कारण पूछने के बदले मैं उनके अपार्टमेंट में गया तो उदास बैठे थे. मैने कहा कि क्या हुआ? आप तो उदास होते अच्छे नहीं लगते. उन्होंने कुछ बोलने से पहले समीप रखा केक मेरी ओर सरका दिया. उनके उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए मैंने केक की ओर हाथ बढाया. उन्होंने तो उत्तर देने में जल्दी नहीं की, लेकिन मैंने केक का एक पीस अपने हाथ में पकड़कर खाने के लिए जल्दी से अवश्य उठाया. मगर स्पर्श करते ही ऐसा लगा जैसे सीमेंट और बदरपुर की खुरदुरी मगर किसी मज़बूत दीवार को तोड़ने पर उससे निकली ईंट का सीमेंट लगा टूटा हुआ, भयानक खुरदुरा-सा कोई टुकड़ा छू दिया हो, लगभग वैसा ही टुकड़ा जिसके स्पर्श से कभी-कभी हाथ भी छिल जाता है. हाथ में लेकर दवाया तो अंगूठे में ही दर्द हो गया. दीवार पर मारकर देख नहीं सकता था ज़रूर आवाज़ होती. फिर यहाँ की दीवारें भी लोगों की तरह औपचारिक-सी और कृत्रिम स्वाभाव की लगती हैं. लगा कि गुस्से में दीवार में मारकर देखा भी तो पार निकलकर, यदि हमारी तरह ही पड़ौसी भी फालतू बैठा हो तो उसका सिर ही न फूट जाय. मुझे इस स्थिति में देखकर प्रोफेसर साहब हंसने लगे. शायद उनको मेरी ऐसी ही प्रतिक्रिया की आशा थी. मैंने कहा कि केक बना रहे थे या कोरिया में घर बनाने के लिए ईंटें? आपसे जब कहा था कि अपने आप को सामान्य दाल-चावल अथवा खिचड़ी पर ही कन्सेंट्रेट करो. विदेश में अतिरिक्त जोखिम मोल न लो. तो रोज-रोज ये नए अनुसन्धान करते ही क्यों हैं. बोले, गूगल पर सर्च करके देखा है. केक बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है. बस अनुपात ठीक हो. पहली बार प्रयास किया, पर लगता है कि अनुपात ही बिगड़ गया. अंडा मैं खाता नहीं. और यहाँ की भाषा के कारण बाज़ार से लाकर कुछ ऐसा भी नहीं डाल सका कि जिससे केक में थोड़ी सॉफ्टनेस आये, फिर कल आपका फोन बार-बार आ रहा था तो समय पर ओवन बंद करना भी भूल गया. देखने में तो अच्छा लग रहा था. लोभवश थोडा-सा ही खाया था, परिणामस्वरूप एकाध दांत में नहीं पूरे मुंह और मसूड़ों में ही ज़बरदस्त दर्द है. आपको अतिश्योक्ति लगेगी मगर रात को दर्द इतना था कि दवा लेनी पड़ी. बोलने में ही कठिनाई हो रही है. कक्षा क्या लूँगा. आप भी तो ज़रा-सा खाकर देखिये. इतना बुरा नहीं है. उन्होंने ‘शानदार केक’ के लिए मुझे ही दोबारा दोषी ठहराते हुए पुनः कहा, ‘आपके फोन के कारण ही तो ऐसा बना है. समय पर ओवन बंद करना भूल गया थान. अब थोडा-सा तो आप भी खाइए ही.’ मैं उनका चेहरा देखने लगा. कहा कि ‘यार आप मित्र हैं या शत्रु? हर काम में...  जब आपको पता चल ही गया है अपने करामाती प्रयोगों का और कल के उस प्रयोग के कारण कष्ट भी उठा रहे हैं, तो मुझे जानबूझकर अपने कष्ट में इस तरह शामिल क्यों कर रहे हैं कि मेरे भी दांत टूट जाएँ? मेरी आपके प्रति पूर्ण सहानुभूति है. मैं इतना रिस्क ले सकता हूँ कि इस बचे हुए केक को किसी गोपनीय स्थान पर दफनाने में आपकी मदद कर सकता हूँ. वर्ना इस तरह कहीं बाहर फेंकोगे तो लोगों को बेकार में शक होगा. समझ तो कोई पायेगा नहीं कि यह क्या है और क्यों बनाया गया है. और ‘जिस चीज के बारे में कुछ पता न हो वह बम भी हो सकती है’ वाली बात के आधार पर तो कुछ भी हो सकता है. यदि किसी कोरियाई को पता चला तो न जाने क्या सोचे. ‘नार्थ’ वैसे भी यहाँ से समीप ही है.’ इस पर भी साथी न समझे और कहने लगे कि ‘चलिए, आज फिर एक बार कोशिश करते हैं’. मैंने कहा कि ‘आराम करो. यदि केक ही खाना है तो मैं आते समय बाज़ार से लेता आऊंगा. आप कम्प्लीट बेडरेस्ट करें. शाम को बाहर चलकर खायेंगे’. बोले इतना भी बीमार नहीं हूँ. चलिए. आपकी बात ही सही. इस केक को दोनों कहीं नीचे फेंक आते हैं. एक तो इन्होंने न जाने क्यों, नीचे दस तरह के कूड़ेदान क्यों रखे हैं. कन्फ्यूज़ करके रख दिया है. यहाँ कुछ ज्यादा ही चक्कर है. हर तरह के वेस्ट के लिए अलग पोलीथिन तैयार करो और इतना ही है तो ऐसे केक अदि के लिए भी फिर लिख दें. इसको कहाँ डालें?

  

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

साथी प्रोफ़ेसर

जामिया ज्वाइन करने के बाद जब मैं एक दिन हिंदी विभाग पहुँच तो सबसे पहले विभाग में पाठक जी बैठे मिल मिल गए. दोपहर का समय था. उन दिनों दोपहर एक बजे के बाद जामिया लगभग वीरान-सी हो जाती थी. इसके कई कारण थे. एक तो अधिकाँश विषयों में एम ए की पढाई शुरू से नहीं होती थी. दूसरे जामिया आवासीय विश्वविद्यालय नहीं थी. तीसरे जो छात्र ओखला के बाहर से आते थे उनके लिए दूसरी जगहों के लिए जाने वाली सभी विश्वविद्यालय स्पेशल बसें एक से दो बजे के बीच ही चली जाती थीं. इसलिए विद्यार्थी अन्य गतिविधियों के बारे में तो कम और अपनी बसों के लिए विशेष रूप से सचेत रहा करते थे. कारण कि यदि किसी विद्यार्थी की बस छूट जाय तो जामिया से बाहर जाने के लिए विकल्प उन दिनों बहुत ही सीमित हुआ करते थे. निष्कर्ष यह कि जामिया एन आरंभ के दिनों में एक कॉलेज जैसा ही वातावरण हुआ करता था. यहाँ तक कि जामिया आने वाली सभी बसों पर भी लिखा होता था ‘जामिया कॉलेज’. प्रमाण के लिए कुछ बस स्टॉप्स पर आप आज भी लिखा हुआ पढ़ सकते हैं ‘जामिया कॉलेज’. खासकर इंजीनियरिंग कॉलेज के बाहर. आज से उस ज़माने के जामिया की कोई बराबरी नहीं. खैर, मुझे पाठक जी से मिलवाते समय असग़र भाई ने मेरी तारीफ के पुल तो भली-भांति बांधे ही साथ ही पाठक जी को भी मेरे समक्ष हिंदी के श्रेष्ठ कवियों में स्थापित कर दिया. लेकिन साथ ही यह एक बात कहना भी न भूले कि ‘यदि पाठक जी अपनी शायरी को जामिया तक महदूद न रखते तो सचमुच हिंदी के एक बड़े कवि हो जाते. अपनी इतनी प्रशंसा सुनते ही राधेश्याम पाठक जी अपने आप को रोक न सके और तुरंत लिखी अपनी एक कविता मुझे सुना दी. पाठक जी की एक विशेषता थी कि वे किसी को नया या पुराना परिचित नहीं मानते थे. जिससे मिलते कुछ इस तरह मिलते कि जैसे लम्बे समय से उसे जानते हैं. मुझे भी उन्होंने ऐसा ही पूर्व परिचित समझा क्योंकि जैसे ही वजाहत साहब मुझे उनसे मिलवाकर कहीं चले गए, संभवतः अपनी कक्षा में, तो पाठक जी ने अनेक किस्से मुझे सुना डाले. मैं तो नया था और उससे भी नए थे पाठक जी के किस्से जो अधिकांश जामिया और जामिया के लोगों से ही जुड़े थे. मैं तो जामिया से था ही अपरिचित और पाठक जी के अधिकांश पात्र हिंदी अथवा मानविकी संकाय की अन्य भाषाओँ से सम्बद्ध अध्यापक ही नहीं जामिया के विभिन्न विषयों के लोग थे. मैं समझ गया कि पाठक जी जामिया के मारे हुए हैं. उनके जेहन में जामिया बसी थी और वे जामिया में. धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि उठते-बैठते, सोते-जागते, पढ़ते-पढ़ाते उनको जामिया ही दिखाई देती थी.
स्व. राधेश्याम पाठक मूलतः अनूपशहर (बुलंदशहर) के रहने वाले थे. मैं भी वहीं का रहने वाला. हिंदी के प्रसिद्ध मध्यकालीन रीति कवि सेनापति भी अनूपशहर के रहने वाले थे. हालाँकि पाठकजी को नहीं मालूम थ कि वे सेनापति के शहर के हैं. मैंने जब उनको बताया तो उन्होंने सेनापति की शैली कि अपनी लिखी कुछ कवितायेँ सुनायीं. उनमें से एक तो जामिया के ही प्रोफ़ेसर पर उन्होंने नाराज़गी की मुद्रा में लिखी थी. उनके लिखे एक कवित्त की बानगी देखिये :
‘तुम जीए ज़िया जी न जीते हुए, गलियन में बड़ी बदनामी भई.
सब काम किये अपने ही लिए अपने ही लिए मनमानी रही.
सुनने को सुनी नहीं संतान की लुच्चन की पसंद कहानी रही.
षड्यंत्र किये, भरपूर किये जीवन की अजब कहानी रही.’ 

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

प्रोफ़ेसर त्रिशंकु

एक लम्बे अंतराल के बाद कल न चाहते हुए भी त्रिशंकु जी दिखाई दिए. न जाने अबतक कहाँ छिपे हुए थे. प्रोफेसर विट्ठलनाथ ‘त्रिशंकु’ आधुनिक परंपरा के आचार्य हैं. देखने में बिलकुल लघुमानव की तरह. शायद उन दिनों विजयदेव नारायण साही उस निबंध को लिख रहे होंगे जिन दिनों श्री वल्लभनाथ का जन्म हुआ था या वल्लभनाथ के माता-पिता ने भविष्य के गर्भ में छिपी लेकिन ऐतिहासिक महत्व प्राप्त करने की सम्भावना वाली अपनी संतान के बारे में कल्पना की होगी. उनके बचपन के बारे में तो कुछ भी कहना आज संभव नहीं है क्योंकि उनका बचपन एक किवदंती की भांति है जिसे केवल उनके माता-पिता ने देखा था और वे जन्म के अनुक्रम के हिसाब से अपने तीसरे बेटे को खलनायकी से भरी इस दुनिया में न जाने किसके हवाले करके बैकुंठलोक सिधार गए. बालत्रिशंकु ने स्वयं भी अपना बचपन उस तरह नाहीं देखा था जैसा वे देखना चाहते थे और यदि कुछ देखा भी होगा तो प्रो. त्रिशंकु उसे अब याद नहीं करना चाहते. कारण यह है कि वे अपने बचपन की खट्टी-खट्टी यादों में अब वे लौटना नहीं चाहते. वैसे देखा जाय तो ज्ञान प्राप्ति के दिनों में तो कष्टों में बीता उनका जीवन ही उनकी सबसे बड़ी पूँजी था, उनका संबल था पर जैसे ही उनको ब्रह्म-ज्ञान मिला, सत्य का आभास हुआ अथवा परमसत्य का इलहाम हुआ तो उनका कष्टों से भरा वही बेशकीमती अतीत ही उनके लिए समस्या बन गया. न जाने क्यों अब वे उसको किसी नव धनाड्य – नए-नए बने धनवान व्यक्ति - की भांति बिसरा देना चाहते थे. परिणामस्वरूप जो भी व्यक्ति उनके उस अतीत की याद दिलाता उसको वे बेहद नापसंद करते. उनके पूर्व परिचित और मुसीबतों में साथी रहे लोग और खासकर वो जो उन्हें पुराने चश्मे से देखते थे, बिलकुल नहीं भाते थे. ऐसे लोगों से बचने के लिए प्रो. विट्ठलनाथ ने अपना पता भी बदल दिया, फोन नंबर बदल दिया, यहाँ तक कि अपना पुराना फोन यानी फोनयंत्र तक बदल दिया. फोन डायरेक्टरी तो वे कब की बदल चुके थे बल्कि उसको जल समाधि दे चुके थे. मैंने ऐसा पहला चरित्र देखा कि तरक्की के साथ-साथ जिसकी शक्ल और अक्ल दोनों बदल गए हों. पुरानी स्मृतियों को वे अपने पुराने कस्बे में घर के समीप से निकलने वाली किसी गंगनहर में बहा आये थे और नयी स्मृतियों के पीछे दौड़ लगाने लगे थे. परिणामस्वरूप नए शहर, नयी नौकरी, नए लोगों और नए विचारों में रच-बसकर वे खुद भी नित नूतन होते गए. सांसारिक और अलौकिक बौद्धिक सम्पदा से संपन्न परम तत्व ज्ञानी. परम स्वतंत्र और नंगे सिर. मतलब कि ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई’ जैसा भाव लिए हुए. किसी का हाथ तो क्या वह गाँधी टोपी तक जिसके अन्दर से सर्दी के मौसम में केवल उनकी आँखें ही दिखाई देती थीं, उन्होंने अपने सिर पर न रहने दी. किसी समय वह टोपी ही उनकी पहचान हुआ करती थी. जिस किसी ने उनको देखा होगा वह वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के भूतपूर्व स्पिनर लैरी गोम्स की पुरानी तस्वीर देखकर उनके प्राचीन रूप का अंदाज बड़ी आसानी से लगा सकता है. उनके गाल और बाल दोनों ठीक गोम्स की तरह ही हुआ करते थे. अब शक्ल और अक्ल दोनों बिगड़ गयी हैं. प्रतिष्ठित भारतीय विद्वानों में से तो किसी से उनकी तुलना नहीं की जा सकती पर विदेशी आचार्यों में भी किसी से उनकी उपमा देने के लिए तलाश चल रही है. ज्ञान के भार से इतने गंभीर हो गए है कि किसी को देख ही नहीं पाते. कंधे इतने झुके हुए कि किसी भी तरह का कोई हल्का-सा थैला भी वहां स्थान नहीं पा सकता, आँखे छोटी पर नीचे झुकी हुई जैसे ज़मीन के अन्दर का सम्पूर्ण रहस्य जानने को उद्यत हों. एक हाथ में अपनी दाहिनी तरफ सीने से लगाकर ले जाई जा रही आलोचना की चार-पांच भारी-भारी पुस्तकें जिनके शीर्षक देखने और उनको पढने में ही किसी विद्यार्थी को आधा घंटा लग जाए. साथ में लिए हुए कक्षा में पहुँचते हैं. कभी नहीं हँसते और किसी समूह में तो कदापि नहीं लेकिन सुना है कि वे अकेले में कमरा बंद करके मुस्कराते हैं. अगर मान लिया जाय कि आचार्य सचमुच मुस्कराते हैं तो दुनिया के पहले विद्वान व्यक्तित्व होंगे जो मुस्कराते हैं तो आवाज करते हैं. उनको देखकर और उनसे बात करके आपको लग सकता है कि जितना उनको पढना था या फिर पढने की जितनी सामर्थ्य उनमें थी, वे उसे बीस वर्ष पूर्व ही पढ़ चुके हैं. उनके शरीर पर केवल ज्ञान का बोझ ही शेष रह गया है जिसके नीचे नित्य-प्रति वे दबे चले जा रहे हैं. अब वे सूफियों की भांति स्वयं ही किसी को ज्ञान दें तो बोझ कम हो और आचार्य किंचित हल्के हों. उन ज्ञानियों की भांति जिनके बारे में बचपन में सुना करते थे कि ज्ञान के अपच से वे बहुत परेशान रहा करते थे. परेशां भी इतने कि जब तक किसी सुपात्र पर उस ज्ञान को उड़ेल न दें उनको और उनकी आत्मा को किसी तरह भी शांति नसीब नहीं होतो थी. आचार्य भी इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि किसी तरह ज्ञान-दान करके उनके शरीर को आराम मिले. ........     


एक अलग पोस्ट

एक अलग तरह की पोस्ट
कभी-कभी आदमियों के ‘हवेले’ से बाहर निकलकर भैंसों के ‘तबेले’ में भी जाना चाहिए. थोड़ी देर के लिए ही सही शोर-शराबें से बचे रहेंगे. मैं एक दिन वहां गया. इन भैंसों में प्रमुख थीं – भदावरी (उत्तर प्रदेश), मुर्रा (पंजाब), मेहसाना (गुजरात). मैंने टोडा (तमिलनाडु), सुरति (गुजरात), नागपुरी (महाराष्ट्र), जाफराबादी (काठियाबाड़), नीली रावी (पाकिस्तानी) आदि नश्लों की भैंसें नहीं देखीं. हालाँकि इन भैसों के बारे में सुना बहुत है. मेरे पिताजी को भैंसों का बहुत शौक था. वे अच्छी नश्ल की भैंसें रखना पसंद करते थे. उनका कहना था भैंस भले ही दूध कम दे लेकिन भैंस होनी सुन्दर चाहिए. उनके पास दूद-दूर के व्यापारी भैंस बेचने और खरीदाने आते थे. मैंने देखा कि पिताजी को भैंसों की बेहतर जानकारी थी पर वे भैंसों के बेचने और खरीदने में घाटा ही सदैव उठाते थे. दादाजी उनको सदैव सचेत करते थे और कहते थे कि व्यापार का काम हमारा नहीं है. हम तो किसान हैं और किसानी ही हमें करनी चाहिए. ये भैस खरीदना बेचना बंद करो. जो आ गयी, दूध अच्छा देती है तो बस, उसे रहने दो.’ पर पिताजी कहाँ मानने वाले थे. मुझे तो विश्वास नहीं पर मेरे मित्रों ने बताया कि जब वे मेरे पास जामिया में आया करते थे तो चुपके से ओखला जाकर भैंसों के बारे में जानकारी लिया करते थे. हालाँकि भैंस पालना उन्होंने बहुत पहले छोड़ दिया था. उन्हीं से पता चला कि भैंसों की नश्ल और उनकी गुणवत्ता को कैसे पहचाना जा सकता है. वे बताते थे कि भैंसों में नीली रावी (पाकिस्तानी), मुर्रा, मेहसाणा के सींग बहुत सुन्दर लगते हैं और ऊपर को गोलाकार इस तरह मुड़े हुए होते हैं कि उनमें कभी-कभी तीन छल्ले तक बन जाते हैं. लेकिन टोडा, जाफराबादी, भदावरी और नागपुरी भैंसों के सींग लम्बे होते हैं. देशी भैंस वे न जाने किस भैंस को कहते थे लेकिन मैंने गाँव में देखा था कि वह थोड़ी सीधी-सी होती थी. सुरति भैंस दूध अधिक देती है पर कद में अपेक्षाकृत छोटी होती है. हमारे घर में कुन्नी नाम की जो भैंस थी वह 16 किलो दूध प्रतिदिन के हिसाब से दूध देती थी. आठ किलो सुबह और आठ किलो शाम को. मेरी माताजी को उस भैंस के ‘कटिया’ (पड़िया) देने का बड़ा इंतजार रहा करता था. चौथी बार में उसने कटिया/पड़िया दी जो उससे भी अधिक खूबसूरत निकली. मैं और मेरे घर में भी गाय को कभी पसंद नहीं किया गया और न ही गाय के दूध को. मेरी माताजी को गाय के दूध में से अजीब-सी आया करती थी. वे कहती थीं कि ‘गाय के दूध में एक अलग तरह की गंध होती है जो भैंस के दूध से भिन्न होती है. दूध भी गाया का पतला होता है’. मुझे लगता था कि शायद जिस भैंस की नश्ल का कोई पता न चले उसको लोग देशी कह देते थे, हालांकि सभी भैसें भारतीय ही हैं और जहाँ तक मेरी जानकारी है भैंसें भारत में ही अधिक पायी जाती हैं. विदेशों में मैंने भैंसें नहीं देखीं, पर सोचता हूँ कि यदि अंग्रेजी में ‘बफेलो’ शब्द है तो दुनिया के किसी अन्य हिस्से में भैंस भी होती ही होगी. लेकिन मुझको शक है.

सोमवार, 17 दिसंबर 2018

जामिया में पहली कक्षा

जामिया में मेरी अध्यापकी सन मार्च 1984 शुरू हुई और उसी साल से जामिया में एम.ए. हिन्दी आरम्भ हुआ था. उस समय प्रथम वर्ष के बैच की कक्षाएँ चल रही थीं. वार्षिक पाठ्यक्रम था और अप्रैल के पहले सप्ताह तक कक्षाएँ चलनी थीं. हमारा टाइम-टेबल अगले अकादमि वर्ष से यानी एक अगस्त से आरंभ होना था. प्रोफ़ेसर मुजीब रिज़वी उस समय विभाग के अध्यक्ष थे, छात्र-कल्याण अधिष्ठाता भी थे, स्टेट रिसोर्स सेंटर तथा जामिया के अन्य भी अनेक विभागों की उनपर जिम्मेदारियां थीं, अतः उनके द्वारा पढाये जा रहे पाठ्यक्रम का कुछ भाग शेष रह गया था. उन्होंने मुझसे अपनी कुछ कक्षाएँ शेयर करने के लिए कहा. मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती थी? जामिया में नयी-नयी नौकरी मिली थी. एक सप्ताह से खली बैठा हुआ था, नया-नया पाठ्यक्रम बन रहा था. अत: ख़ुशी-ख़ुशी मैं प्रो. मुजीब रिज़वी द्वारा ली जा रही कक्षा में चला गया. तकनीकी रूप से वह जामिया में मेरी पहली कक्षा थी. विद्यार्थियों में अनेक तो दिल्ली के स्कूलों के अध्यापक थे जो बी. ए. करने के बाद बी.एड. तो कर चुके थे पर हिंदी में एम. ए. नहीं थे. उन दिनों जामिया में लड़कियों. जामिया के कर्मचारियों और सेना में काम करने वालों और प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों के लिए प्राइवेटछात्र के रूप में परीक्षा देने की व्यवस्था थी. ऐसे विद्यार्थी यदि चाहते तो नियमित कक्षाएं भी ‘अटेंड’ कर सकते थे. इसीलिए अनेक अध्यापक भी हिंदी की उस कक्षा में प्राइवेट होते हुए भी नियमित पढ़ रहे थे. खैर एम.ए. हिंदी की जामिया की पहली कक्षा में भी लगभग आठ ऐसे विद्यार्थी थे जो पहले से ही अध्यापक थे. उनमें प्रायः सभी मुझसे उम्र में बड़े थे. बड़े क्या काफी बड़े थे. एक तो ऐसे थे जिनका बेटा एम.ए. अर्थशास्त्र में और बेटी समाजशास्त्र में एक कर रहे थे. एक तरह से तीनों समकालीन थे. कक्षा में पहुंचा तो ऐसा लगा कि अभिभावक अपने बच्चों के साथ आये हुए हैं. पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि यह एम. ए. प्रथम वर्ष की कक्षा है. मैंने जैसे ही दरवाज़ा खोला कक्षा में बड़ी उम्र वाले लोगों को देखते ही तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया. वापस लौटने को ही था कि तभी एक छात्र जो संभवतः मुझे थोडा-बहुत जानता था, बाहर निकलकर आया. वह शायद यह भी जानता था या मुजीब साहब ने कक्षा में बता दिया होगा कि मैं उनकी जगह कक्षा लेने आने वाला हूँ, उस विद्यार्थी ने मुझे कक्षा में अन्दर आने के लिये कहा. यद्यपि जे.एन.यू. में शोध करते हुए ऑप्शनल हिंदी की कक्षाएं पहले ही ले चुका था पर यह मामला दूसरा ही था. डरते-डरते कक्षा आरम्भ की. फिर धीरे-धीरे फ्लो बना और अध्यापकी शुरू हो गयी. उस कक्षा में मुझे जे.एन.यू. में गुरुवर नामवर सिंह द्वारा एम.ए. के प्रथम सत्र में पढाया हुआ ‘साहित्य की रूपवादी दृष्टिकोण’ वाला पाठ्यक्रम बहुत काम आया. पढ़ाते हुए मैंने अनुभव किया कि कुछ छात्र तो बहुत ही तल्लीन भाव में निमग्न लगभग उकडू-से होकर अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठे थे और मुझे लग भी रहा था कि मेरी बात को कुछ-कुछ समझ रहे हैं. कुछ छात्र अपने दिमाग पर बहुत जोर डालटे हुए ऐसे बैठे हुए थे जैसे की महिलायें गोलगप्पे वाले कि दूकान पर हाथ में प्लेट या कटोरी पकडे हुए अपनी बारी के आटे या सूजी के बने गोलगप्पे का इंतजार करती हैं. बाक़ी जिनमें अधिकाँश अध्यापक थे, वे ऐसे बैठे हुए थे जैसे कि बेगानी शादी में अब्दुल्ला बैठा रहा होगा. ..... शेष बाद में.