रविवार, 11 अगस्त 2019

कोरिया की यादें


कोरिया की यादें
मैंने तीन बार कोरिया की यात्रा की. पहली बार सियोल में एक अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन में. दूसरी बार हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय सियोल में इंडियन स्टडीज के प्रोफ़ेसर के रूप में अध्यापन हेतु और तीसरी बार पुनः हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय सियोल में ही इंडियन स्टडीज के विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में अध्यापन हेतु. जब मैं सियोल पहुंचा तो एअरपोर्ट पर जहाँ सामान आता है उस बेल्ट पर पहले से ही एक विद्यार्थी मेरी प्रतीक्षा कर रहा था. भारत में तो यह संभव ही नहीं था. यहाँ तो एअरपोर्ट के बाहर भी खड़ा होने से रोकते हैं अन्दर जाने की कि तो हिम्मत ही क्या हो सकती है. इसीलिए जब वह छात्र मेरे पास आया और मेरा नाम पुकारकर मुझे संबोधित करने लगा तो मुझे आश्चर्य हुआ. आश्चर्य इसलिए भी कि मैं उस स्थान पर किसी के द्वारा पहचानने जाने की आशा नहीं कर रहा था जहाँ वह विद्यार्थी पहुंचा था. मैंने तो विस्तार से अपने उस दिन पहुँचने के बारे में बताया भी नहीं था. हालाँकि पहले मैंने विश्विद्यालय को अपना कार्यक्रम लिखा था पर मैं उस दिन नहीं गया था जिस दिन मुझे जाना था. किसी कारण से मुझे अपनी यात्रा दो दिन बाद शुरू करनी पड़ी थी. लेकिन न जाने इस विद्यार्थी को मेरा सही कार्यक्रम कैसे पता चला मुझे यह जानकर किंचित आश्चर्य हुआ. सोचा कि मेरे पुराने सन्देश के आधार पर फ्लाईट से जानकारी प्राप्त करके मेरे कोरिया आने के कार्यक्रम के बारे में किसी तरह पता लगा लिया होगा. खैर, जब मैं उस छात्र के साथ अपना सामान लेकर बाहर निकला तो देखा कि उसी विभाग का एक और छात्र हाथ में मेरा नाम लिखा एक बड़ा-सा एक बोर्ड लेकर खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था. दोनों से संक्षिप्त-सा परिचय हुआ तो उनके साथ कार पार्किंग में पहुंचा. वहां एक बड़ी-सी कार खडी थी जो हमारी प्रतीक्षा में थी. इस तरह हम तीनों इंचोन एअरपोर्ट से सियोल शहर के लिए चल दिए.
मैं तो यह सोचकर कोरिया के लिए गया था कि विश्वविद्यालय के सियोल कैंपस में ही आवास कि व्यवस्था होगी लेकिन शहर पहुंचकर पता चला कि मेरा आवास उसी विश्वविद्यालय के दूसरे कैम्पस के निकट ही होगा. विश्वविद्यालय का दूसरा कैंपस योंगिन नाम के शहर में ही जो ग्वांगजू प्रोविंस के अंतर्गत आता है. उस समय तक योंगिन कैम्पस में प्राध्यापकों के रहने की व्यवस्था नहीं थी. विश्वविद्यालय के निकट ही दो स्थानों पर कई फ्लेट्स किराये पर लेकर अध्यापकों के लिए व्यवस्था की गयी थी. एक देजों अपार्टमेंट्स और दूसरे सिनान अपार्टमेंट. मुझे सिनान अपार्टमेंट में एक बहुत ही सुन्दर और नया फ्लेट दिया गया था. उस फ्लेट में सभी सामान नया था और पूरी तरह से फर्निश्ड था. यानी गृहस्ती का सभी सामान. क्रोकरी सहित.
मुझे मकान बहुत सुन्दर लगा लेकिन कुछ ऐसे ही था जैसे सोने के पिंजरे में अकेला पक्षी. पूरा फ्लेट इलेक्ट्रोनिक डिवाइस से जुदा हुआ था अतः वातानुकूलन की प्रक्रिया से लेकर बाथरूम टब, किचिन और डिशवाशर आदि सभी अत्याधुनिक.
मुझे कमरे के उपकरणों के बारे में उन छात्रों ने बहुत अच्छी तरह समझाया था और उस समय में समझ भी गया था लेकिन बाद में सभी निर्देश न जाने कैसे घुल-मिल गए और इस ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में सब भूल गया. रात को ठण्ड बहुत लगी. मैंने किचिन में लगी हीटिंग प्रणाली को समझने की कोशिश की पर सब असफल. उसमें तरह-तरह लगभग आठ सिस्टम लगे थे. किचिन में लगे कभी एक सिस्टम को चलाकर आता और फिर कमरे के गर्म होने का इंतजार करता. गर्म न होते देख फिर दूसरे सिस्टम को चालत और फिर दोबारा कमरे में जाकर चेक करता. फोन था नहीं मेरे पास क्योंकि उसी दिन पहुंचा था. इसलिए किस्से पूछता. हालाँकि विद्यार्थी अपना फोन नंबर दे गए थे और उन्होंने बताया भी था कि कैसे फोन द्वारा उनसे संपर्क किया जा सकता है पर उनको शायद यह पता नहीं था कि मेरे पास उनको कॉल करने का साधन नहीं था. कोई उपाय न जान मैंने दो-तीन कम्बल ओढ़कर कोरिया में किसी तरह पहली रात बिताई. अब समस्या उससे भी बड़ी आ गयी. यानी स्नान कैसे किया जाय? पानी बहुत ठंडा था. तापमान 1 डिग्री सेल्सियस था. हीटिंग सिस्टम कैसे चले मुझे पता नहीं चल प् रहा था. किसी तरह हिम्मत करके और तेज आवाज़ में गीत गाते हुए यह मानकर स्नान किया जैसे सर्दियों में गंगा-स्नान कर रहा था. काम बहुत जल्दी हो गया और फिर गैस के पास जाकर गर्मी का अहसास किया. उस दिन जब विद्यार्थी मुझे लेने आये तो मैंने उनको अपनी समस्या बताई. उसी दिन छात्रों ने अंग्रेजी और हिंदी में सबकुछ समझाया. कोई दिक्कत दोबारा न आ जाए इसलिए मैंने सब साफ़-साफ़ लिख लिया ताकि भूलने की न कर पाऊं. और उनके साथ विश्वविद्यालय में पहले दिन की कार्रवाई के लिए चल दिया.

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

सावन का महीना और तीज


अरी मइया सावन में लइयो बुलाय रोवैगी तेरी लाडली
वैसे तो सावन के महीने का विशेष महत्व है लेकिन गाँव की नवविवाहित लड़कियों के लिए और भी विशेष. विवाह हो जाने के बाद वैसे भी लड़कियां अपने मायके को बहुत याद करती हैं लेकिन तीज-त्योहारों पर तो और भी. विवाह हो जाने पर उनको एक नितांत ही नया परिवेश मिलता है जिसमें वे धीरे-धीरे स्वयं को ढालने का प्रयास करती रहती हैं. ग्रामीण परिवेश में हर अवसर के लिए एक लोकगीत है और उसी अवसर पर गए जाने पर वह प्रासंगिक भी लगता है. अब तो लोग धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं. जब मैं छोटा था यानी मेरे बचपन में तो यह गीत सावन के महीने में अवश्य सुनने को मिलता था. गाँव की ब्याही-कुँवारी लड़कियाँ नीम के पेड़ पर झूला झूलते हुए और एक-दूसरे को झुलाते हुए, लम्बे-लम्बे झोटे देते हुए यह गीत अक्सर गाती थीं. मैं खुलती और तल्लीनता से गीत गा रही लड़कियों के चेहरों को बहुत ध्यान से देखता और गीत के मायने समझने का प्रयास करता. मेरी दिक्कत यह थी कि गीत को मैं प्रायः स्वयं पर ढालते हुए बिना कुछ ठीक-ठाक उसको समझे, भावुक हो जाया करता और अपनी बड़ी बहन जिसका कम उम्र में विवाह हो गया था, उसे याद करने लगता. वो गांव में होती तब भी और यदि उन दिनों वहां न होती तब भी. अगर वो वहाँ होती तो रोते हुए उससे लिपट जाता और यदि वह वहाँ न होती तो अपनी माँ से लिपटकर रोने लगता. माँ को लड़कियों की तरह इस प्रकार मेरा रोना अच्छा न लगता और इसलिए वे मुझे समझाती तथा कभी-कभी प्यार से डाँटती. फिर यदि बहन गांव में तबतक न आई होती तो किसी को शीघ्र ही उसको बुलाने भेजा जाता या बुलाने के लिए सन्देश भेजा जाता. गाँव के रिश्ते उन दिनों बहुत दूर-दूर नहीं हुआ करते थे. अक्सर आस-पास ही होते थे. सावन में लड़कियां अपनी ससुराल से मायके प्रायः आती है. गाँव की परंपरा के हिसाब से उनको बुलाया जाता, किसी को उन्हें लेने भेजा जाता. यदि कोई न जा पाए तो मेहमान को बूरा खाने आने का निमंत्रण भिजवाया जाता और इस बहाने लड़की भी आ जाती. मैं क्योंकि छोटा था तो ख़ुद बहन की ससुराल उसे लेने जा नहीं सकता था. इसलिए किसी प्रकार सन्देश भेजकर ही बुलाया जाता.
मेरे घर के आगे नीम के अनेक भारी-भरकम हरे-भरे पेड़ थे. सावन का महीना आते ही पिताजी उनमें से सबसे मज़बूत पेड़ पर, एक बहुत ही मज़बूत सी रस्सी का झूला डाल दिया करते. झूला कुछ इस तरह डाला जाता कि एक बार में दो लोग झूल सकें. पेड़ की मज़बूत शाखा पर एक रस्सी इस तरह लटकाई जाती कि दोनों ओर बिलकुल बराबर हो. पेड़ पर रस्सी के ऊपर एक कपड़ा भी लगाया जाता ताकि दवाब से रस्सी कट न जाय. पूरे मोहल्ले की लड़कियाँ आकर बिना किसी रोक-टोक के जब भी मौक़ा लगता झूला झूलतीं. झूले के दोनों ओर के सिरों पर बैठी लड़कियां अपने परों को एक दूसरे के पैरों में मजबूती से फंसा लेतीं और साथ खड़ी और लम्बे-लम्बे झोटे दे रदी लड़कियों के सुर में सुर मिलाकर गाती रहतीं. मेरी कोई भूमिका वहां न होती सिवाय इसके कि झूला मेरे घर के सामने पड़ा था और मेरे नीम के पेड़ों में से सबसे सुन्दर दिखने वाले पेड़ पर. बेटी को याद करते हुए उसकी तीज के अवसर पर शुभकामनाओं के साथ.