सोमवार, 12 जून 2017

हफ्स और हबीब

कोरिया प्रवास के दौरान जब मैं सुबह-शाम खेल के मैदान में घूमने गया तो एक दिन वहां अफगानी जैसा दिखने वाला व्यक्ति घूमते हुए दिखाई दिया. मेरा ध्यान उस आदमी पर इसलिए गया कि मुझे वह जिज्ञासा से घूर रहा था. यहाँ तक कि घूमते-घूमते मुझे ध्यान से देखने के लिए ही बीच-बीच में थोडा रुक भी जाता. फील्ड चौकोर था और घूमने का ट्रैक गोलाकार. अतः फील्ड के कोनों में उसे रुकने का बहाना भी मिल जाता. जब घूमता-घूमता मैं उसके बराबर से निकलता, वह बिलकुल अनजान-सा होकर मेरी तरफ कनखियों से देखता. फिर तेज़ी से कदम रखता हुआ मेरे बराबर से आगे निकलने का प्रयास करता, कुछ इस तरह कि मुझे उसकी गतिविधि पर किसी प्रकार का कोई शक भी न हो. शक करने का हालांकि कोई कारण भी नहीं बनता था क्योंकि ऐसा अनेक बार होता था जब घूमते-घूमते कई लोग इस तरह रुक-रुक कर टहला करते थे और इस प्रक्रिया में कभी आगे निकल जाते तो कभी पीछे छूट जाते. पर मैंने धीरे-धीरे महसूस किया कि वह लड़का जैसे मेरे आस-पास ही रहने का प्रयास कर रहा था. वरना रुकने के बाद जैसे ही मैं उसके पास से आगे जा रहा होता था वह अपनी कनखियों से मुझे ही क्यों घूरता हुआ लगता. कई वार तो ऐसा भी हुआ कि जैसे ही मैं चलते-चलते उसके बराबर से गुज़रा तो वह मेरे आगे निकलते ही पुनः चल दिया. पहले तो मैंने उसपर कोई ध्यान न दिया, क्योंकि न तो मैं उसे जानता था और किसी भी कारण से न ही मेरे पास उसपर या उसकी गतिविधियों पर शक करने का कोई आधार था. सच पूछा जाय तो उसकी कोई आवश्यकता थी भी नहीं थी. रोज़ लोग टहलते ही रहते थे. मैं उस दिन कुछ ज़यादा देर फील्ड में रहा गया. लगभग एक घंटे तक. जब मैं टहलने के बाद अपने अपार्टमेंट की ओर जाने लगा तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह लड़का वहीं एक बेंच पर बैठा हुआ था, जो सुस्ताने के लिए ग्राउंड में दोनों ओर रखी हुई थीं. वह लगातार मुझे इस तरह देख रहा था जैसे कि पहचानने का प्रयास कर रहा हो. लड़का देखने में बहुत गोरा था और उसके चेहरे पर बहुत हल्की-सी दाढ़ी थी. चेहरा गोलाकार था और कद बहुत लंबा नहीं था. वह अनौपचारिक पोशाक में था पर वह स्पोर्ट्स ड्रेस नहीं थी. हाँ, स्पोर्ट्स के ब्रांडेड जूते अवश्य पहने हुए था. उसकी ड्रेस से वह देखने में किसी अच्छे परिवार का लगता था. बातचीत हुई नहीं थी, इसलिए यह कह पाना कठिन था कि वह पढ़ा-लिखा कितना है. इन सब जिज्ञासाओं के बीच मैंने उसके साथ बातचीत करके उसके बारे में जानने का मन बनाया. और उसके निकट गया तो उसने स्वयं ही मुझसे बात करने की पहल की। उसने अपना नाम हबीब बताया और यह भी कि वह पाकिस्तान का रहने वाला है। मैंने अपना परिचय दिया और साथ में अपना विजिटिंग कार्ड भी, जो इत्तफाक से उस समय मेरे पर्स में था. उस लड़के को देखकर लग रहा था कि वह कहीं कड़ी मेहनत वाली नौकरी करता होगा. मैंने देखा कि वह मेरे विजिटिंग कार्ड को बड़े ध्यान से पढ़ रहा था और पढ़ते-पढ़ते उसके चहरे का रंग भी तेज़ी से बदलता जा रहा था. यह कुछ क्षणों के अंतराल में ही हुआ होगा कि वह तुरंत ही व्यवस्थित होकर मुस्कराया और बोला कि ‘ओह, तो आप हिंदुस्तान से हैं. मैंने समझा था कि आप पाकिस्तान से हैं.’ खैर, चलिये, आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। मुझे उसकी प्रतिक्रिया जानकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उसके पहले भी न जाने क्यों, कई लोग इसी प्रकार मुझे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ब्राजील, नेपाल, स्पेन आदि का समझने की भूल कर चुके थे. मुझे अपना अंतर्राष्ट्रीयकरण किये जाने पर अच्छा भी लगता था और आश्चर्य भी होता था. उस पाकिस्तानी व्यक्ति ने भी ऐसा ही कुछ सोचा होगा जैसा मैंने उसके अफगानी होने के बारे में सोचा था। हम दोनों ही गलत निकले। लेकिन फर्क केवल यह था कि मुझे उसके अफगानी न होने पर कोई दुख या आश्चर्य नहीं हुआ जबकि उसको मेरे पाकिस्तानी न होने पर कुछ ऐसा हुआ जो उसके चहरे के भावों से पता चलता था पर वह बता नहीं रहा था। खैर, जब उसने मुझसे कहा कि आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई तो मैंने मज़ाक में कहा कि सचमुच खुशी हुई या सिर्फ कहने के लिए?’ इस पर वह बहुत ज़ोर से हंसा और बोला कि आप जो समझें

सामान्य परिचय के बाद शिष्टाचारवश मैंने उसे चाय ऑफर की। किंचित संकोच के बाद वह तैयार हो गया, लेकिन मेरे अपार्टमेंट में नहीं, विश्वविद्यालय कैंटीन में। कमरे चलने में वह हिचक रहा था। मैंने भी बहुत आग्रह नहीं किया। पहली बार मिल रहा था तो मुझे भी बहुत आग्रह करने की आवश्यकता नहीं महसूस हुई। वैसे भी मेरे लिए वो और उसके लिए लिए मैं आपस में अजनबी ही थे। उसको मैंने विश्वविद्यालय के कैंटीन में ले जाकर चाय पिलाई और बातचीत की। मैंने यह भी पूछा कि वह मुझसे क्यों मिलना चाहता है? जसने अजीब-सी बात बताई। बोला कि 'मैं  यहाँ किसी पाकिस्तानी से मिलना चाहता था। पता चला था कि एक पाकिस्तानी अध्यापक इस विश्वविद्यालय में रिसर्च के लिए आए हैं। मैं उनको और उनके बारे में कुछ नहीं जानता। बस सुना ही है। आपको देखा तो ऐसा लगा कि आप पाकिस्तान से हैं। मैंने पूछा कि मुझे देखकर आपको कैसे लगा कि मैं पाकिस्तानी हूँ. क्या खास है मेरे चेहरे में?’ वह चुप रहा। फिर मैंने दोबारा पूछा तो बोला कि आपका चेहरा पाकिस्तानी इसलिए लगता है कि आप दाढ़ी और मूंछ रखते हैं। इस देश में ज़्यादातर पाकिस्तानी मूंछ रखते हैं और हिंदुस्तानी नहीं रखते हैं। मुझे उसकी बात में थोड़ी-थोड़ी सच्चाई लगी। क्योंकि कुछ कोरेयाई विद्यार्थी भी मुझसे पूछते थे कि मैं पाकिस्तानी हूँ या हिंदुस्तानी? इसका कारण संभवतः मूंछ ही रहा होगा। कैसी अजीब बात है? खैर, उस पाकिस्तानी के प्रति मेरे मन में रूचि बढ़ने लगी। वह बातें बहुत शानदार करता था। उसको हिन्दी नहीं आती थी। उर्दू भी नहीं आती थी। केवल ऐसी भाषा बोल रहा था जो पंजाबी जैसी थी. हालांकि वह स्वात का रहने वाला था। उसी ने मुझे बताया कि स्वात बहुत सुंदर जगह है। मौसम बहुत अच्छा है और प्रायः ठंड रहती है। उसने तो यहाँ तक कहा कि स्वात आपके कश्मीर से भी अधिक सुंदर है। उसके मुंह से ऐसा सुनकर अजीब-सा लगा. हम तो कश्मीर को स्वर्ग कहते हैं, पर हबीब? मैंने मजाक में उससे यूं ही कहा कि हिन्दुस्तानी ही क्यों ज़यादर पाकिस्तानी भी विदेशों मूंछ नहीं रखते हैं. उस लड़के के चेहरे पर भी मूंछें नहीं थीं. हम मूंछ नहीं तो मूंछ की बात अवश्य रखते हैं. वह जोर से हंसा और बोला आप अच्छी बातें करते हैं. थोड़ी ही देर में हबीब से ढेर साड़ी बातें हो गयीं. पता चला कि उसकी जिंदगी बहुत व्यस्त है। वह अधिक पढ़ा लिखा नहीं है। उसको अंग्रेजी भी ठीक से नहीं आती है। शब्दों का उच्चारण बहुत खराब करता है। अशुद्ध भी बोलता है। वाक्य सही से नहीं बना पाता। फिर भी वह कई साल से कोरिया में रहता है और किसी प्राइवेट कंपनी में काम करता है। हबीब ने यह भी बताया कि वह विवाहित है और उसकी पत्नी कोरियाई है। आगे बातचीत के दौरान यह भी मालूम हुआ कि उसकी पत्नी डॉक्टर है और एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत है। उसने मुझे अपने घर बुलाने के लिए कहा और यह भी कि यदि कोरिया में कहीं कोई काम पड़े तो वह मदद करेगा. वह कोरियाई बहुत अच्छी बोल लेता था. बीच में किसी से फोन पर बात करते हुए उसको सुना. मैंने हबीब को धन्यवाद कहा और उसे बाहर तक छोड़ आया। वह चला गया तथा पुनः आने के लिए भी कह गया। हबीब अगले दो-तीन दिन नहीं आया। अब मुझे उससे मिलने की इच्छा होने लगी। मैंने उसको फोन किया। लेकिन वह फोन पर नहीं मिला। फोन शायद बंद था। कोरेयाई भाषा में कोई संदेश आ रहा था। मैं कोरेयाई संदेश नहीं समझ सका। फोन करने के दो दिन बाद हबीब का फोन आया। बोला कि दूसरे शहर में किसी काम के सिलसिले में गया था। उसने मेरे पास मिलने आने के लिए कहा. अगले दिन हफ़्स में आया। लेकिन मेरे टहलने के बाद। मैंने पूछा कि तुम नियमित नहीं टहलते हो। हबीब बोला कि बिलकुल नहीं। कभी-कभी समय मिलने पर ही टहल पाता हूँ. नौकरी के बाद समय ही कहाँ  मिलता है कि टहलूं भी........आगे ....

बुधवार, 31 मई 2017

मित्र पुराण 2

कभी-कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि जिस पर चाहकर भी आपका वश नहीं रहता। ऐसा ही मेरे और मेरे मित्र के बीच हुआ। दक्षिण कोरिया के सिओल स्थित हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय में अध्यापन हेतु कार्यरत समस्त प्राध्यापकों और गैर शिक्षक कर्मचारियों को विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा विजिटिंग कार्ड छपवाकर दिए जाते हैं. सभी कार्ड्स का रंग बिलकुल एक समान होता है. जैसा प्रायः होता है कि पहली बार मिलते समय विजिटिंग कार्ड देने की परंपरा है। इसलिए जब लोग आपस में मिलते हैं तो विजिटिंग कार्ड्स का आदान-प्रदान होता है। यहाँ हमारे जैसे विदेशी प्राध्यापकों के पास कार्ड तो बहुतायत में होते हैं अपने देश की अपेक्षा मिलने वाले कम, अब कार्ड के लिए समस्या है कि वह जाये कहाँ? मेरे एक सहकर्मी साथी की यही पीड़ा थी। अपना सुन्दर-सा विजिटिंग कार्ड वो दे किसे? एक दिन उसने अपनी वह पीड़ा मुझे बताई और कहा कि ‘देखिये इतने सारे विजिटिंग कार्ड्स हैं। अब हमारे लिए इनका क्या उपयोग है? भारत जाएंगे तो वहाँ भी किसको दें? मेरे लिए सब बेकार हैं।’ मुझे उनका कष्ट देखकर अच्छा नहीं लगा। सोचा कि एक राय दे दूँ और राय होती भी देने के लिए है। राय के साथ एक और महत्वपूर्ण बात जुड़ी है कि भारत में उसे बिन मांगे देने की परंपरा है। अतः परंपरा का निर्वाह करते हुए मैंने अपनी राय मित्र को दे दी। राय देने का परिणाम क्या हुआ और मित्र ने किस तरह उस बिन मांगी राय पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, वह बाद में। पहले राय सुनिए। मैंने कहा कि आप प्रातः जब घर से निकलते हैं तो सबसे पहले अपनी जेब में पर्स या रुपये रखने से भी पहले दस-बीस विजिटिंग कार्ड रख लिया कीजिए। रास्ते में जो भी मिले उसे एक थमा दीजिये। विश्वविद्यालय के सभी विभागों में जाइए और कार्ड का आदान-प्रदान कीजिये। एक ही दुकान से सामान मत खरीदिए। अलग-अलग दुकानों पर जाइए। सबको अपना कार्ड दे दीजिये। क्योंकि मैं पहले से कार्यरत था तो वहाँ की अपनी वरिष्ठता का सम्मान करते हुए उनको बताया कि कोरिया में यदि दुकानदार को बताएं कि आप प्रोफेसर हैं तो बहुत सम्मान करते हैं और कभी-कभी सामान खरीदने पर कुछ छूट भी दे देते हैं। भारत मैं तो ऐसा है नहीं, इसलिए अपने पद के महत्व का आनंद लीजिये। कोई काम न हो तब भी बस या सबवे में कार्ड के लिए ही सही, कभी-कभी यात्रा कीजिये और साथ बैठे व्यक्ति को मुस्कराहट के साथ अपना कार्ड थमा दीजिये।‘ बाकी सुझाव तो मित्र को अच्छे लगे, पर व्यर्थ बस या सबवे की यात्रा का विचार पसंद नहीं आया। कहने लगे कि ‘केवल कार्ड बांटने के लिए मैं बस और सबवे में टिकट के पैसे क्यों खर्च करूँ। आप क्यों नहीं अपने साथ मेरे भी कुछ विजिटिंग कार्ड रख लेते? जहां अपने दें मेरे भी दे दें।‘ मुझे उनकी बात अच्छी लगी पर मज़ाक में गलती से उनसे वह कह गया जो नहीं कहना चाहिए था। कहा कि ‘मैं ऐसा करता हूँ कि कल और परसों मेरी कक्षा नहीं है, अतः नाश्ते के बाद सबवे स्टेशन पर आपके कार्ड लेकर चला जाता हूँ और जहां विज्ञापन करने वाले खड़े रहते हैं वहीं उनकी बगल में खड़े होकर आपके सभी कार्ड दो दिनों में बाँट देता हूँ। समस्या समाप्त।‘ अब राय देने का परिणाम और प्रतिक्रिया सुनिए।  कहते हैं कि कमान से निकला तीर और ज़ुबान से निकली बात कभी वापस नहीं आती। पर ऐसा हुआ नहीं। तीर भी वापस आया और बात भी। तीर नज़रों से वापस आया क्योंकि मित्र ने बहुत ही खतरनाक दिखने वाली निगाहों से मुझे घूरा और मुंह से निकली मेरी बात मित्र के मुखारविंद से और भी अधिक फलीभूत होकर वापस आयी। गुस्से से भरकर इतना तेज़ मुंह खोला कि उसके बाद कई दिनों तक उनको मेरे साथ खाना खाने के लिए मुंह खोलने की आवश्यकता नहीं हुई। अपने बनाए कोपभवन में ही चले गए। बोनस में दो-तीन सप्ताह बात तक नहीं की, वह अलग से। यहाँ तक कि नाश्ते पर साथ जाने का समय भी बदल लिया।

मित्र पुराण

जो जगह मित्र ने मिलने के लिए बताई थी, मैं नियत समय उस जगह पहुंच गया पर मित्र वहाँ दिखाई न दिये। मैं कई बार इधर-उधर नज़र दौड़ायी पर मित्र के दर्शन न हुए। बहुर सर्दी पद रही थी। रात में काफी बर्फ भी पड़ चुकी थी। ठंड इतनी थी कि ठंड के मारे न केवल हाथ ठिठुर रहे थे बल्कि पैरों की अंगुलियाँ भी लगभग सुन्न हो रही थीं। मित्र से मिलने के इंतज़ार में यह सब हो रहा था वरना वातानुकूलित संकाय भवन में अंदर जाकर गर्मी का आनंद लेता। तभी मेरी नज़र एक थमलानुमा मोटी-सी चीज़ पर गयी जो लगभग उतने ही मोटे हाथ से मुझे कुछ संकेत जैसा करने का प्रयास कर रही थी, हालांकि थमलानुमा चीज़ का वह भारी हाथ वजनदार कपड़ों और कपड़ों के टाइट होने के कारण ठीक तरह से उठ नहीं पा रहा था। फिर भी थमला काफी टेढ़ा होकर मुझे अपनी ओर बुलाने का प्रयास कर रहा था। मैंने पहले भी उस थमलानुमा चीज़ को देखा था, लेकिन तब उसमें कुछ हलचल न थी। रही भी हो तो मैंने ध्यान न दिया होगा। अब अपरिचित वस्तु थी तो मुझे क्यों उसमें रुचि हो सकती थी भला? वैसे भी पूरा मुंह मफ़लर से ढका हुआ था। सिर पर भारी-सी टोपी थी और उस टोपी पर भी उनके ओवरकोट की कैप। चश्मा अलग से लगा रखा था। मैं तो अपने मित्र से मिलने गया था, उन्हीं मित्र से जिनका सुबह-सुबह फोन आया था और उन्होंने उसी जगह मिलने के लिए मुझे बुलाया था जहां मैं उनकी तलाश कर रहा था। तलाश कर रहा था मित्र की और मिला थमला। कैसे पहचानता? मित्र असल में काफी दूर रहते थे, यानी मेरे घर से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर। यह जगह जहां मिलना तय हुआ था, मेरे घर के बिलकुल समीप थी। मित्र ने यही बड़ी कृपा की थी कि मुझे बुलाने के वजाय स्वयं मिलने आ गये थे। खैर, उस बेहद सर्दी भरे दिन के मौसम में इशारा अनदेखा करना उचित न था। अतः उस वस्तु के पास गया। वस्तु भी धीरे-धीरे खिसकती हुई मेरे समीप आने का प्रयास करने लगी। अभी थोड़ी देर पहले ही बस उसको उतारकर गयी थी। लेकिन मुझे क्या पता था कि मित्र ही रूप बदल कर आए हैं। जब बहुत निकट पहुँच गया तो उनको पहचान पाया। कद तो छोटा था ही। भारी कपड़ों के कारण और भी छोटा हो गया लगता था। ठंड से बचने के लिए एहतियातन उन्होंने अपने शरीर के अनुपात से बहुत ज़्यादा कपड़े पहन रखे थे। बिना किंचित देर किए मित्र ने शिकायत की कि दो बार इधर से निकल गए और मुझे पहचाना तक नहीं । मैं हाथ से इशारा भी कर रहा था। मैं कुछ नहीं बोला। केवल उनको देखकर मुस्कराया। मुझे मुस्कराता देख वे भी मुस्कराइए। प्रेम से अपना भारी हाथ मिलाने के लिए वस्त्रों से बाहर निकालने का प्रयास किया पर ठंड के डर से कहिए या कपड़ों के प्रभाव से, वह हाथ बाहर न निकला। दरअसल ठंड से बचने के लिए बहुत ही भारी और मोटे चमड़े के बने दस्ताने मित्र ने हाथों में पहन रखे थे। मैंने दस्ताने की अंगुली या अंगूठा जो भी मिला उसको ही ऊपर से स्पर्श करके हाथ मिलाने की रस्म निभाई। हम धीरे-धीरे चलते हुए प्राध्यापकों के बैठने के लिए बने कक्ष की ओर गए। उस समय इत्तिफाक़ से कमरे में कोई नहीं था। नहीं तो मित्र के कपड़ों को ज़रूर गिनता। मित्र ने सहज भाव से अपने गरम कपड़े निकालकर एक कोने में इस निमित्त खड़े स्टेंड पर टांग दिये, जिनमें एक स्वेटर, एक कोट और एक आदमक़द ओवरकोट शामिल था। ओवरकोट इतना बड़ा था कि स्लीपिंग सूट के अभाव में उसे ओढ़कर सोया जा सकता था। मैंने ठीक से ध्यान नहीं दिया, हो सकता है वह स्लीपिंग सूट ही रहा हो जिसको मित्र ने कलाकारी के साथ ओवरकोट बनाकर पहना हो। ऐसे कार्यों में मित्र निपुण थे। मैं तो क्योंकि सात समुंदर पार उनसे मिलकर ही इतना खुश था कि कपड़ों पर ध्यान न गया था। उनसे मिलकर उनके आकार-प्रकार से आतंकित भी अब न था। अंततः मैंने पूछ ही लिया कि बंधु इतने कपड़े लादने का क्या मतलब? कोई कायदे का ठंड निवारक-वस्त्र खरीद लीजिये। आजकल बहुत पतले और हल्के, साथ ही ठंड से बचाने वाले सुंदर-सुंदर वस्त्र आ गए हैं। कोई अच्छी-सी जैकेट ही ले लीजिये। बोले व्यर्थ भाषण न दो। इतने महंगे कपड़े खरीदने का औचित्य? भारत में तो सब बेकार हो जाएंगे। यहां के लिए ये काफी हैं। इस समाज में कपड़ों पर कोई ध्यान नहीं देता। नए आए हो, कुछ ही दिनों में धीरे-धीरे सब समझ जाओगे। कक्षा में अभी देर है, चलो, चाय पीने चलते हैं। कपड़ों के बिना अब मित्र बहुत कमजोर लग रहे थे, पर चाल तेज़ हो गयी थी। ये बात अलग है कि चाय और एक पैकेट बिस्किट के पैसे मैंने ही दिये। क्योंकि आदतन अपनी जेब तो मित्र कमरे में ही छोड़ आए थे। 

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

नवीन साहित्य सेवी

मिलने आते हें प्रश्नों और जिज्ञासाओं का अम्बार लगा देते हैं. उनकी जिज्ञासाओं की गुणवत्ता इतनी हाई पोटेंसी की होती है कि कई बार तो मुझे उनके समाधान के लिए टाइम आउट लेकर अलग से पढ़ना पड़ता है. दिल्ली में हो रही साहित्यिक गतिविधियों के बारे में सजग रहना पड़ता है. न जाने कब किस कार्यक्रम के बारे में पूछ लें. हालांकि साहित्य सीधे-सीधे उनकी दिलचस्पी का क्षेत्र नहीं रहा है और न ही कभी उनकी प्राथमिकता. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तेजी से घटी घटनाओं से साहित्य और कला में उसकी अभिरुचि बढती चली गयी. जैसे सरकारी संस्थाओं के पुरस्कार जिनमें धन भी मिलता है और सम्मान भी. या फिर इन पुरस्कारों का भव्य समारोहों में साहित्य अथवा राजनीति के किसी प्रसिद्ध व्यक्तित्व द्वारा प्रदान किया जाना. और भी कुछ इसी प्रकार की लाभप्रद चीजें शिवाजी रोज खोज लाते हैं. आजकल तो शिवाजी ने लिखना भी शुरू कर दिया है. वह भी सोद्देश्य लेखन. सोद्देश्य लेखन से हमारे इन मित्र का आशय है जिस लेखन से उनका उद्देश्य पूरा होता हो यानी लाभ प्राप्त होता हो. आजकल शिवाजी के अन्दर यह आकांक्षा बलवती होने लगी है कि वे कुछ लिखें. उनको भी एक ऐसा पुरस्कार मिलना चाहिए जिससे कुछ आय भी हो. जब वे नौकरी में थे तो उनकी रूचि केवल साहित्य चर्चा तक सीमित थी लेकिन अवकाश प्राप्त करने के बाद उनकी रूचि लिखने और सुनाने में अधिक हो गयी है. पहले बात केवल शौक तक सीमित थी पर अब शौक गहराकर आदत में बदल चुका है. आज स्थिति यह है कि वे जब भी कोई नयी रचना लिखते हैं तो अपना पहला श्रोता मुझे बनाते हैं. मेरी हिंदी पढ़ाने की नौकरी अथवा मेरे हिंदी अध्यापकत्व को वे हिंदी सेवा मानते हैं, अतः वे कहते हैं कि उनकी रचनाएँ सुनना और सुनना ही नहीं उनपर टिप्पणी करना मेरी पेशेगत और नैतिक ज़िम्मेदारी है. अपने मित्र की बात मानकर और उनका पडौसी होने के नाते मैं अपनी ज़िम्मेदारी बड़ी श्रद्धा व लगन के साथ पूरी करता हूँ. लेकिन यही आजकल मुसीबत का कारण बना हुआ है. कारण यह है मित्र अपनी नयी पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहते हैं. पुस्तक प्रकाशित करना या करवाना आज वैसे भी कोई समस्या नहीं है और यदि आपके पास छोटा सा भी कोई लाभ करा सकने वाला ऐसा पद है तो काम और आसान हो जाता है. फिर शिवाजी तो सरकार के एक बड़े विभाग में बड़े अधिकारी रह चुके हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के एक उपक्रम में निदेशक भी रह चुके हैं. अतः उनके लिए छपना कोई समस्या नहीं है. बात किसी नामी प्रकाशक के यहाँ से रचना के प्रकाशित होने की है. आजकल मेरे ये मित्र कुछ इसी प्रकार की उधेड़बुन में हैं कि क्या छपवाऊँ कहाँ छपवाऊँ और फिर कहाँ विमोचन करवाऊँ, किससे कराऊँ? आदि आदि. अच्छे सलाहकार के रूप में उनकी उम्मीद एक मैं ही हूँ. आज यही हुआ. सुबह जब मैं घर से अपने विश्वविद्यालय के लिए निकल रहा था तो ठीक उसी वक्त मेरे ये पड़ौसी नवोदित साहित्यकार साथी मुझसे मिलने आ गये. सुबह-सुबह की बात थी. विश्वविद्यालय जाना था, कक्षा के लिए देर भी हो रही थी, इसलिए लंबी बातचीत की स्थिति में तो मैं बिलकुल नहीं था। लेकिन साहित्यकार मित्र तो आखिर मित्र ही ठहरे । फुरसत के साथ आये थे। लग रहा था कि उनको जाने की कोई जल्दी नहीं है। मैं चिंतित था और वे निश्चिंत थे. मैं डर रहा था कि मित्र कहीं चिपक ही न जायें। लेकिन मेरी आशंका सच निकली. वास्तव में मित्र लंबी बातचीत के मूड में थे. दरअसल उन्होंने कहीं से ज़बरदस्त प्रेरणा लेकर ढेर साड़ी कवितायेँ लिख डालीं. अपनी कविताओं का एक संकलन भी तैयार कर लिया है. वह अपनी उसी पुस्तक के बारे में बात करने आये थे। बात पुस्तक के प्रकाशन की उतनी नहीं थी जितनी उसके किसी अच्छी जगह विमोचन की। विमोचन कहां करवाया जाय,किससे करवाया जाय? इसे लेकर मित्र उधेड़बुन में थे. उनका आग्रह था कि उनकी पुस्तक का विमोचन किसी ऐसी जगह करवाया जाय जहां विमोचन करवाने से उन्हें प्रसिद्धि मिले। मैंने कहा कि किसी विश्वविद्यालय में करवा देते हैं। विश्वविद्यालय के अध्यक्ष से विमोचन करवा देते हैं। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय में नहीं, बल्कि आईआईसी में करवाइए । मैंने सुना है कि वह बहुत शुभ स्थान है। प्रकाशकों की भी पसंद की जगह है। वहां पत्रकार भी आसानी से आ जाते हैं. और यदि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में नहीं तो इंडिया हेबीटेट सेंटर में प्रबंध करवा दीजिए। लेकिन इन दोनों के अलावा और कहीं नहीं। उसने यह भी कहा कि विमोचन में नामी व्यक्तित्वों को ज़रूर बुलाना है। उनके आने से समारोह की शोभा और भी बढ़ जाएगी। तभी तो लोगों का ध्यान पुस्तक और पुस्तक के लेखक दोनों पर जाएगा। लोग मेरी किताब को पढ़ेंगे । नहीं पढेंगे तो भी किताब पर समीक्षाएं तो अवश्य लिखेंगे। कभी कभी बिना पढ़े भी तो समीक्षाएं लिखी ही जाती हैं। अख़बारों में मेरी चर्चा होगी । मैं उनकी बात सुन रहा था। सहमति में सिर भी हिला रहा था। उन्होंने जो कुछ कहा मैंने सहर्ष स्वीकार किया। सब तरह के सहयोग का वादा किया, नमकीन, बिस्कुट तथा चाय के साथ उनकी खातिर की, कार में साथ बिठाया और समस्या साथ लेकर विश्वविद्यालय के लिए चल दिया।

बुधवार, 19 अप्रैल 2017

जे एन यू में बस

बात जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र जीवन के आरम्भ के दिनों की है. उन दिनों कैम्पस में कुछ ही बसें चलती थीं. जब तक पूर्वांचल का काम्प्लेक्स नहीं बना था तो बस केवल गोदावरी हॉस्टल तक ही आती-जाती थीं. आरम्भ में 612 और 613 नंबर की बसें चलती थी. 612 सफदरजंग हॉस्पिटल तक जाती थी और 613 डाउन कैम्पस तक। कुछ दिनों बाद 666 नंबर की एक और बस चली जो मुद्रिका की तरह माइनस और प्लस दिशाओं में चलती थी और मुनीरका, सरोजिनी नगर, सफदरजंग हॉस्पिटल, एआइआइएमएस, ग्रीन पार्क, आईआईटी गेट, आईआईटी हॉस्टल, जेएनयू के पुराने कैम्पस, बेर सराय, मुनीरका डीडीए फ्लेट्स और जेएनयू के नए परिसर के बीच चक्कर लगाती थी फिर इसी प्रकार विरीत दिशा में उसी प्रकार चलती थी. इसके कुछ दिनों बाद जब पूर्वांचल परिसर बन गया जिसमें ब्रह्म पुत्र हॉस्टल और महानदी हॉस्टल और शिक्षकों के लिए आवासीय परिसर थे तो 615 नंबर की एक बस और जुड़ गयी और सभी बसें पूर्वांचल परिसर तक जाने लगीं. कुछ बसें ड्राइवरों और कंडक्टरों की ड्यूटी समाप्त होने के समय कभी-कभी वसंत विहार डिपो तक ही जाती थीं और वहां से किसी दूसरी बस में जाना पड़ता था जिसके स्टाफ की ड्यूटी शुरू हो रही होती थी. लेकिन धीरे-धीरे डीटीसी बस वालों ने इस ड्यूटी शिफ्ट होने की कला को अपनी सुविधानुसार जेएनयू जाने से बचने के लिए एक आदत ही बना ली थी. आदत यह थी कि रात होते ही उन दिनों डीटीसी बस वाले जेएनयू के परिसर में अन्दर जाने में आनाकानी करने लगते थे. वे अक्सर ड्यूटी के पूरे होने के वक़्त का बहाना बना दिया करते या बस को ख़राब बता देते. हाँ यदि सवारियां अधिक हों तो जहां तक सवारियां जाने वाली होतीं बस को वहीं तक ले जाते थे. अंतिम स्टॉप पूर्वांचल होता था जहाँ रिहायशी मकानों के साथ-साथ दो हॉस्टल भी थे. एक विवाहित छात्रों के लिए और दूसरा लड़कों का हॉस्टल. उनमें से ब्रह्मपुत्र हॉस्टल में हमारे सहपाठी रामकृष्ण पाण्डेय रहा करते थे. पाण्डेय जी उन दिनों समाचार भारती नाम की एक न्यूज एजेंसी में काम किया करते थे और देर रात को बस से लौटते थे, वह भी प्रायः आखिरी बस से. बस वाले वैसे तो उनको पहचान गए थे, अतः कृपा पूर्वक आखिरी बसस्टॉप तक बस को ले जाते थे, पर कभी-कभी बसस्टॉप दूर होने के कारण कोई-कोई ड्राइवर समय की बचत के लिए गंगा हॉस्टल पर ही बस रोककर, सवारियां उतारकर वापस लौट जाता था. अगर किसी मजबूरी में आगे तक जाना ही पड़े तो बहुत गुस्से में बिना क्लच दबाये, जोर से गेयर डालकर, नयी बन रही पर तारकोल से बनी सड़क से ठीक पहले की हालत वाली गड्ढेदार और ख़राब सड़क पर झटकों के साथ बस को तेजी से भगाते हुए चले जाते थे. पूर्वांचल परिसर में लगभग चलती बस से ही सवारी को उतर जाने के लिए विवश करके बिना कोई नयी सवारी लिए सीधे डिपो वापस भाग जाते थे. ऐसा गुस्सैल ड्राइवर किया करते थे, सब नहीं. उस ज़माने में डीटीसी बस चालकों का बहुत बुरा रवैय्या था. वैसे वहां सावधानी के लिए औ हर बस पूर्वांचल अवश्य जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए डीटीसी ने एक टाइम कीपर भी पूर्वांचल बस स्टॉप पर तैनात कर रखा था. जा तक वह रहता तो व्यवस्था बनी रहती. वह भी बेचारा धनुष के आकार का था. पता नहीं क्या रोग हुआ होगा कि उसकी पीठ संसार के बोझ से या डीटीसी के कामकाज के बोझ से समय से कुछ पहले ही झुक गयी थी. इस कारण उसकी निगाह सदैव नीचे को रहती थी. जब उससे कई बार बसों के आने-जाने के बारे में सवाल किये जाते तो पांच बार किये गए सवालों के उत्तर केवल एक बार में दिया करता था. ऐसा लगता था कि प्रश्न का उत्तर देने के लिए वह और प्रश्नकर्ताओं का इंतजार करता था और जब सब प्रश्नकर्ता इकठ्ठा हो जाते तो सबको एक साथ उत्तर दे देता. तब तक बस भी आजाया करतीं और लोग बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बस में बैठ जाना ही बेहतर समझते. रोज़ एक जैसी प्रक्रिया से गुजरने के बाद ऐसी स्थितियों की धीरे-धीरे आदत ही बन गयी. लेकिन शाम को वह भी टाइम कीपिंग को महँ दार्शनिक कार्ल-मार्क्स के भरोसे छोड़कर अपने घर चला जाया करता था.
बस-व्यवस्था की दूसरी स्थिति ऐसी थी कि यदि बस में सवारियां बहुत कम हों तो चालक द्वय कोई न कोई बहाना बनाकर बस को प्रायः मुनीरका से अगले स्टॉप पर ही रोक देते थे और इंजिन बंद कर दिया करते. लोगों को ऐसा लगता कि जैसे बस में कुछ खराबी आ गयी. ज्यादा पूछताछ करने पर कोई उलटा-सीधा ज़बाव दे देते थे. दो-चार लोग तो कुल होते ही थे, विशेषकर रात के समय, तो मन मारकर बस से उतर कर पैदल ही चल देते थे. शर्म और संकोच अलग से होता था कि वैसे तो क्रान्ति करने चले हैं पर बस ड्राइवर तक को कुछ कह नहीं सकते. शायद इस लोभ से कि उसी मजदूर वर्ग से है, जिससे हमें सहानुभूति है और अंततः यही तो क्रांति में साथ देगा. उसको नाराज़ न करो. अतः सब शांत भाव से सिर नीचा किये, बिना एक दूसरे से बात किये इस प्रकार धीरे-धीरे अपने गंतव्य के लिए चल देते थे जैसे कि श्मशान में कोई मुर्दा जलाकर आ रहे हों.
कभी-कभी कम लोगों को तो ज़बरन भी उतार दिया करते थे और यदि उससे भी काम न चले तो ऐसी कोशिश करते कि जितनी भी सवारियां जेएनयू के परिसर में अन्दर जाने वाली होतीं वे किसी प्रकार स्वयं बाहर ही उतर जाएँ. अतः कुल मिलाकर आपके पास परिसर के बाहर ही बस से उतर कर पैदल चलने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता था. या फिर बहुत हिम्मत दिखाई तो बस वालों से बहस कर ली, थोडा-सा लड़ लिए. खड़ी बोली के असल अक्खडपन और लक्कड़पन का आनंद ले लिया. वैसे ऐसा कभी-कभी ही होता था कि किसी ड्राइवर द्वारा ऐसी भाषा में डांटा जाता कि लगता डांट से अच्छा होता कि वह पिटाई ही कर देता. खैर, शाम के बाद अँधेरा होते ही वैसे भी दो चार लोग ही रह जाते थे तो थोड़ी निरर्थक बहस के बाद पैदल यात्रा का विकल्प ही शेष बचता था. मेरे साथ भी ऐसा कुछ प्रायः होता था और वैसा ही उस दिन भी हुआ. उनकी ही भाषा में बात करने के बावजूद. ड्राइवर बोला कि ‘तम नी समझे कै भाई, कहा न कि गोली होल्लो’ यानी ‘भाई तुम नहीं समझे क्या. कहा नहीं कि गोली की रफ़्तार से निकल लो’. मैंने सोचा कि यदि सतलज हॉस्टल बताया तो ड्राइवर कहेगा कि पास ही है, पैदल निकल जाओ. दूर बताया तो इसको हॉस्टल तक छोड़ने जाना ही पड़ेगा. मुझे पाण्डेय जी द्वारा बताई तरकीब सूझी. जो मैंने पहले भी एक-दो बार आजमाई थी और बहुत कारगर साबित हुई थी. उन्होंने ऐसी हालत से निपटने के लिए एक उपाय बताया था कि यदि ड्राइवर वसंत विहार डिपो या मुनीरका पर ही बस से उतर जाने को कहे, तो उससे कहना कि पूर्वांचल हॉस्टल जाना है. वह फिर मना नहीं करेगा क्योंकि दूर होने के कारण वह आपको वहां अवश्य ले जाएगा. फिर आप रास्ते में अपने हॉस्टल यानी सतलज पर उतर जाना. अतः एक दो बार ऐसा ही हुआ और पाण्डेय जी द्वारा बताई गयी तरकीब काम आई थी. आज भी मैंने वही दोहराया. वैसे भी विश्वविद्यालयों, कालेजों और स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की धोंस और क्रांति प्रायः अपने संस्थानों के अन्दर तक सीमित रहती है और यदि बहुत जोर मारा तो आप-पास के दुकानदारों और रिक्शे चालक आदि तक. बस में भी केवल कैम्पस के अन्दर तक. मैंने भी सोचा कि पहले कैम्पस तक तो चाले बाद में सब देखा जायेगा. हम कुल दो बचे थे. एक मैं और दूसरा मेरा एक ईरानी मित्र. वह तो हालाँकि कह रहा था कि छोड़ो, हम यहाँ से पैदल ही निकल जाते हैं. बहुत दूर भी नहीं है. लेकिन मैं साढ़े बारह रुपये के अपने बसपास का पूरा आनंद लेने के मूड में था. उससे कहा कि तुम चुप रहो. मैं बात करता हूँ. मैंने ड्राइवर से कहा कि हमें पूर्वांचल जाना है. ड्राइवर पूरा घाघ निकला. वह संभवतः पहचान गया. हो सकता है मैंने पहले अपनी तरकीब उसी के साथ आजमाई हो. अतः उसने एक जोर के झटके के साथ गेयर डाला और तुरंत बस दौड़ा दी. रास्ते में गंगा हॉस्टल आते ही मैंने उससे कहा कि रहने दो. अब हम चले जायेंगे. लेकिन वो तो गुस्से में था. बोला कोई बात नहीं. अब तो तू पूर्वांचल ही जायेगा. बिना ठीक से ब्रेक लगाये, बस को मोड़ों पर दौड़ाता हुआ वो चल दिया. दर के मारे दोनों हाथों से हम लोग हैन्डिल कसक पकडे हुए थे. फिर भी झटकों ने हिलाकर रख दिया. कमबख्त सर्दी की रात में 11 बजे पूर्वांचल होटल पर हम दोनों को बस से उतारकर वापस चला गया. मैंने उससे बहुत कहा कि यार गलती हो गयी, मुझे दरअसल सतलज हॉस्टल ही जाना था. चालाकी में ही कहा था. माफ़ करो. किराया भी और ले लो पर वापस ले चलो. यहाँ रात में अब कोई दूसरा साधन नहीं मिलेगा. पर सब अनुनय-विनय व्यर्थ. रात में सर्दी में टहलता हुआ और सच-झूट पर ईरानी दोस्त के भाषण का आनंद लेता हुआ 12 बजे अपने हॉस्टल पहुंचा.    


शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

अथ श्वान कथा

दिल्ली में था तो घर के पीछे के पार्क में काले कुत्ते के दर्शन हो जाते थे. साथ ही उसके मालिक को एक दो गालियां अच्छी और बुरी दोनों मिलाकर मन ही मन दे लेता था, वैसे ही नहीं,  पार्क में कुत्ते को घुमाकर उसे गन्दा करने के कारण. मेरा कोई व्यक्तिगत झगड़ा तो उसके साथ था नहीं. हालाँकि मेरे घर में कुत्ते और उसके परिवार यानी कुते के मालिक के परिवार की आलोचना को लेकर दो राय हो गयीं थीं. मेरी श्रीमती जी उस कुत्ता मालिक को ज़बरदस्त डांटने के मूड में थीं. बस अनुकूल अवसर के इंतजार में थीं. अनुकूल अवसर यानी मैं हाँ कह दूं बस. मैं भी हालाँकि पीछे घटी कुछ घटनाओं के कारण आंशिक रूप से कुत्ता विरोधी हो गया हूँ, पर मैं असमंजस में था और इसलिए भी कि मुझे कुत्ते की सुविधा देखकर उसको पार्क में आने के लिए मना करना अभी कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. यद्यपि मुझे पूरा विश्वास था कि कुत्ता ऐसा बिलकुल नहीं सोचता होगा. वह तो शक्ल से ही पैदायशी बदमाश और अन्य दोपाये-चौपाये जीवों की भांति निगेटिव सोचने वाला-सा लगता था. उसके बारे में मेरी पक्की धरणा थी कि यह मौका मिलने पर कुत्ते की भांति ही काटेगा अवश्य. मेरे मन में कुत्ते को एक नसीहत देने की इच्छा अवश्य घर कर गयी थी, बस अनुकूल अवसर की तलाश थी. अनुकूल अवसर भी जल्द ही आ गया. एक दिन जब मैं कहीं से घूमकर अपने घर वापस आ रहा था तो मैंने देखा कि कुत्ता पार्क में अकेला है. जहाँ तक जा सकती थी, वहां तक नज़र दौड़ाने पर भी मुझे कुत्ते का मालिक अथवा उसका कोई प्रतिनिधि दिखाई नहीं दिया. मैंने सोचा कि यही मौका है जब कुत्ते को कुछ ज़रूरी नसीहतें दी जा सकती हैं. अतः पहले तो मैंने किंचित नकली मुस्कान फेंककर और आँखे मटकाकर कुत्ते को लुभाने का प्रयास किया. थोड़ी देख रुका, पर कुछ नहीं हुआ. कुत्ता कुछ घाघ-सा  लगा. ऐसा लगता था कि ये सब खेल वह पहले ही खेल चुका है और शायद ये सब अनुभव भी उसे पहले से डीएनए में मिल चुके हैं कि किसी के झांसे में कतई नहीं आना. खैर, फिर भी मैंने कोई मौका न गंवाते हुए कुत्ते के सामने दो बिस्किट रख दिए. कुत्ते ने रहस्यमयी दृष्टि के साथ पहले तो मुझे देखा और फिर बिस्किटों को. कुछ देर तक उसकी निगाह बिस्किटों के ऊपर टिकी रही. लेकिन अचानक एक ही झटके में उसने पहले तो बिस्किट सूंघे और फिर वैसे ही छोड़ दिए और मेरी तरफ को टेढ़ा देखकर इस तरह गुर्राने लगा कि चाहूं तो मैं यह मानूं कि वह मुझे ही देखकर गुर्रा रहा है और यदि चाहूं तो कुत्ते के उस एक्शन पर बेनिफिट ऑफ डाउटले लूं. कुत्ते का मूँड भांपकर मैंने बेनिफिट ऑफ डाउटलेना ही बेहतर समझा और कुत्ते की ओर देखकर थोड़ा मुस्कराया. कुत्ता थोड़ी देर के लिए तो कन्फ्यूज़-सा हो गया, पर तुरंत ही संभलकर उसने कुछ इस तरह मेरी ओर देखा कि जैसे मैं उसको बुद्धू बना रहा हूँ कि वैसे तो मैं उसको मन से पसंद तक नहीं करता और अब बिस्किट दे रहा हूँ. कुछ समय गुज़रा पर कुत्ता तो आखिर कुत्ता ही था. बहुत देर तक अपनी राय पर स्थिर रह न सका. संभवतः बिस्किट भी उसे पसंद आ रहे थे. अतः उसने इधर-उधर देखा और फिर सावधानीपूर्वक बिस्किट खाने लगा. जब बिस्किट समाप्त हो गए तो उसने अपनी जीभ थोड़ी लपलपायी और शायद और मिलने की आशा टूटती देख गुस्सा सा होने लगा. बिस्किट खाकर भी कमबख्त को न जाने क्या सूझी कि मेरी ओर पुनः क्रोध में देखने लगा. मैंने भी पुनः आश्वत होने के लिए चारों ओर नज़र दौड़ाई और फिर जोर से अपने हाथ का छाता झट से कुत्ते के मुंह की ओर खोल दिया. फड़-फड़ की ज़ोरदार आवाज़ के साथ छटा खुल गया. कुत्ते ने संभवतः इस प्रकार का एक्शन कभी देखा नहीं होगा और यदि देखा भी होगा तो वह उस समय उसके लिए तैयार नहीं था,  अतः घबरा गया और डरकर बहुत पीछे हट गया. मैं मन ही मन अपनी सफलता पर खुश होकर और कुत्ते की ओर से बेफिक्र होकर घर की ओर चल दिया.
लेकिन यह सोचना ठीक नहीं है कि कुत्ता प्रकरण भारत में ही छूट गया. भौतिक रूप से तो यह सही हो भी सकता है पर अन्य दृष्टियों से तो बिलकुल सही नहीं था. आवश्यक नहीं है कि समस्या किसी जहाज में बैठकर आये. वह आपके साथ अदृश्य रूप से लिपट कर भी चल आ सकती है. एक गीत भी है – ‘लो आगई उनकी याद वो नहीं आये’. तो आ ही गयी यथार्थ में. यहाँ तो याद भी है और साक्षात् उनके प्रतिरूप भी. ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि कोरिया में कुत्ते तो आसानी से दिखाई नहीं देते, पर होते हैं ज़नाब. कहने का आशय यह है कि भारत जैसे नहीं हैं. जो पालतू हैं वे बहुत छोटे हैं. जो बड़े हैं वे बहुत बड़े हैं और मूलतः खाद्य की वस्तू हैं. यद्यपि कुत्तों के लिए रहत की बात यह है कि आजकल इस भांति के खान-पान का चलन विगत दिनों की अपेक्षा कोरिया में भी कम ही हुआ है. संभ्रांत वर्ग श्वान प्रकरण से दूर रहता है. और यदि कुछ लोग खाते भी होंगे तो कभी-कभार और प्रायः होटलों पर. यह सब आमतौर पर नहीं मिलता. मेरे एक कोरियाई मित्र ने बताया था कि एक भारतीय प्रोफेसर ने भी कोरिया में कुत्ते का मांस खाने की इच्छा प्रकट की थी. दरअसल कोरिया के वे प्रोफेसर भारत में रहे थे और उन्होंने भारतीय संस्कृति का- आतिथ्य सत्कार का वह मूलमन्त्र पढ़ा था कि अतिथि देवोभव.
कोरिया के प्रोफेसर जो उनके होस्ट बने, यद्यपि स्वयं इस तरह का खाना नहीं खाते थे पर उन्होंने अपने भारतीय प्रोफेसर की भावना का ध्यान रखते हुए उनको दैविक आनंद की प्राप्ति करायी. यह जानकार मेरी जिज्ञासा दो चीज़ों के लिए बहुत बढ़ गयी. एक तो मैं उन कुत्तों को देखना चाहता था जिनका खाद्य वस्तु के रूप में उपयोग किया जाता है या किया जाता होगा और जिनके एक साथी को भोजन के रूप में हमारे सहकर्मी ने अपने मुखारविंद में आने दिया. दूसरे मैं उन सज्जन और भद्र पुरुष को एक बार ध्यान से देखना चाहता था. अतः मैंने अपने कोरियाई मित्रों से पूछा. इसी प्रसंग में किसी मित्र ने बताया था कि सियोल में ही एक सब्जी मंडी है. वहीं कुछ दूकानें ऐसी भी हैं जिन पर कुत्तों का मांस भी मिलता है. आप वहां जाकर देख सकते हैं कुत्ते भी बकरों की भांति बंधे होंगे. अब कोरिया में सब्जी मंडी है तो पर भारत की तरह तो है. बहुत ही साफ़-सुथरी और व्यवस्थित. सब्जियां भी सुन्दर रूप से सजी हुईं. खुली नहीं बल्कि साफ़ पोलिथिनों में बंद और ताज़ा. कोई मोल-भाव नहीं, सब कुछ पहले से तय. आप उठाइए पैसे दीजिए और ले आइये. कैश भुगतान कीजिए या कार्ड से दीजिए. सब जगह कार्ड रीड करने की मशीनें उपलब्ध होती हैं और अधिकाँश लोग कार्ड का ही उपयोग करते हैं.  एक बात ध्यान देने कि है कि मैं काफी दिनों तक कोरिया में रहा हूँ पर एक भी बार मुझसे किसी दुकानदार ने यह नहीं कहा कि चेंज दीजिए. वे कोरिया की मुद्रा वोन की सबसे छोटी इकाई यानी एक पाई तक वापस करते हैं. हमारे देश के दुकानदारों की तरह माचिस, टॉफी या आपको खांसी हो अथवा न हो पर विक्स की करामाती गोलियां नहीं थमा देते. यहाँ सब्जी के साथ-साथ और बल्कि कहीं-कहीं उससे अधिक तो दूसरी चीज़ें मिलती हैं. ज़ाहिर सी बात है कि जो वस्तुएं किसी न किसी रूप में खायी जाएँगी तो वे बिकेंगी भी तो वहीं आस-पास. कोरिया मांसाहारी देश है. अतः सब्जी के साथ अन्य खाद्य पदार्थ भी बहुतायत में सब्जी मंडियों में ही मिलते हैं. मैं आगे बाधा तो देखा कि सब्जियों की लाइन समाप्त होते ही कुछ दुकानें श्वान केन्द्रित भी है. यानी यदि आपको कुत्ता पसंद है तो कटवा कर ले लीजिये. बकरों की भांति बड़े पिंजड़ों में खड़े रहते हैं अपनी बारी के इंतजार मैं. मैं थोड़ी देर खड़े होकर दो कुत्तों को देखता रहा. कुत्ते भी मेरी ओर देखने लगे जैसे आहट ले रहे हों कि मुझसे कोई खतरा तो नहीं है. मेरे कोरियाई साथी ने मजाक में कहा कि ‘मैं तो खाता नहीं पर लगता है कि शायद आपको पहचानने का प्रयास कर रहे हैं कि कहीं आप उनके परिचित तो नहीं हैं जिन भारतीय प्रोफेसर महोदय ने इनके किसी परिचित का रसास्वादन किया है? मुझे किंचित अफ़सोस-सा हुआ. हालाँकि बात केवल मजाक में ही हो रही थी. मुझे लगने लगा कि कुत्ते दयनीयता की सीमा तक आशान्वित हो रहे हैं और सोच रहे थे कि शायद मैं उन्हें सचमुच बचा ही लूं. लेकिन उनको बचाना मेरे बस में तो था नहीं. मुझे कबीर के दोहे की एक पंक्ति याद आ गयी कि बकरी पाती खात है ताकी काढी खाल.पर कुत्ते तो वे सब नहीं खाते जो कबीर ने बकरियों के खाने के लिए कहा है. इनको किस बात की सजा. फिर मुझे अपने आस-पास के कुत्ते याद आये. जो मुझे अक्सर परेशान करते हैं. उनकी याद आते ही मैं वहां से चल दिया और सोचने लगा कि जो होना है हो. जो करेगा सो भरेगा. ये कुत्ता बने ही क्यों?
अब चिंता की बात यह है कि जबसे मंडी में कुत्ते देखकर आया हूँ दिल्ली के कुत्ते अब सपने मैं आने लगे हैं. कहाँ तो सुन्दर-सुन्दर चीजें. अच्छे-अच्छे नज़ारे. स्वप्न लोक की कल्पनाएँ, सुखद स्मृतियों का सपनों में आना और कहाँ कमबख्त कुत्ते. कुत्ते और सपने ऐसा सोचकर ही अजीब-सा लगता है. कुत्ते और वे भी सपनों में और वे भी भोंकते हुए. हालाँकि एक दो बार ही ऐसा हुआ है. सपने में दो कुत्ते ऊपर की ओर मुंह उठाकर भोंकते हैं और कनखियों से मेरे ऊपर अपने भोंकने के असर का अंदाज़ लगाते हैं और फिर चले जाते हैं. ऐसा दो-तीन दिनों से ही हुआ है. फिर भी चिंतनीय तो है ही कि मेरे साथ ही क्यों हो? किसी से पता करूंगा कि अपने पडौस वाले कुत्ते का कमाल तो नहीं है यह.? इन्टरनेट का ज़माना है. कुछ भी संभव है. नेटवर्किंग के ज़रिये भारतीय कुत्ते ने यहाँ के स्थानीय श्वानों के साथ मिलकर कुछ कलाकारी तो नहीं कर दी. कुत्ता है कुछ भी कर सकता है.

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

चौधरी रामवीर सिंह

जब मैं सन 76 में जे.एन.यू. पढने पहुंचा तो वहां अनेक नये लोगों से मुलाक़ात हुई. इनमें  वैसे तो सभी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे पर कुछ तो ऐसे थे कि उस विलक्षणता की सीमा में भी नहीं आते थे. ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे चौ. रामवीर सिंह. चौ. रामवीर सिंह भारतीय भाषा केंद्र में शोधार्थी थे. उनका विषय था ‘भारतीय नवजागरण की दृष्टि से मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती और मुसद्दस-ए-हाली का आलोचनात्मक अध्ययन. उनके शोध निर्देशक थे गुरुवर प्रो. नामवर सिंह और सह-शोध निर्देशक थे, भारतीय भाषा केंद्र में ही उर्दू के प्रो. एस. आर. किदवई. क्योंकि विषय हिंदी और उर्दू दोनों से ही सम्बंधित था इसलिए एक शोध निर्देशक हिंदी से और एक उर्दू से थे. चौ. रामवीर सिंह को मैंने पहली बार भारतीय भाषा केंद्र के दफ्तर मैं ही देखा. उनका क़द बहुत लम्बा नहीं था पर छोटा भी नहीं था. जिसे ठीक-ठाक कहना चाहिए वैसा ही था. थोड़े छरहरे शरीर के थे इसलिए थोड़े लम्बे ही लगते थे. पर पूरे लम्बे से थोड़े कम. चेहरे पर बड़ी-छोटी दोनों माताओं ने बचपन में मेहबानी की होगी थी. पर माताओं की नाराज़गी भी उनके चेहरे के सौंदर्य में कोई अवरोध पैदा नहीं कर पायी थी. ये निशान सौंदर्य को बढ़ा रहे हों ऐसा भी उस वक़्त नहीं कहा जा सकता था. उन्होंने अलीगढ मुस्लिम विश्विद्यालय से पढाई की थी, अतः उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा प्रायः पहना जाने वाला लिवास ड्रेस की तरह पहन रखा था. शेरवानी और पाजामा. फर्क केवल टोपी का था. चमड़े की काली जूतियाँ और सिर पर सफ़ेद कपडे से बनी टोपी लगा राखी थी, जैसी प्रायः उस समय नेता पहना करते हैं. अब तो नेताओं ने भी टोपी पहनना छोड़ दिया है. लेकिन मुझे विश्वास है कि चाहे चौधरी साहब कहीं भी हों, पर उन्होंने टोपी पहनना नहीं बिलकुल छोड़ा होगा. क्योंकि अपनी पूरी पोशाक में वे सबसे अधिक महत्व टोपी को ही देते थे. वे सबकुछ त्याग सकते थे, पर मूंछे और टोपी तो कदापि नहीं. उनकी अचकन का रंग काला नहीं था बल्कि हलके मटमैले रंग का था. चेहरे पर मूंछें थीं ही जिनको वे पूरा सम्मान देते थे. कुल मिलाकर चौ. रामवीर सिंह पूरे जे.एन.यू. में एक अलग ही व्यक्तित्व लेकर अवतरित हुए थे. इसलिए प्रायः सभी विद्यार्थी चाहे विभाग के हों या विभाग के बाहर के, उनको पहचानते थे. उनकी पूरी पर्सनालिटी ही ऐसी थी. उस समय के किसी विद्यार्थी से आज भी बात करिए तो उनके बारे में अनेक झूठे-सच्चे किस्से आपको बताने लगेगा. लेकिन मेरे इस संस्मरण से ऐसी कोई अपेशा आप न करें. मैं तो वही लिख रहा हूँ जो मैंने देखा, यानी आँखों देखा. खैर, चौधरी रामवीर सिंह एक निहायत ही सज्जन, भारतीय संस्कृति के प्रति प्रतिबद्ध एक जुझारू कार्यकर्ता, ग्रामीण संस्कृति के स्वयं वाहक, राजनीति के प्रदूषण के खिलाफ निरंतर सक्रिय राजनेता यानी एक शानदार और अविस्मरणीय व्यक्तित्व. भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी द्वारा आरम्भ किये गए दो महत्वपूर्ण नारे, जैसे अंग्रेजो भारत छोड़ो और विदेशी सामान का बहिष्कार करो चौधरी अब भी चला रहे थे. इस आन्दोलन में उन्होंने दो और चीजे शामिल कर ली थीं, एक पाश्चात्य सभ्यता और दूसरा अंग्रेजी. वे अंग्रेजी और अंग्रेजियत दोनों के उतने ही विरोधी थे जितना उन्हें होना चाहिए था. उनके इस विरोध के कारण बहुत से विद्यार्थी उनको नापसंद करते थे. उनके रहने का अपना स्टाइल था. मैं तो ठेठ ग्रामीण था. था क्या आज भी हूँ. मुझे भी अंग्रेजी ठीक से नहीं आती थी, विदेशी सामान तो देखा भी नहीं था इसलिए विरोध क्या करता पर, हां करना चाहता था, क्योंकि मैं पहले विरोध कर नहीं पाया था. इसलिए भी रामवीर जी के प्रति लगाव था.
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.ए. हिंदी करके आये थे. संभवतः वहीं पास के ही किसी गाँव के रहने वाले थे. घर पर ठीक-ठाक ज़मीन भी थी. उनके पूरे व्यक्तित्व में एक खास प्रकार का खांटी देशीपन तो था ही. मेस में खाना खाते समय अपने कमरे से देशी घी का दो किलो का डिब्बा साथ लाया करते थे. खूब घी-दूध के शौकीन थे. प्रेमी जीव थे अतः स्वयं भी खाते और जो पास बैठा होता उसको भी खूब घी खिलाते. घी के साथ रोटी खाने के शौक़ीन कभी-कभी भोजन के समय उनके आने का इंतजार भी कर लेते.
पहलवानी का उन्हें बहुत शौक था. मेरे सामने तो नहीं, पर सुना था कि जे.एन.यू. की वेट लिफ्टिंग टीम का वे हिस्सा रहे थे. मैं जब उनसे मिला तो किंचित बीमार ही रहते थे. किसी ने बताया कि जब वे वजन उठा रहे थे तो किसी शरारती छात्र ने उनका फोटो खींचना चाहा. वे फोटो के लिए पोज़ देने लगे. तभी छात्र ने उनसे मुस्कराने के लिए कहा. वे सज्जनता में समझ नहीं पाए कि जब भार उठाये हुए हैं, सांस रोककर रखना है तो मुस्कराने का क्या मतलब. चौ. साहब किंचित मुस्कराए ही थे कि बेलेंस बिगड़ गया, चोटग्रस्त हो गए. परिणामतः भार उठाना बंद हो गया. खाने-पीने पर भी असर पड़ा, अतः कुछ कमज़ोर भी हो गए. मुझे उनसे मिलना अच्छा लगा. इसलिए भी कि हमारी जैसी पृष्ठभूमि के थे. ग्रामीण थे, किसान थे. हमारी जैसी ही भाषा बोलते थे यानी ब्रजभाषा का प्रभाव लिए हुए हिंदी. क्योंकि हमारे क्षेत्र से थे और भारतीय भाषा केंद्र से भी. अतः बहुत से समान बिंदु थे जिनके कारण मेरी चौधरी रामवीर सिंह को जानने में रूचि बढ़ी.
चौधरी रामवीर सिंह के बारे में कैम्पस में अनेक प्रकार की धारणाएं प्रचलित थीं. लोग कहते थे कि वे मदर डेरी का दूध पसंद नहीं करते. वे उसको नकली और बेकार दूध मानते थे. वे चाहते थे कि जे.ऐन.यू. कैम्पस में गाय अथवा भैसों का दूध मिलने की व्यवस्था भी होनी चाहिए. इसीलिए जब चौ. रामवीर ने जे.एन.यू. छात्र-संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा तो विद्यार्थियों ने उनके मेनिफेस्टो में दूध और घी खाकर स्वस्थ्य रहने की बात भी शामिल की. उनके समर्थक विद्यार्थी जिन्होंने उनका प्रचार करने का वादा किया, यहाँ तक घोषणा करते घूमते थे कि यदि चौधरी साहब चुनाव जीत गए तो पूरे कैम्पस की काया-पलट कर देंगे. कैम्पस को गाय और भैंसों से भरवा देंगे. यहां तक कि मदर डेरी पर भी भैंस का असली दूध मिला करेगा. काश ऐसा ही होता. लेकिन चुनाव का जब परिणाम आया तो वैसा ही था जिसका मुझे पूर्ण विश्वास था. चौधरी साहब नीचे से पहले नंबर पर रहे. उन छात्रों के वोट देने पर भी शक हुआ जो उनके साथ रात और दिन घूम-घूम कर प्रचार करते थे. हाँ मैंने अपना वोट चौ. रामवीर सिंह को ही दिया था. महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक में जब हिंदी विभाग खुला तो चौधरी रामवीर सिंह ने भी आवेदन किया. साक्षात्कार देने गए. बाद में पता चला कि विषय विशेषज्ञ के रूप में स्वयं उनके गुरूजी विद्यमान थे. चौधरीजी को अपने गुरुजी से और गुरुजी को अपने शिष्य से न जाने कितनी उम्मीदें थीं कि कुछ भी न हो सका. नियुक्ति डा. रामबक्ष और श्री मनमोहन की हुई. रामवीर को पता चल चुका था. जब साक्षात्कार के बाद भारतीय भाषा केंद्र लौटे तो एक किलो मिठाई का डिब्बा साथ लाये. सब लोगों ने सोचा कि लगता है कि इस बार चौधरी साहब का सेलेक्शन हो ही गया. चौधरी साहब ने उस समय वहां मौजूद सबको बड़े ही प्रेम से रोहतक से लायी मिठाई खिलाई. सबने उसी प्रेमभाव से मिठाई खायी भी. लेकिन जब चौधरी रामवीर ने नियुक्त होने वालों में अपना नाम नहीं बताया तो विश्वास ही नहीं हुआ. हमसब यह मानते थे और विश्वास भी था कि रोहतक उनके लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है. केंद्र और राज्य दोनों में उसदल की सरकार थी जिस दल में चौधरी रामवीर थे. उस समय के गृहमंत्री चौ. चरण सिंह से रामवीर सिंह का परिचय था, यह बात मैं स्वयं जानता था. इसलिए जानता था कि एक बार मैं चौ. रामवीर सिंह के साथ तुगलक रोड स्थित चौ. चरण सिंह के घर गया भी था. यूंही उन्हीं के साथ जिज्ञासावश. विशेषज्ञ रामवीर सिंह को जानते थे. मुझे तो सचमुच विश्वास नहीं हुआ. खैर मिठाई तो खाई जा चुकी थी जिसकी भी नियुक्ति हुई हो. यहाँ तो दोनों अपने मित्र थे. जो हुआ पर इस बात से बहुत ख़ुशी हुई कि रामवीर जी कितने जिंदादिल इंसान हैं की अपनी नियुक्ति नहीं होने पर भी अपने साथियों के नौकरी मिलने पर ख़ुशी मना रहे हैं और अपने पैसे से मिठाई खिला रहे है.
मैं तो आश्वस्त था कि हो न हो एम.डी.यू. रोहतक में उनकी नियुक्ति हो जाएगी. न हो सकी तो मैंने रामवीर जी से इसका कारण जानना चाहा. वे बोले कि ‘सबकुछ ठीक चल रहा था. साक्षात्कार भी अच्छा हुआ. विशेषज्ञ भी खुश एवं संतुष्ट नज़र आ रहे थे. पर संभवतः मेरी टोपी ने मरवा दिया’. मैंने पूछा कि वो कैसे? तो कहने लगे कि ‘अंत में कुलपति चौ. हरद्वारीलाल ने मुझसे मेरी टोपी को लेकर सवाल किया. वे बोले कि टोपी से तो आप नेता लगते हैं, कांग्रेसी नेता लगते हैं. यहाँ भी राजनीती करेंगे क्या? मैंने उत्तर दिया कि ‘सर, डोंट सी माई हेट, सी माई हेड’. फिर भी वे संतुष्ट नहीं हुए और शायद मुझे विरोधी दल का राजनेता मान बैठे. जबकि मैं उन्हीं की पार्टी का हूँ. मैं यह बात भली प्रकार जानता था कि उस समय रामवीर जी को नौकरी की बहुत ही अधिक आवश्यकता थी. उम्र भी हो रही थी और घर पर ज़रुरत भी थी. गाँव वालों की आशाएं अलग थीं. विवाह हो ही चुका था. कई बार तो वे फसल बेचकर दिल्ली में रहने का प्रबंध करके आये थे. शोध के लिए मिलने वाली फेलोशिप समाप्त हो चुकी थी. और भी अनेक परेशानियाँ थीं. पर सब जानते हैं कि नौकरी आवश्यकतानुसार प्रायः नहीं मिलती. भारतीय भाषा केंद्र द्वारा जो विषय उनको गया था, शायद बहुत सोच-समझ कर ही दिया गया होगा पर चौधरी साहब उस विषय पर अपना शोध-कार्य पूरा कर नहीं पाए और अंततः बिना कोई उपाधि लिए ही जे.एन.यू. से चले गए. चौ. रामवीर सिंह के साथ भी वही हुआ जो प्रायः ऐसी पृष्ठभूमि के छात्रों के साथ हुआ करता है. नौकरी नहीं लगी तो उन्होंने राजनीति की ओर रुख किया. कितने सफल हुए इसका ठीक-ठीक ज्ञान मुझे नहीं है. मेरी जानकारी तो बहुत दिनों पहले उनके बाबू जगजीवन राम वाली कांग्रेस की युवा इकाई के हरियाणा के अध्यक्ष बनने तक की थी. बस. बाद मैं क्या हुआ मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं. जहाँ भी होंगे मस्त ही होंगे.

मंगलवार, 28 मार्च 2017

मेरे अध्यापक

प्राइमरी स्कूल के जिन अध्यापकों ने मुझे पढाया उन अध्यापकों की तस्वीर मेरे मन में ठीक उसी प्रकार आज भी अंकित है जैसी उस दौरान थी, जब में पहली से पांचवीं कक्षा तक स्कूल में पढ़ता था. मुझे आज भी अनेक प्रसंगों, विशेष रूप से गाँव से जुड़े प्रसंगों में उन सभी अध्यापकों की बहुत याद आती है जिन्होंने बड़ी मेहनत और लगन से मुझे ही नहीं अपने सभी छात्रों की नीव तैयार की. अब तो खैर पूरा माहौल ही बदल गया है-गाँव का भी और शहर का भी. वे अध्यापक अपने छात्रों को काम ठीक प्रकार न करने और किसी भी गलत बात पर बहुत डांटते थे, बल्कि पिटाई भी करते थे. पर प्यार भी उतना ही करते थे. अच्छा काम करने पर तारीफ़ भी कम नहीं करते थे. सौभाग्य से न तो मुझे कभी डांट पड़ी और न ही पिटाई हुई. मैं तेज़ छात्रों में गिना जाता था. अपनी लघु आकारित काया के कारण मैं मॉनिटर तो कभी नहीं बनाया गया पर कभी-कभी उन विद्यार्थियों की पीठ में मुक्का मारने के लिए मुझे प्रायः कहा जाता जिनको पहाड़ा अथवा गिनती तक ठीक से नहीं आते थे. मेरे छोटे-छोटे हाथ मज़बूत फिसड्डी पीठों पर मुक्का मारते-मारते दुःख जाते और मुर्गा बने एक्सपर्ट छात्र नीचे मुंह किये मुस्कराते रहते. ऐसा ही एक छात्र था रमेश. रमेश हमारे ही मोहल्ले का था. बहुत ही मज़बूत कद काठी का. ऐसा लगता था कि जैसे वह पढ़ने के लिए बना ही नहीं है. उसको कुछ भी याद नहीं हो पाता था. यहाँ तक कि मेरे घूंसे भी. क्योंकि स्कूल समाप्त हो जाने के बाद मुस्कराते हुए हम लोग साथ-साथ घर को जाते. उसने मुक्काबाज़ी का कभी न तो विरोध किया और न ही जिक्र. आपको आश्चर्य होगा जानकर कि रमेश ने अपने फेल होने को कक्षा की संख्या से जोड़ रखा था, अध्यापकजी ने बताया था कि यह तीन वर्ष से तीसरी कक्षा में ही है. उन्होंने यह भी घोषणा कर राखी थी कि क्योंकि मेरा प्रिय रमेश दूसरी कक्षा में दो साल रहकर आया है तो नियमानुसार चौथी कक्षा में चार साल रहने के लिए कटिबद्ध है. पांचवीं में तब जायेगा जब चौथी से निकलेगा. मास्टरजी के विश्वास की लाज रखते हुए रमेश ने चौथी की लक्ष्मण-रेखा कभी पार नहीं की और सीताजी से बिल्कुत उलट चौथी कक्षा से ही सीधे भैंसा बुग्गी हांकने में माहिर हो गया. जो मुक्के उसे पड़ते थे अब वो उन मुक्कों को और भारी बनाकर अपने भैंसे पर मारने लगा. खैर, ये तो बाद की बात है. उस समय तो मैं जब तीसरी कक्षा में पहुंचा तो रमेश, पूरा नाम रमेश चंद्र शर्मा उस पायदान पर पहले से ही मौजूद था. मेरा नाम पहली कक्षा में उम्र बढाकर कुछ आगे करके लिखाया गया था, इसलिए औरों की अपेक्षा मैं आकार-प्रकार में थोड़ा छोटा लगता था. इसलिए सभी अध्यापक मुझ पर थोड़ा ध्यान देते थे. मेरे पिताजी स्वयं तो पढ़े-लिखे थे नहीं, पर उनको मेरी पढाई की बहुत चिंता थी, इसीलिए उन्होंने अंग्रेजी सिखाने के लिए विशेष रूप से एक अध्यापक को घर पर आकर मुझे पढ़ाने की व्यवस्था कर दी थी. हालाँकि मेरी अंग्रेजी फिर भी देशी ही रही.

पांचवीं के मेरे अध्यापक श्री प्रह्लाद शर्मा मुझे सर्वाधिक प्रिय थे. यद्यपि वे दिनभर कुछ बड बुदाते रहते और छात्रों को अक्सर गालियाँ देते रहते. शिष्ट गालियाँ. जैसे ‘तुम्हारे पिताजी का सत्यानाश क्यों नहीं जाता जो तुम जैसे गंवार को पढ़ना चाहते हैं’, ‘उनका तो वंश ही डूब जाना चाहिए जिन्होंने तुन्हारे जैसा कपूत पैदा करके हमारा खून पीने के लिए छोड़ दिया’, ‘पढ़ने से अच्छा है कि कहीं नदी में जाकर कूद जाओ और डूब मरो’. कमबख्त मरते भी नहीं’. इसी तरह की पिताओं को संबोधित गलियां वे कन्याओं को भी दिया करते. एक बार हमारे गाँव के मुखिया की लड़की को उन्होंने काम ठीक से न कर पाने के कारण बड़े ही प्यार से अपने पास बुलाया और धीरे से सिर पर हाथ फिरते हुए बोले कि ‘अपने बाप को जाकर आज बता देना कि उसका सत्यानाश इस कार्तिक तक अवश्य हो जायेगा. तुम्हारे जैसी मूर्ख लड़की पैदा करते हुए उसे लाज नहीं आई’. दुर्भाग्य से भोली-भाली उस लड़की ने ठीक उसी प्रकार शब्दशः सबकुछ अपने पिताजी को जाकर कह दिया. आश्चर्य इस बात का है कि लड़की के पिताजी स्कूल आये और और हेड मास्टर साहब से माफ़ी मांगी. कहा कि आप इस लड़की को थोडा और अधिक समझाइए. मास्टर जी की छवि ही ऐसी थी कि मुखिया तक ने उनकी बात का बिलकुल बुरा नहीं माना. ऐसे अध्यापक और अभिभावक अब कहाँ?  

रविवार, 26 मार्च 2017

फ्लाइट और समय

दूसरी बार 1998 में हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय, सियोल, कोरिया में अध्यापन हेतु मेरा आना हुआ. मैंने एयर इंडिया की फ्लाइट से अपना टिकट बुक कराया. किताबों और कुछ आवश्यक सामान के साथ-साथ अन्य वस्तुओं के रूप में खान-पान की सामग्री भी थी. एक वर्ष के लिए आना था इसलिए बहुत सा सामान ले जाना था. ग़लती ये हुई की एअरपोर्ट जाने से पहले सामान का वजन नहीं किया. इसलिए हड़बड़ी में सामान का कुछ अंदाज-सा करके ही एअरपोर्ट के लिए चल दिया. रास्ते में एयर इंडिया से फोन आया कि फ्लाइट 2 घंटे लेट है. थोडा ही दूर पहुंचा था, अतः घर के लिए वापस लौट लिया. फिर भी सामान को नहीं तौला . थोड़ी देर घर पर आये मेहमानों के साथ बातचीत करके नियत समय पर एअरपोर्ट के लिए पुनः चल दिया और समय पर पहुँच गया. 11 बजे की उड़ान थी पर एक बजे जानी थी. मैं क्योंकि सपरिवार और कुछ मित्रों के साथ एअरपोर्ट पहुंचा था, तो थोड़ा समय मित्र-मिलन और विदाई आदि में लग गया. सोचा कि कुछ समय और बात कर लेते हैं. पता था कि देर हो चुकी है पर फिर भी समय का ध्यान नहीं रहा. खैर, जब दो घंटे शेष रह गए तो अन्दर दाखिल हुआ और एयर इंडिया के काउंटर पर सामान बुक करने और बोर्डिंग पास के लिए पहुंचा. वहां देखा तो काउंटर बंद था. मुझे आश्चर्य हुआ. सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है. दो घंटे अभी फ्लाइट छूटने को हैं तो काउंटर खुला होना चाहिए. मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, लोगों से पूछताछ की. डरा कि कहीं फ्लाइट चली तो नहीं गयी. किसी ने गलत फोन कर दिया हो. दोस्त दुश्मन तो सबके होते ही हैं. मेरे भी थे. उस समय भी थे और आज भी. जल्दी से एयर इंडिया के ऑफिस पहुंचा. तसल्ली हुई यह देखकर कि वहां एक दो अधिकारी विद्यमान थे. कुल मिलाकर तो तीन या चार लोग रहे होंगे पर उनमें एक अधिकारी कुछ अनमने से बैठे हुए थे. शायद वे थके हुए भी थे. जिस प्रकार से निर्लिप्त भाव से मुंह लटकाए हुए बैठे थे उसके आधार पर उनकों उस समय वहां मौजूद लोगों में गिनना बेकार था. मैंने कुछ सज्जन से दिखने वाले एक अधिकारी को अपनी समस्या बताई और अनुरोध किया कि काउंटर पर किसी को भेजें. उन्होंने मेरा चेहरा देखकर न जाने क्या पढ़ लिया कि नसीहत-सी देने लगे. नैतिक उपदेशक का चेहरा बनाते कुछ गुस्से में बोले कि ‘आपको समय से आना चाहिए था. मालूम नहीं था कि काउंटर फ्लाइट के समय से कितने बजे पहले बंद हो जाता है?’ मैंने कहा कि ‘अभी तो फ्लाइट में दो घंटे शेष हैं. 11 बजे की फ्लाइट एक बजे जानी है, दो घंटे तो वैसे ही लेट है. सवारियों को तकलीफ हुई सो अलग से. फिर काउंटर पहले ही बंद क्यों कर दिया गया’. वे बोले कि ‘आपको मालूम है कि पूरी बोर्डिंग समय पर हो चुकी है. आप ही लेट आये हैं. स्वयं लेट आकर भी शिकायत हमारी कर रहे हैं’. मैंने उनसे बहस करने के बजाय अनुरोध करना ही उचित समझा. उनको भी बहस छोड़कर मेरा अनुरोध करना अच्छा लगा. मेरी ओर देखते हुए अपने फोन से किसी अन्य कर्मी को कहा कि वह मेरा बोर्डिंग पास बना दे. मुझसे बोले कि ‘आप काउंटर पर पहुँचिये. मैं कुछ व्यवस्था करता हूँ’. मैंने उनको धन्यवाद कहा और अपना सामान उठाये पुनः काउंटर की ओर चल दिया. काउंटर पर पहुँचा तो देखा कि वहां दो सरदारजी भी अब बोर्डिंग पास के लिए पंक्ति में खड़े थे. अपने सामान को एक्स रे मशीन से निकालते समय मेरी उनसे भेंट हो चुकी थी. सामान का एक्स रे करने में उन्होंने मेरी मदद भी की थी. लेकिन उन दोनों को कहीं और जाना था. शायद पेरिस या लंदन. समय क्योंकि बहुत कम बचा था और एक बहुत बड़ी लाइन लगी दिखाई दे रही थी इमिग्रेशन चेक के लिए तो मेरी घबराहट बढने लगी. अधिकारी का भेजा हुआ जो कर्मचारी काउंटर पर आया वह इस प्रकार भेजे जाने से खुश नहीं था. बहुत कुपित-सा लग रहा था. मुझे लगा कि शायद इसको वो काम करने के लिए कह दिया गया है जो यह नहीं करना चाहता है. अब मुझे क्या पता कि उसकी क्या समस्या रही होगी. मैं तो अपनी ही उलझन में उलझा हुआ था. डर अलग रहा था कि सामान कहीं ज्यादा न निकल आये. घरवालों विशेष रूप से पत्नी और बच्चों ने प्यार से अनेक बहुत-सी खाने की और उपयोगी चीजें साथ में रख दी थीं. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा था कि यदि वजन अधिक हो तो हम बाहर इंतजार कर लेते हैं सामान वापस दे जाना. खैर, कर्मचारी ने सामान बेल्ट पर रखने के लिए कहा. मैंने डरते-डरते अपनी दोनों अटैचियाँ बेल्ट के ऊपर रख दीं. वजन तौलने वाली इलेक्ट्रोनिक मशीन और मेरे दिल की धड़कन की मशीन, दोनों में जैसे होड़-सी लग गयी. सामान तौलने वाली मशीन तो 45 किलो पर जाकर कम्पन के साथ धीरे-धीरे रुक गयी, पर दिल वाली मशीन धीरे-धीरे बढती ही जा रही थी. सज्जन दिख रहे उस कर्मचारी ने मेरी ओर देखा और बेरुखी से बोला कि ‘सर जी, इतना सामान नहीं जा सकता. आपको पता होना चाहिए था कि केवल जहाज में केवल 20 किलो लगेज ले जाने की ही अनुमति है’. मैंने उसको समझाने की, उस कर्मचारी को अपना परिचय और अपनी हालत का हवाला देकर द्रवित करने की अनेक प्रकार से कोशिश की. उसकी सहानुभूति बटोरने के लिए अपने शाकाहारी होने तक की दुहाई दी. बहुत एक्सपर्ट तो नहीं हूँ चेहरा पढने में, पर मुझे लगा कि वह कर्मचारी नाम से शाकाहारी होना चाहिए. इसलिए बोला कि मैं अंडे तक नहीं खाता. कोरिया ऐसा देश है जहाँ शाकाहारी खाना बहुत ही कम मिलता है. इसलिए थोडा खाने का सामान अधिक है. दयावान हो जाओ. कुछ भी असर न होता देख फिर मैंने उसको अपना ट्रम्प कार्ड दिखाया. यानी अध्यापक होने का प्रमाण. इन सभी प्रयासों का उस पर कोई विशेष असर किसी प्रकार पड़ता नहीं दिखा. होता भी कैसे, सामान दोगुने से भी अधिक था. गलती मेरी ही थी, इसमें वो क्या करता? तभी वह फोन पर किसी से बात करने लगा. संभवतः उसके किसी प्रियजन का फोन आया था. दूसरी तरफ से बोलने वाले के द्वारा शायद कोई ख़ुशी की बात सुनाई दे गई होगी, जिसका उसपर साफ़ असर हुआ. चेहरे का अपना थोड़ा हाव-भाव बदलकर बोला कि सरजी, आप क्योंकि प्रोफ़ेसर हैं और मैं अध्यापकों की बहुत इज्जत करता हूँ, अतः आपको 30 किलो तक अलाउड कर सकता हूँ. पर 45 किलो ले जाना तो असम्भव है. आप ऐसा करिए कि दस किलो सामान के रुपये जमा कर दीजिए और मैं अपने अधिकारी से बात करके पांच किलो आपको एक्स्ट्रा ले जाने की व्यवस्था कर दूंगा. मैंने सोचा कि चलो ठीक है. लेकिन जब रुपये पूछे तो उसने बताया कि केवल चार हज़ार. आप चार हज़ार रुपये की रशीद कटवा लीजिये, बस. सुनकर शरीर और मन दोनों का तनाव बढ़ने लगा. दस किलो सामान के चार हज़ार रुपये. मुझे कुछ जंचा नहीं. बहुत ही घाटे का सौदा लगा. समय कम था. मैंने अपने घर वालों को इधर-उधर देखा, पर वे कहीं दिखाई नहीं दिए. विकल्पहीनता की स्थिति में कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मेरी भ्रम की स्थिति देखकर एयर इंडिया के काउंटर पर बैठा वह कर्मचारी बोला कि साहब जो करना है जल्दी कीजिए. काउंटर बंद करना है. मैंने अनुमान लगाया कि दस किलो सामान कुल चार सौ रुपये का है और जायेगा 4000 रुपये में. लेकिन कभी-कभी व्यक्ति के लिए चीज की कीमत से अधिक उसकी उपयोगिता महत्वपूर्ण होती है. मुझे भी उस समय ऐसा ही महसूस हो रहा था. रुपये से ज्यादा सामान प्यारा लग रहा था. उपयोगिता और आवश्यकता दोनों जो थी उसकी. पर फिर भी सोचा कि सामान ही कम कर देता हूँ. मैंने सामान की सील तोड़ी. मोह और निर्मोह की हालत से गुज़रते हुए काफी सारा अतिरिक्त सामान निकाल कर वहां रखे बॉक्स में डाल दिया. घर से तो सामान पत्नी द्वारा व्यवस्थित करके सजाया गया था. जब मैंने वापस बॉक्स में रखा तो उसमें समाये ही नहीं. लगा कि जैसे सामान भी अपनी बेकद्री से नाराज़ हो गया था. बार-बार उलट-पुलट करने पर सामान की हालत भी कबाड़ जैसी हो चुकी थी और मेरी कबाड़ी जैसी. लोग भी मुझे ही घूर रहे थे. हो सकता है न भी घूर रहे हों पर मुझे ऐसा ही लग रहा था कि पूरी दुनिया ही मुझे घूर रही है और मन ही मन मेरी हालत पर मुस्करा रही है. अच्छा ये हुआ कि वहां खड़े एयर इंडिया के दो तीन कर्मचारी मेरी मदद करने के लिए आगे आये और बिखरे जा रहे सामान को सहेजने में मेरी सहायता करने लगे. उनकी मदद से कुछ अतिरिक्त सामान निकालकर मैं दोबारा सील लगवाने गया और आकर कम किया हुआ सामान पुनः बेल्ट पर रख दिया. घनघोर आश्चर्य, कमबख्त अब भी 35 किलो से ज्यादा ही निकला. अब तो मुझे सामान पर और अपने आप, दोनों पर ही गुस्सा आने लगा और गुस्से में ही एयर इंडिया कर्मचारी से बोला कि जो करना है करो भाई. जितना किराया लगाना है लगाओ. पर जल्दी करो. मेरी फ्लाइट भी छूट सकती है. कर्मचारी बहुत अच्छे स्वभाव का निकला. मुझे लगाने लगा कि पहले मैंने उसका आकलन ठीक नहीं किया था. वह मेरी स्थिति भली प्रकार समझ रहा था. लेकिन अपनी सीमाओं में ही तो कुछ मदद कर सकता था. बोला ठीक है. आप बहुत दुखी न हों. केवल 2500 रुपये जमा कर दीजिए. मैं बाकी देखता हूँ. मेरे पास न रुपये थे, न क्रेडिट कार्ड और न घर वालों से संपर्क करने के लिए फोन. क्या करता? थोड़ी देर पहले ही तो रुपये डॉलर में बदलवाये थे. मैंने उससे कहा भी कि दोस्त डॉलर है वही ले लीजिये. पर दोस्त का उत्तर नकारात्मक था. मैंने तो चार हज़ार रुपये देने का मन भी बना लिया. वह 2500 जमा करने के लिए ही कह रहा था. अतः मुझे उसका सुझाव बुरा नहीं लगा था. शायद मेरी हालत पर तरस खाकर बुकिंग क्लर्क का मन भी बदल चुका था. अतः कर्मचारी की बात ही मान लेना मुझे लाभप्रद लगा. सो मान गया. डॉलर को रुपये में पुनः बदलवाने के लिए अपने उन्हीं सरदार साथियों की मदद ली. सामान उन दोनों के हवाले करके दौड़कर रुपये बदलवा लाया. ऑफिस में अन्दर जाकर रशीद भी ले ली. समस्या बन चुका सामान बुक किया जाने लगा. अब बुकिंग क्लर्क को न जाने क्या सूझा कि उसने मुझे पूरा सामान साथ ले जाने की छूट भी दे दी. हो सकता है उसने मेरा हैण्ड बैग देखकर कहा हो. लेकिन मेरे लिए तो अब सामान को पुनः खोलकर, अच्छी तरह रखकर और फिर एक बार दोबारा सील करने के लिए लेजाकर वापस आने की हिम्मत ही नहीं बची थी. सामान बुक हो जाने पर एक दो बार बाहर घरवालों से मिलने के लिए झाँका भी पर घर के लोग दिखाई नहीं दिए. हालाँकि मुझे विश्वास था कि वे सब वहीं कहीं बाहर होंगे. मैं चाहता था कि बचा हुआ सामान घर वालों को दे दूं. लेकिन कुछ नहीं हो सका. मुझे लगा कि मिलने-जुलने का पूरा कोटा मैं पहले ही इस्तेमाल कर चुका हूँ. इसलिए त्यागे गए सामान पर एक एक बार पुनः प्यार भरी दृष्टि डाली. काउंटर पर खड़े कर्मचारियों का मन मेरे प्रति शुरू से ही सहानुभूतिपूर्ण था. अतः वे मेरे पास आये और पुनः बोले कि सर, ये बचा हुआ सामान आप अपने केबिन बेग में डाल लीजिये. इसका वजन कम है. केवल लेपटॉप ही तो है. एक कर्मचारी ने तो मेरा बेग खोलकर जितना संभव था सामान उसमें रख भी दिया. फिर भी पांच किलो आटा शेष रह ही गया. वही ऐसी चीज थी जिसकी कोरिया में सर्वाधिक अवश्यकता थी. अतः लोभ छोड़कर और आटे के बेग को प्यार के साथ निहारते हुए दोनों सरदार साथियों से विदा लेते हुए इमिग्रेशन चेक के लिए चल दिया.
जहाज के उड़ने में अब थोडा ही समय बचा था, पर देखा कि पहले से ही लम्बी लाइन वैसी ही लम्बी है. उसमें अब भी कोई कमी नहीं आई है. जिस गति से इमिग्रेशन हो रहा था, लगा कि यदि मैं नियमानुसार पंक्ति में इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो भी कम से कम दो तो अवश्य ही बजेंगे. फ्लाइट एक बजे की थी. पहले से ही लेट फ्लाइट को एक घंटा और लेट क्यों करेंगे? लेकिन अन्दर ही अन्दर निश्चिन्त भी था कि अब मेरे पास बोर्डिंग पास है और सामान बुक हो चुका है. अबतक तो जहाज में भी लोड भी किया जा चुका होगा, अतः अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि जहाज मुझे बिना लिए चला जाय. हां मेरी वजह से सबको देर अवश्य होगी. मैं पुनः काउंटर पर पहुँच और एयर इंडिया स्टाफ को अपनी समस्या बताई. गनीमत रही कि उनकी समझ में सब आसानी से तुरंत आ गया. एक कर्मचारी ने दूसरे की ओर देखा, उसने कुछ समझाया. दोनों सक्रिया हो गए. एक कर्मचारी दौड़कर इमिग्रेशन फार्म ले आया और दूसरा व्हील चेयर. मेरा माथा ठनक गया. मैंने कहा मजाक क्यों करते हो. सीधी तरह जो हो सके मदद करो, वरना रहने दो. वे बोले ठीक है रहने देते हैं. मैंने सोचा कि लो अब मरे. मेरा दिल बैठने लगा. व्हील चेअर देखी, फिर कर्मचारी को देखा. कर्मचारी बोला कि भीड़ इतनी है कि  सीधी तरह तो सर कुछ हो ही नहीं सकता. लोग शोर मचाएंगे अलग से. कोई चारा नहीं है आपके इस व्हील चेअर पर बैठने के अतिरिक्त. कोई पूछे तो कहिये कि आप अस्वस्थ हैं, बस. बाकी हम पर छोडिये. जो कुछ वहां पिछले एक घंटे से हो रहा था, उससे गुजरने के बाद कोई अच्छे से अच्छा पहलवान भी अस्वस्थ हो सकता था. मैं तो था अदना-सा मास्टर. मुझे सचमुच लगने लगा कि मैं अस्वस्थ हो गया हूँ. मैंने उनके इस सद्विचार के प्रति अपनी सहमति व्यक्त कर दी. जीवन में पहली बार व्हील चेअर पर बैठने का अनुभव साथ में मिल रहा था. मैं मुस्कराते हुए बैठ गया. उन कर्मचारियों ने मेरा सूटकेस इस तरह मेरे ऊपर रख दिया कि व्हील चेअर पर बैठे हुए मेरा केवल चेहरा ही दिखाई दे रहा था. एक लेपटॉप बेग साथ में था, उसको भी सूटकेस पर रख दिया गया. व्हील चेअर पर मैं और मेरा सामान बैठकर इमिग्रेशन के लिए लगी लम्बी लाइन को बिना किसी रोक-टोक के पार करते हुए चल दिए. लोग-बाग़ मेरी ओर देख रहे थे. मैं डर रहा था कि कहीं कोई परिचित न मिल जाए और सोचे कि मुझे अचानक ये हो क्या गया है. इस तरह क्यों ले जाया जा रहा है, आदि-आदि. ठीक उसी समय मुझे अपने वही दोनों सरदार साथी भी दिख गए जिनसे थोड़ी ही देर पहले ही मेरी बात हुई थी और जो निरंतर मेरी मदद करते रहे थे. मैं थोड़ा डरा. सोचने लगा कि मेरी इस हालत को देखकर एअरपोर्ट पर अभी-अभी मित्र बने ये दोनों साथी बहुत दुखी ही होंगे और अवश्य पूछेंगे कि मेरी ये स्थिति कैसे हो गयी? शक भी करेंगे कि जो व्यक्ति अभी दौड़-दौड़ कर दिलेरी के साथ सब काम कर रहा था वो अचानक व्हील चेअर पर कैसे आ गया? मैं चुप रहा. कर्मचारी पहले ही सचेत कर चुके थे कि किसी से रास्ते में कोई बात नहीं करनी. थोडा गंभीर और दुखी चेहरा बनाये रखना. किसी परिचित को तो बिलकुल भी नहीं पहचानना. मैंने ठीक वही किया भी. दोनों सरदारों की ओर देखकर भी नहीं देखा. एयर इंडिया के दोनों कर्मचारी व्हील चेअर को लाइन के बराबर से निकालते हुए इमिग्रेशन काउंटर पर सीधे ले गए. रास्ते में पार्टीशन के लिए लगाई गयीं पेटियों को खोलते जाते और तेज़ी से आगे बढ़ते जाते. जब मैं काउंटर पर पहुंचा तो मेरा पासपोर्ट और इमिग्रेशन फॉर्म वहां बैठी माहिला ने ध्यान से देखा और फिर मेरे चेहरे की ओर. मैं उस महिला की चमकदार आँखों से आँखें न मिला पाया. शायद कुछ गिल्ट सा रहा होगा. लेकिन मुझे लगा कि वो शायद सब-कुछ समझ गयी थी. उसने मुस्कराते हुए मुझे देखा, कुछ सोचा और फिर इमिग्रेशन स्टेम्प लगा दी. मोहर लगने के बाद मैंने कार्मचारी से कहा कि अब तुम लोग जाओ, मैं स्वयं चला जाऊँगा. इस पर कर्मचारी मुस्कराए और बोले मरवाएंगे क्या? जो आदमी अभी-अभी व्हील चेअर पर आया है दौड़ता हुआ जहाज में चढ़ेगा क्या? अब आप शांत बैठे रहिये. ये यात्रा तो आपकी ऐसे ही होगी. आगे से ध्यान रखना. कर्मचारी मुझे जहाज में अन्दर तक छोड़ने ले गया. एयर होस्टेस के हवाले किया. जहाज में अन्दर पहुंचते ही मैं जैसे पुनः स्वस्थ हो गया और अपना सामान उठाकर केबिन में रखने लगा. एयर स्टाफ ने मेरी मदद करनी चाही, पर मेरे मना करने पर मुस्कराते हुए चले गए. सामान रखकर मैं अपनी सीट पर बैठा. तुरंत जहाज का दरवाज़ा बंद हुआ और मैं हांगकांग के लिए उड़ लिया. हांगकांग पहुंचकर एयर होस्टेस ने व्हील चेअर के लिए उद्घोषणा की. पास आकर उसने हंसते हुए पूछा कि सर अब व्हील चेअर की आवश्यकता तो आपको नहीं पड़ेगी, शायद? पूरा रहस्य उसकी इस ‘शायद’ में ही छुपा था. मैं भी मुस्करा दिया. उसको धन्यवाद कहा और केबिन से ब्रीफकेश उठाकर दूसरी फ्लाइट पड़ने के लिए बाहर निकल गया.

शनिवार, 25 मार्च 2017

कोरिया संस्मरण

पहली बार कोरिया मैं नवम्बर 1996 में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन के सन्दर्भ में आया था. मेरे साथ हिंदी के दो अन्य भारतीय प्रोफ़ेसर भी थे. उनमें से एक से मैं पूर्व परिचित नहीं था, दूसरे सज्जन से मैं परिचित नहीं था. कोरिया में हवाई जहाज से उतरते समय ही हमारा आपस में पारिचय हुआ. इंचोन एअरपोर्ट पर कांफ्रेंस के आयोजकों ने हमको संगोष्ठी-स्थल तक ले जाने की व्यवस्था कर रखी थी. सम्मलेन हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय के ग्लोबल कैम्पस, योंगिन में था. वहीं गेस्ट हाउस में हम लोगों के रहने की व्यवस्था भी थी. सौभाग्य कहिये या कुछ और हम तीनों ही शाकाहारी थे. कोरिया मूलत: शाकाहारी देश नहीं है. इतना ही नहीं शाकाहारी लोगों के लिए कोरिया में होटलों खाने की पर्याप्त व्यवस्था भी बहुत कम है. भाषा की दिक्कतों के कारण भी परेशानियाँ होती हैं. खैर ये समस्याएं तो ऐसे सभी देशों में हैं जहाँ अंग्रेजी का चलन नहीं है. यह तो उन देशवासियों के लिए ख़ुशी और गर्व की बात है जो देश अपनी भाषा और संस्कृति को तरजीह देते हैं. भारत में अंग्रेजी और अन्ग्रेज़ियत अधिक हावी है. इसलिए हमारे देश की परिस्थितियां किंचित भिन्न हैं. खैर हम तीनों ने तय किया कि भोजन करते समय कुछ सावधानी बरती जाय. देख-भाल कर खाया जाय. हम तीनों में एक विद्वान् खाने के बारे में सर्वाधिक सचेत थे. हालाँकि खान-पान नितांत व्यक्तिगत मामला है. किसी को भी अन्य के खान-पान पर टिपणी करने से बचना चाहिए. पर साथी सज्जन को तो प्याज़ आदि से भी परहेज़ था. मुझको अपने कोरियाई मित्रों के कारण कोरिया के खाने के बारे में कुछ अनुभव था, अतः मैंने उनसे कहा कि जब आप भोजन करें तो मेरे साथ ही रहें. हम मांसाहारी खाद्य से बचे रहेंगे. ऐसा ही हुआ भी. पर एक दिन डिनर के समय वे किसी से बात करते-करते खिसक लिए. थोड़ी देर बाद हाथ में खाने के सामान से भरी प्लेट लेकर मुस्कराते हुए हाज़िर हो गए. मुझको गोपनीय-सी कुछ जानकारी देने के अंदाज़ में कहने लगे कि बहुत सुन्दर और स्वादिष्ट पुलाव बना है, चलिए, आप भी ले लीजिए. मैंने उनकी प्लेट में रखा पुलाव देखा और चुप रहा. जो मेरी प्लेट में था वह खाता रहा. वे फिर बोले, अरे चलिए भी. मेरे कुछ न कहने और देखने के रुख से उनको कुछ शक हुआ. खाना रोक दिया और बोले क्या बात है? कुछ गड़बड़ है क्या? मैंने कहा कि मित्र सब ठीक है, आप खाइए, मेरे पास पर्याप्त है. लेकिन हमारे साथ खड़ा एक कोरियाई विद्यार्थी भी हमारी बातचीत को रहा था. बातचीत सुनकर उस नादान से रहा न गया. उसने कह ही दिया कि यदि आप शाकाहारी हैं तो ये भोजन मत खाइये. खाद्य का नाम लेना ठीक नहीं है पर अज्ञानता में उस दिव्य पुरुष ने तो यह भी भेद खोल दिया कि इसमें ऐसा कुछ है जो हमारे खाने के लिए नहीं है. इतना सुनते ही साथी का चेहरे का भाव बदल गया. प्लेट रखकर सीधे वाशरूम गए. फिर कमरे चले गए. मैं भी डिनर करने के बाद अपने कमरे में चला गया. रात के लगभग 1 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई. दरवाज़ा खोला तो देखा कि मित्र मुंह लटकाए खड़े हैं. मैंने कहा अन्दर आइये. आये और नाराज़गी में ऐसा मुंह बनाया जैसे कि मुझसे बहुत बड़ा कोई अपराध हो गया है. संयत होकर बोले कि डा. साहब, खूब उलटी कर चुका और लगभग बीस बार ब्रश भी. पर मन नहीं मान रहा. ऐसा लग रहा है कि पेट में अभी भी कुछ शेष है. मैं साथी का चेहरा देखता रहा. जब नहीं रहा गया तो बोला कि यदि आप अपने सभी दांत ब्रश कर-करके तोड़ भी डालें तब भी जो पेट के अन्दर खाना जा चुका है उसको निकालना संभव नहीं है. भूल जाइये और निश्चिन्त होकर सो जाइए. हाँ एक उपाय है बस. बोले क्या? मैंने कहा कि भारत पहुंचकर सीधे हरिद्वार जाना और गंगा में दस डुबकी लगाकर प्रायश्चित कर लेना. हर धर्म में माफ़ी का विधान है. लगा कि मेरी बात से उनको थोड़ी राहत-सी मिली. फिर बाकी दो दिन उन्होंने केवल ब्रेड, दही, और चीज़ खाकर बिताये. अब चीज़ बनाने की प्रक्रिया के बारे में उनको क्या बताता.

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

श्वान प्रकरण

प्रमाण के लिए बता दूँ कि नीचे दी जा रही उनकी तस्वीर जिनके विषय में मैं कुछ जानकारी आपसे शेयर करने जा रहा हूँ, मेरे घर के सामने की है और उसमें दिखाई दे रहा कार का पिछला टायर मेरी पुरानी मारुति जेन कार का है। ये मेरी ओर देख रहे हैं क्योंकि मेरे हाथ में iPad है और जिसके बारे में संभवत: ये जानते हैं। आपको यह जानकर कैसा लगेगा कहना तो मुश्किल है पर एक बात स्पष्ट है कि तस्वीर में दिखाई दे रहे ये सज्जन वैसे नहीं हैं जैसा आप देख रहे हैं या फिर सोच रहे हैं. यानी दिखने में ज़रूर यह कुत्ते जैसे हैं पर निश्चित जानिए कि कुत्ता नहीं है. दरअसल कुत्ते की परंपरागत अवधारणा में और विषय-विशेषज्ञों की दृष्टि में भी किसी कुत्ते में जो गुण होने चाहिए, इनमें शक्ल के अलावा ऐसा कुछ नहीं है. न तो ये चीखते-चिल्लाते है, न भोंकते हैं, न अन्य कुत्तों की भांति किसी खाद्य वस्तु के लिए लालायित रहते हैं, न चाट-विद्या में इनकी कोई रूचि है और न ही काट-विद्या में. किसी पहुंचे हुए संत की भांति रहते हैं और कभी कुत्तों की तरफ मुंह उठाकर भी नहीं देखते. कहाँ छुप जाते हैं नहीं कह सकता, लेकिन इतना सच है कि मेरे घर के सामने उस समय आते हैं जब ब्राउनी नहीं होती (एक फीमेल डॉग का नाम जिससे इनका सैद्धांतिक वैर है और जो इनको देखते ही भम्भोर डालती है. फीमेल डॉग इसलिये कहा कि ब्राउनी की सज्जनता देखकर मुझे उसे कुतिया कहना अच्छा नहीं लगा. माफ़ करें). इनका मौजूदा यह ताज़ा पोज़ मलाई लगी ब्रेड मिलने से पहले का है. ये ब्रेड के लिए लगभग 10 या 15 मिनट तक भी इंतजार कर लेते हैं पर सज्जनता के साथ, किसी लोभ भावना के तहत नहीं. ये कभी नहीं बोलते या मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि मैंने इनकी आवाज़ को कभी नहीं सुना. यहाँ तक कि कालोनी में किसी ने भी इनकी आवाज को नहीं सुना. पता नहीं कुत्तों की भांति बोलते हैं या इंसानों की भांति. कोई कह रहा था कि ये हालत तब बनती है जब किसी कुत्ते के कुत्तागत गुण इन्सानगत हो जाएँ. अब पता चले तो प्रयास भी किया जाय. वर्ना ये ऐसे ही रह जायेंगे ओर वो वैसे ही. खैर जैसी दुनिया बनाने वाले की मर्ज़ी.