बुधवार, 31 मई 2017

मित्र पुराण 2

कभी-कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि जिस पर चाहकर भी आपका वश नहीं रहता। ऐसा ही मेरे और मेरे मित्र के बीच हुआ। दक्षिण कोरिया के सिओल स्थित हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय में अध्यापन हेतु कार्यरत समस्त प्राध्यापकों और गैर शिक्षक कर्मचारियों को विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा विजिटिंग कार्ड छपवाकर दिए जाते हैं. सभी कार्ड्स का रंग बिलकुल एक समान होता है. जैसा प्रायः होता है कि पहली बार मिलते समय विजिटिंग कार्ड देने की परंपरा है। इसलिए जब लोग आपस में मिलते हैं तो विजिटिंग कार्ड्स का आदान-प्रदान होता है। यहाँ हमारे जैसे विदेशी प्राध्यापकों के पास कार्ड तो बहुतायत में होते हैं अपने देश की अपेक्षा मिलने वाले कम, अब कार्ड के लिए समस्या है कि वह जाये कहाँ? मेरे एक सहकर्मी साथी की यही पीड़ा थी। अपना सुन्दर-सा विजिटिंग कार्ड वो दे किसे? एक दिन उसने अपनी वह पीड़ा मुझे बताई और कहा कि ‘देखिये इतने सारे विजिटिंग कार्ड्स हैं। अब हमारे लिए इनका क्या उपयोग है? भारत जाएंगे तो वहाँ भी किसको दें? मेरे लिए सब बेकार हैं।’ मुझे उनका कष्ट देखकर अच्छा नहीं लगा। सोचा कि एक राय दे दूँ और राय होती भी देने के लिए है। राय के साथ एक और महत्वपूर्ण बात जुड़ी है कि भारत में उसे बिन मांगे देने की परंपरा है। अतः परंपरा का निर्वाह करते हुए मैंने अपनी राय मित्र को दे दी। राय देने का परिणाम क्या हुआ और मित्र ने किस तरह उस बिन मांगी राय पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, वह बाद में। पहले राय सुनिए। मैंने कहा कि आप प्रातः जब घर से निकलते हैं तो सबसे पहले अपनी जेब में पर्स या रुपये रखने से भी पहले दस-बीस विजिटिंग कार्ड रख लिया कीजिए। रास्ते में जो भी मिले उसे एक थमा दीजिये। विश्वविद्यालय के सभी विभागों में जाइए और कार्ड का आदान-प्रदान कीजिये। एक ही दुकान से सामान मत खरीदिए। अलग-अलग दुकानों पर जाइए। सबको अपना कार्ड दे दीजिये। क्योंकि मैं पहले से कार्यरत था तो वहाँ की अपनी वरिष्ठता का सम्मान करते हुए उनको बताया कि कोरिया में यदि दुकानदार को बताएं कि आप प्रोफेसर हैं तो बहुत सम्मान करते हैं और कभी-कभी सामान खरीदने पर कुछ छूट भी दे देते हैं। भारत मैं तो ऐसा है नहीं, इसलिए अपने पद के महत्व का आनंद लीजिये। कोई काम न हो तब भी बस या सबवे में कार्ड के लिए ही सही, कभी-कभी यात्रा कीजिये और साथ बैठे व्यक्ति को मुस्कराहट के साथ अपना कार्ड थमा दीजिये।‘ बाकी सुझाव तो मित्र को अच्छे लगे, पर व्यर्थ बस या सबवे की यात्रा का विचार पसंद नहीं आया। कहने लगे कि ‘केवल कार्ड बांटने के लिए मैं बस और सबवे में टिकट के पैसे क्यों खर्च करूँ। आप क्यों नहीं अपने साथ मेरे भी कुछ विजिटिंग कार्ड रख लेते? जहां अपने दें मेरे भी दे दें।‘ मुझे उनकी बात अच्छी लगी पर मज़ाक में गलती से उनसे वह कह गया जो नहीं कहना चाहिए था। कहा कि ‘मैं ऐसा करता हूँ कि कल और परसों मेरी कक्षा नहीं है, अतः नाश्ते के बाद सबवे स्टेशन पर आपके कार्ड लेकर चला जाता हूँ और जहां विज्ञापन करने वाले खड़े रहते हैं वहीं उनकी बगल में खड़े होकर आपके सभी कार्ड दो दिनों में बाँट देता हूँ। समस्या समाप्त।‘ अब राय देने का परिणाम और प्रतिक्रिया सुनिए।  कहते हैं कि कमान से निकला तीर और ज़ुबान से निकली बात कभी वापस नहीं आती। पर ऐसा हुआ नहीं। तीर भी वापस आया और बात भी। तीर नज़रों से वापस आया क्योंकि मित्र ने बहुत ही खतरनाक दिखने वाली निगाहों से मुझे घूरा और मुंह से निकली मेरी बात मित्र के मुखारविंद से और भी अधिक फलीभूत होकर वापस आयी। गुस्से से भरकर इतना तेज़ मुंह खोला कि उसके बाद कई दिनों तक उनको मेरे साथ खाना खाने के लिए मुंह खोलने की आवश्यकता नहीं हुई। अपने बनाए कोपभवन में ही चले गए। बोनस में दो-तीन सप्ताह बात तक नहीं की, वह अलग से। यहाँ तक कि नाश्ते पर साथ जाने का समय भी बदल लिया।

मित्र पुराण

जो जगह मित्र ने मिलने के लिए बताई थी, मैं नियत समय उस जगह पहुंच गया पर मित्र वहाँ दिखाई न दिये। मैं कई बार इधर-उधर नज़र दौड़ायी पर मित्र के दर्शन न हुए। बहुर सर्दी पद रही थी। रात में काफी बर्फ भी पड़ चुकी थी। ठंड इतनी थी कि ठंड के मारे न केवल हाथ ठिठुर रहे थे बल्कि पैरों की अंगुलियाँ भी लगभग सुन्न हो रही थीं। मित्र से मिलने के इंतज़ार में यह सब हो रहा था वरना वातानुकूलित संकाय भवन में अंदर जाकर गर्मी का आनंद लेता। तभी मेरी नज़र एक थमलानुमा मोटी-सी चीज़ पर गयी जो लगभग उतने ही मोटे हाथ से मुझे कुछ संकेत जैसा करने का प्रयास कर रही थी, हालांकि थमलानुमा चीज़ का वह भारी हाथ वजनदार कपड़ों और कपड़ों के टाइट होने के कारण ठीक तरह से उठ नहीं पा रहा था। फिर भी थमला काफी टेढ़ा होकर मुझे अपनी ओर बुलाने का प्रयास कर रहा था। मैंने पहले भी उस थमलानुमा चीज़ को देखा था, लेकिन तब उसमें कुछ हलचल न थी। रही भी हो तो मैंने ध्यान न दिया होगा। अब अपरिचित वस्तु थी तो मुझे क्यों उसमें रुचि हो सकती थी भला? वैसे भी पूरा मुंह मफ़लर से ढका हुआ था। सिर पर भारी-सी टोपी थी और उस टोपी पर भी उनके ओवरकोट की कैप। चश्मा अलग से लगा रखा था। मैं तो अपने मित्र से मिलने गया था, उन्हीं मित्र से जिनका सुबह-सुबह फोन आया था और उन्होंने उसी जगह मिलने के लिए मुझे बुलाया था जहां मैं उनकी तलाश कर रहा था। तलाश कर रहा था मित्र की और मिला थमला। कैसे पहचानता? मित्र असल में काफी दूर रहते थे, यानी मेरे घर से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर। यह जगह जहां मिलना तय हुआ था, मेरे घर के बिलकुल समीप थी। मित्र ने यही बड़ी कृपा की थी कि मुझे बुलाने के वजाय स्वयं मिलने आ गये थे। खैर, उस बेहद सर्दी भरे दिन के मौसम में इशारा अनदेखा करना उचित न था। अतः उस वस्तु के पास गया। वस्तु भी धीरे-धीरे खिसकती हुई मेरे समीप आने का प्रयास करने लगी। अभी थोड़ी देर पहले ही बस उसको उतारकर गयी थी। लेकिन मुझे क्या पता था कि मित्र ही रूप बदल कर आए हैं। जब बहुत निकट पहुँच गया तो उनको पहचान पाया। कद तो छोटा था ही। भारी कपड़ों के कारण और भी छोटा हो गया लगता था। ठंड से बचने के लिए एहतियातन उन्होंने अपने शरीर के अनुपात से बहुत ज़्यादा कपड़े पहन रखे थे। बिना किंचित देर किए मित्र ने शिकायत की कि दो बार इधर से निकल गए और मुझे पहचाना तक नहीं । मैं हाथ से इशारा भी कर रहा था। मैं कुछ नहीं बोला। केवल उनको देखकर मुस्कराया। मुझे मुस्कराता देख वे भी मुस्कराइए। प्रेम से अपना भारी हाथ मिलाने के लिए वस्त्रों से बाहर निकालने का प्रयास किया पर ठंड के डर से कहिए या कपड़ों के प्रभाव से, वह हाथ बाहर न निकला। दरअसल ठंड से बचने के लिए बहुत ही भारी और मोटे चमड़े के बने दस्ताने मित्र ने हाथों में पहन रखे थे। मैंने दस्ताने की अंगुली या अंगूठा जो भी मिला उसको ही ऊपर से स्पर्श करके हाथ मिलाने की रस्म निभाई। हम धीरे-धीरे चलते हुए प्राध्यापकों के बैठने के लिए बने कक्ष की ओर गए। उस समय इत्तिफाक़ से कमरे में कोई नहीं था। नहीं तो मित्र के कपड़ों को ज़रूर गिनता। मित्र ने सहज भाव से अपने गरम कपड़े निकालकर एक कोने में इस निमित्त खड़े स्टेंड पर टांग दिये, जिनमें एक स्वेटर, एक कोट और एक आदमक़द ओवरकोट शामिल था। ओवरकोट इतना बड़ा था कि स्लीपिंग सूट के अभाव में उसे ओढ़कर सोया जा सकता था। मैंने ठीक से ध्यान नहीं दिया, हो सकता है वह स्लीपिंग सूट ही रहा हो जिसको मित्र ने कलाकारी के साथ ओवरकोट बनाकर पहना हो। ऐसे कार्यों में मित्र निपुण थे। मैं तो क्योंकि सात समुंदर पार उनसे मिलकर ही इतना खुश था कि कपड़ों पर ध्यान न गया था। उनसे मिलकर उनके आकार-प्रकार से आतंकित भी अब न था। अंततः मैंने पूछ ही लिया कि बंधु इतने कपड़े लादने का क्या मतलब? कोई कायदे का ठंड निवारक-वस्त्र खरीद लीजिये। आजकल बहुत पतले और हल्के, साथ ही ठंड से बचाने वाले सुंदर-सुंदर वस्त्र आ गए हैं। कोई अच्छी-सी जैकेट ही ले लीजिये। बोले व्यर्थ भाषण न दो। इतने महंगे कपड़े खरीदने का औचित्य? भारत में तो सब बेकार हो जाएंगे। यहां के लिए ये काफी हैं। इस समाज में कपड़ों पर कोई ध्यान नहीं देता। नए आए हो, कुछ ही दिनों में धीरे-धीरे सब समझ जाओगे। कक्षा में अभी देर है, चलो, चाय पीने चलते हैं। कपड़ों के बिना अब मित्र बहुत कमजोर लग रहे थे, पर चाल तेज़ हो गयी थी। ये बात अलग है कि चाय और एक पैकेट बिस्किट के पैसे मैंने ही दिये। क्योंकि आदतन अपनी जेब तो मित्र कमरे में ही छोड़ आए थे।