कल मैं अपने एक पुराने मित्र के घर गया था तो एक बहुत पुराना टीवी सेट दिखाई दिया. उसे देखकर
मुझे आरम्भ में देखे अनेक तरह के टीवी सेट याद आ गए. आमतौर से सभी ब्लेक एंड
व्हाइट में हुआ करते थे 1982 में एसियन गेम्स में रंगीन समाचार प्रसारित किये जाने
तक. कुछ आरंभिक टीवी सेट तो शटर लगे केस के अन्दर रखे होते थे और उस पर भी एक सुन्दर
कपडे का कवर रखा होता था. टीवी, रेडियो,
फ्रिज, टेलीफोन, मोटर साइकिल-स्कूटर आदि वालों के पडौसियों से अच्छे सम्बन्ध हुआ
करते थे. दूरदर्शन के आरंभिक विकास की चर्चा चली तो वह दौर याद आया जब दूरदर्शन पर
पहली बार सीरियल आना शुरू हुए थे. जहाँ तक मेरी जानकारी है उस समय के सबसे पोपुलर
प्रोग्राम ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ हुआ करते थे. गाँव में टेलीविजन जा ही चुका था और
मेरे पिताजी ने ‘रामायण’ देखने के लिए मुझसे टीवी मंगवाया था. इस निमित्त मै अपने पिताजी
की सेवार्थ 14 इंच का ब्लेक एंड व्हाइट टीवी सेट खरीदकर ले गया था. घर के ऊपर एक ऊँचा-सा
एंटीना लगाया गया. सिग्नल अच्छा आए इस कारण एंटीना इतना ऊँचा लगाया गया था कि उसको
तीन ओर से रारों द्वारा बाँधा गया था. उस एंटीना की आकृति कपड़े सुखाने के लिए
घरों में आजकल बहुत पोपुलर होते जा रहे जहाजनुमा हेंगर की तरह होती थी. हवा के तेज
प्रवाह से कहिए या बंदरों की कृपा से उस एंटीना का एन एंगेल की दिशा अक्सर बदल
जाती थी. उन दिनों आज की भांति 24 घंटे
के कार्यक्रम तो आते नहीं थे. रामायण, महाभारत, फिल्म अथवा चित्रहार आदि ही अधिकांशतः
देखे जाते थे. उस एंटीना की एक खासियत थी कि जब भी कोई कार्यक्रम देखते उससे थोड़ी
देर पहले छत पर जाकर एंटीना की दिशा को पिक्चर क्वालिटी के हिसाब से दाएँ या बाएँ
घुमाया जाता. यह काम घर या पड़ौस का कोई वीर बालक को ही सौंपा जाता. वह वीरबालक बड़े
उत्साह से दौड़ता हुआ छत पर जाता और एंटीना की दिशा को अपेक्षित दिशा में धीरे-से घुमाता.
नीचे बैठे दर्शक बरामदे में खड़े एक और बालक को सन्देश देते कि ‘अभी थोड़ा और, अभी
थोड़ा और, ज़रा-सा और बस-बस-बस. ऊपर गया हुआ बालक नीचे उतरने से पहले पूछ लेता कि हो
गया ठीक? पिक्चर ठीक है अब? ऐसा अधिकांशतः सब जगह किया जाता. यहाँ तक कि शहरों में
भी आंधी या बन्दर कृपा से अक्सर ऐसी-ही स्थिति पैदा हो जाती. धन्य हो केबिल और दिस
एंटीना का कि समस्या का स्थायी हल निकल आया.
बुधवार, 21 नवंबर 2018
शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018
सुबह की चाय
आज घर में सुबह-सुबह छ बजे चाय बनाते समय पता चला कि चाय की पत्ती ख़त्म हो गयी है. अब क्या करें. पड़ौस गाँव की तरह ऐसा है नहीं कि चाय की पत्ती, नमक, हल्दी, जीरा, या थोड़ी चीनी आदि आवश्यकता पड़ने पर मांग लिया जाय. हो सकता है कि मांगने पर पड़ौसी दे भी दें पर छवि का क्या होगा. बहुत से काम तो कमबख्त यह छवि ही नहीं करने देती. ध्यान रहे कि छवि घर में किसी का नाम नहीं नहीं है. 'इमेज' के लिए है. आजकल हालत यह है कि 'इमेज ' नहीं है तो कोई मेज उसकी भरपाई नहीं कर सकती. चाहे कितनी भी महँगी क्यों न हो. हैं तो अव्वल दर्जे के बदमाश पर कमबख्त छवि बिगड़ जाय इस कारण ठीक से बदमाशी भी नहीं कर सकते. सड़क-चौराहे पर खड़े होकर कुछ खा नहीं सकते. किसी ने देख लिया तो क्या होगा. गयी इमेज. बहुत मन करता है कि सड़क किनारे खड़े किसी छोले-कुलचे वाले से गर्म-गर्म एक पत्ता बनवाकर वहीं खड़े होकर खाया जाए जहाँ और अनेक सामान्य जन खा रहे हैं ताकि छोले खाते-खाते छोले ख़त्म होने पर कहा जा सके कि 'थोड़े और छोले देना भाई', पर नहीं. चाहे सब सामान ठंडा ही क्यों न हो जाय पर किसी से मंगवाकर कमरा बंद करके छुपकर ही खायेंगे. इमेज का सवाल है. कोई कहेगा कि 'देखिये, कैसे आदमी हैं. छोला-कुलचा खा रहे हैं. जरा इमेज का तो ध्यान रखना चाहिए' जैसे छोला कुलचा न होकर कोई बम हो गया..
खैर छोडिये, मैं तो चाय-पत्ती की बात कर रहा था और सोच रहा था कि हमें पहले से ही कुछ सावधानी रखनी चाहिए ताकि ऐसी स्थिति न आये कि अचानक कोई ज़रूरो सामान घर में ख़त्म हो गया. तभी मुझे पुराना चुटकुलानुमा एक वाकया याद आया जो इस तरह है;
डीटीसी की बस में एक लड़का चढ़ा और उसने कंडक्टर से दो टिकेट मांगे. कंडक्टर को वैसे तो लड़के के मांगने पर दो टिकिट दे देने चाहिए लेकिन यदि वह ऐसा करता तो उसकी उस भारतीय 'इमेज' का क्या होता जिसके अनुसार कोई भी भारतीय किसी से पास गुजरने वाले को भी बिना सवाल-ज़वाब किये जाने ही नहीं देता. भले ही उससे चाहे दूर-दूर का भी ?उसका कोई सम्बन्ध न हो. इसलिए कंडक्टर ने पलटकर पूछ ही लिया कि "दो टिकिट तुम्हें क्यों चाहिय्र? तुम तो अकेले हो."
"एक कहीं खो गया तो?" लड़के ने कहा.
इस पाकर कंडक्टर ने पुनः कहा कि "खो तो दोनों सकते है फिर?"
लड़का भी कहाँ चूकने वाला था. तुरंत बोला कि "मेरे पास बसपास भी तो है. वो कब काम आएगा.?" और मुस्करा दिया.
कंडक्टर को खुद को संभालना मुश्किल हो गया. हिम्मत करके बोला कि "बड़ी सावधानी बरत रहे हो, कहाँ के हो भाई?"
वैसे तो यह तनिक लम्बा सिलसिला है पर कुछ अपरिहार्य कारणवश आगे नहीं लिख सकता. चाय की पत्ती और एतियातन दूध-चीनी लेने जा रहा हूँ. शुभ-प्रभात मित्रो..
खैर छोडिये, मैं तो चाय-पत्ती की बात कर रहा था और सोच रहा था कि हमें पहले से ही कुछ सावधानी रखनी चाहिए ताकि ऐसी स्थिति न आये कि अचानक कोई ज़रूरो सामान घर में ख़त्म हो गया. तभी मुझे पुराना चुटकुलानुमा एक वाकया याद आया जो इस तरह है;
डीटीसी की बस में एक लड़का चढ़ा और उसने कंडक्टर से दो टिकेट मांगे. कंडक्टर को वैसे तो लड़के के मांगने पर दो टिकिट दे देने चाहिए लेकिन यदि वह ऐसा करता तो उसकी उस भारतीय 'इमेज' का क्या होता जिसके अनुसार कोई भी भारतीय किसी से पास गुजरने वाले को भी बिना सवाल-ज़वाब किये जाने ही नहीं देता. भले ही उससे चाहे दूर-दूर का भी ?उसका कोई सम्बन्ध न हो. इसलिए कंडक्टर ने पलटकर पूछ ही लिया कि "दो टिकिट तुम्हें क्यों चाहिय्र? तुम तो अकेले हो."
"एक कहीं खो गया तो?" लड़के ने कहा.
इस पाकर कंडक्टर ने पुनः कहा कि "खो तो दोनों सकते है फिर?"
लड़का भी कहाँ चूकने वाला था. तुरंत बोला कि "मेरे पास बसपास भी तो है. वो कब काम आएगा.?" और मुस्करा दिया.
कंडक्टर को खुद को संभालना मुश्किल हो गया. हिम्मत करके बोला कि "बड़ी सावधानी बरत रहे हो, कहाँ के हो भाई?"
वैसे तो यह तनिक लम्बा सिलसिला है पर कुछ अपरिहार्य कारणवश आगे नहीं लिख सकता. चाय की पत्ती और एतियातन दूध-चीनी लेने जा रहा हूँ. शुभ-प्रभात मित्रो..
मंगलवार, 29 मई 2018
कामवाली का काम
कामवाली कई दिन से घर का काम करने नहीं आई. पहले जब
किसी दिन नहीं आती थी तो फोन कर देती थी. हालाँकि फोन करते समय आमतौर पर उसके दो
बहाने होते थे. एक बहाना होता था कि ‘मेरी तबियत ख़राब है’. दूसरा बहाना होता था कि ‘मेरी बेटी की तबियत ख़राब है’. जब वह अपनी तबियत ख़राब बताती है तो उसका स्वर बदलकर
स्वस्थ व्यक्ति से बीमार व्यक्ति के स्वर में बदल जाता है. थोड़ी कराहट जुड़ जाती है
और आवाज़ में हल्का कम्पन-सा आ जाता है. लेकिन जब वह अपनी बेटी की तबियत ख़राब होने
की बात करती है तब उसकी आवाज़ में अचानक बहुत सारा विश्वास और मजबूती आ जाती है.
कुछ इस प्रकार कि मैं किसी तरह भी यह न कह सकूं कि ‘अरे बेटी बीमार है तो दवाई दिलवाकर आ जाओ’. उसकी अपनी बीमारी भी दो तरह की होती है, एक कि ‘मेरा पेट ख़राब है. दूसरा ‘मेरे सिर में बहुत दर्द है और दर्द के मारे मेरा सिर
फटा जा रहा है’. ये ऐसी
बीमारी है कि दोनों ही बीमारियों का पता लगाना मेरे जैसे साधारण बुद्धि वाले किसी
व्यक्ति के लिए संभव नहीं. खैर, जब किसी भी कारण से काम पर न आने के बारे में कामवाली
का फोन आ जाता है तो मैं पहले दुखी और फिर निश्चिन्त हो जाता हूँ कि अब वह नहीं
आएगी तो मैं कुछ अधिक समय तक आराम कर सकता हूँ. क्योंकि जबतक कामवाली घर में रहती
है, लगातार
यह लगा रहता है कि अब क्या तोड़ेगी, अब क्या गिराएगी? सफाई कहाँ करेगी और कहाँ छोड़ेगी आदि आदि. ऐसा भी होता
है कि वह अक्सर किसी न किसी बात पर नाराज़ होकर घर से आती है तो उसका व्यव्हार
बिलकुल बदला हुआ होता है. वैसे वह अब अपनी नाराज़गी कहाँ और कैसे दूर करे? तो उसका क्रोध अधिकांशतः किचिन में बर्तनों और घर के
दरवाज़ों पर उतरता है. कामवाली के अनमनेपन का शिकार होकर लकड़ी के दरवाज़े तो कम आवाज़
करते हैं पर स्टील के दरवाज़े इतनी आवाज़ करते है कि घर सिर पर उठा लेते हैं.
दरवाज़ों के खुलने और बंद होने तथा बर्तनों के धोये जाने के कामवाली के तरीके से
मैं अनुमान लगा लेता हूँ कि उसका आज का मूड कैसा है. उस दिन मैं सोच-समझकर उससे
किसी काम के लिए कहता हूँ. ऐसे अवसरों पर कामवाली कुछ अधिक टेक्नीकल हो जाती है और
ज़रा-सा अतिरिक्त काम बताते ही नियम बताने लगती है यानी कुछ अलिखित नियम-कायदे जो
शायद सभी कामवालियों ने मिलकर बनाये होंगे. जैसे मैंने एक बार उससे कहा कि जब तुम
झाड़ू लगाती ही हो तो दीवार के कोनों को भी साफ़ कर दिया करो. वह तुरंत उत्तर देती
है कि यह अतिरिक्त काम है. शोकेस, बुक सेल्व, मेज, सोफे किचिन स्लेव, गैस चूल्हा, डाइनिंग टेबिल, सेन्ट्रल टेबिल, टीवी ट्रॉली और खिड़की की जाली आदि को
कपड़े या फिर झाड़ू से साफ़ करना अलग से पैसे की अपेक्षा करता है. उसके सिद्धांत में
शामिल है कि चाय पिएगी पर बनाएगी नहीं’. नियम के प्रावधान के अनुसार चाय पीने के बाद अपने
बर्तनों के साथ केवल चाय बनाने का बर्तन साफ़ किया जा सकता है और कुछ नहीं. यदि साथ
में और बर्तन हैं तो उसकी मर्ज़ी से साफ़ होगे. उन्हें साफ़ किये जाने की बहुत
अपेक्षा अष्टमी से न करें. घर को साफ़ करने का उसका अपना तरीका है. सुबह-सुबह घर
में अन्दर आते ही वह सबसे पहले हिदायत देने के अंदाज़ में कहती है कि पीछे बाहर का
दरवाज़ा खुला है कि नहीं. चाहे द्वार पहले से खुला न हो पर वह पूछती अवश्य है.
हलांकि वह स्वयं दरवाज़ा खोल सकती है पर स्वयं कभी नहीं खोलती और न ही खोलना चाहती, शायद इसका भी कोई कारण हो. झाड़ू लगाने की शुरुआत वह
प्रायः घर के बीच वाले कमरे से करती है. उसके बाद किचिन में जाती है और पानी की
टंकी चलाकर लगभग दस या बीस सेकेण्ड तक अपना सीधा हाथ टोंटी के नीचे लगाकर पानी
गिरती रहती है. फिर दूसरा हाथ पानी के नीचे लगाये रखती है. उसके बाद किचिन में
झाड़ू लगाती है. तत्पश्चात अष्टमी (नाम) बाहर वाले कमरे में झाड़ू लगाती है. सबसे
अंत में वह अन्दर वाले यानी मुख्य बेडरूम में जाकर झाड़ू लगाती है. मैं उस समय
अखबार पढ़ रहा होता हूँ. इस बीच अष्टमी मेरे पास आकर जानना चाहती है कि मुख्य बातें
अख़बार में क्या हैं. मैं एक या दो प्रमुख समाचार उसकी रूचि के हिसाब से अष्टमी को
बता देता हूँ. उसका घर मेरे घर से लगभग दो किलोमीटर तो अवश्य होगा. रास्ते में
अपने साथ आने वाली कामवालियों से सुनी हुई कोई न कोई खबर वह मुझे बताती है और
जानना चाहती है कि अख़बार ने वो खबर छापी है कि नहीं. जब उसको पता चलता है कि नहीं
छापी है तो दुखी हो जाती है पर पता चलने पर कि खबर छपी है तो बहुत खुश होती है. एक
बात मुझे अष्टमी की बहुत प्रभावित करती है कि वह घर में पौंछा बहुत शानदार लगाती
है. बहुत ही कलात्मकता के साथ. उसके इस काम में एक रिदम रहती है. जिस दिन अष्टमी
मन घर में पोंछा लगाने का नहीं होता तो वह अपना चेहरा पीड़ित व्यक्ति की भांति लटका
लेती हैं. ऐसी स्थिति में वह काम करने की गति को बहुत धीमा कर देती है और सवाल
ज्यादा करती है. कभी कभी बिजली को और कभी किसी रिश्तेदार के घर जाने को वह पोंछा न
लगाने के लिए बहाना बनाती है. कभी-कभी वह पोंछा लगाने के बदले आराम करना पसंद करती
है और लगभग आधा घंटे के लिए कमरे में लेट जाती है. एक उसकी बहुत अच्छी आदत है कि
वह लेट कम ही होती है. ……झाड़ू लगाने में उसका उतना इंटरेस्ट नहीं होता.
गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018
मित्र का अधिकार
मेरे साथी प्रोफ़ेसर इस बात से बड़े परेशान थे कि बिना उपयोग करने पर भी बिल
क्यों देना पड़ता है. ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं है कि जो जितना वाशिंग मशीन का उपयोग
करे उतना बिल दे. मैंने कहा मैं तो पिछले छः माह से इस अपार्टमेंट में रहता हूँ. मैंने
कभी अपने कपडे वहां नहीं धोये. मेरे फ्लेट में मुझसे पहले रहने वाला सज्जन व्यक्ति
वाशिंग मशीन छोड़ गया था. मैं उसी का उपयोग करता हूँ. मुझे तो यह भी नहीं पता कि
वाशिंग मशीनें आखिर हैं कहाँ? कभी ऐसा सोचा ही नहीं कि बिल आता किस प्रकार है.
अपनी अज्ञानता पर मुझे कमतरी का अहसास हुआ. खैर एक दिन मालूम हो गया कि मेरे साथी
ने अपने हिस्से के बिजली-पानी के बिल का प्रबंध किस तरह कर लिया था. हुआ यह कि एक
दिन जब मैं कक्षा लेकर आ रहा था तो दूर से दिखाई पड़ा कि मित्र तेज़ी से एक गैलरी
में चले जा रहे हैं. मुझे जिज्ञासा हुई कि आखिर ये उधर जल्दी-जल्दी क्यों जा रहे
हैं? उधर तो किसी का अपार्टमेंट भी नहीं है. मैं खुद कभी उस तरफ नहीं गया था. विस्तार
से जानने की जिज्ञासा हुई और यह भी कि मित्र को इतनी जल्दी उधर दिखाई क्या दे गया.
अतः थोड़ी देर रुककर उनकी प्रतीक्षा करने लगा. बहुत देर नहीं हुई. लगभग दो मिनट में
ही मित्र उधर से लौट आये. लेकिन गए खली हाथ थे और आते समय भरे हाथ. दरअसल उनके हाथ
में एक छोटा-सा टब था. मैंने ध्यान से देखा कि उस टब मैं एक बनियान, दो कच्छे, एक
रूमाल और एक तौलिया था. मैंने पूछा कि आप ये इतनी महत्वपूर्ण सामग्री कहाँ से ला
रहे हैं? कहने लगे कि वाशिंग मशीन में कपड़े धोकर ला रहा हूँ. मैंने कहा कपड़े?
हालाँकि थे वे कपड़े ही, पर मेरा दिल उनको उस रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि
पांच कपड़ों को भी वाशिंग मशीन के हवाले कर दिया जाए. मैंने कहा कहाँ रखी गयी हैं वाशिंग
मशीनें? और सुना था ड्रायर भी हैं अलग से. कहने लगे आपसे पूछता तो आप तो बताते
नहीं. मैंने अपनी पडौसी एक चीनी महिला को परसों कपड़े धोकर लाते हुए देखा था. उससे
ही पूछ लिया. बहुत सज्जन थी. मुझको ले जाकर उसने वह जगह दिखाई जहाँ वाशिंग मशीनें
और ड्रायर रखे हुए हैं. उन पर सभी निर्देश क्योंकि कोरिया भाषा में हैं, चीनी महिला
ने मुझे संकेतों में समझाने की कोशिश तो की लेकिन मैं समझ नहीं पाया. फिर भी
अनुमान से आज पहले प्रयोग के तौर पर अपने कपड़े वाशिंग मशीन में धो लाया. मैंने कहा
कि अनुमान से क्या अभिप्राय? कहने लगे कि साबुन, लिक्विड या पाउडर डालने के तीन कॉलम
बने हैं. मेरे पास पाउडर या लिक्विड तो था नहीं, किसी का पाउडर वहां रखा हुआ था, मैंने
अनुमान से एक तरफ उसी में से लेकर थोड़ा-सा पाउडर डाल दिया और मशीन चला दी. समय
अवश्य अधिक लगा, पर कपड़े अच्छी तरह धुल गए. मैंने समय के बारे में पूछा तो मित्र
ने बताया कि कुल दो घंटे लगे. मेरी रूचि वाशिंग मशीन में तो नहीं थी पर उस जगह को
देखने में अवश्य थी, जहाँ ये उपकरण लगे हुए थे. सोचा कि मित्र की खोज है देख लूं.
संभव है कभी ज़रुरत पड़ जाए. जब गया तो देखा कि सचमुच वहां पांच अत्याधुनिक वाशिंग
मशीनें और दो अच्छे ड्रायर रखे हुए थे. सब का आकर बहुत बड़ा था. कमसे कम दस किलो
कपड़े एक साथ धोये जा सकते थे. मैंने उस मशीन को भी देखा जिसमें मित्रे अपने कच्छे-बनियान
धोकर लाये थे. उस मशीन का साबुन डालने वाला हिस्सा खोलकर देखा तो विचित्र किन्तु
सत्य जैसी स्थिति हो गयी. यानी मित्र ने पडौसी के पाउडर से निकालकर जितना उस मशीन
में डाला था, सब सुरक्षित था. हाँ साथी के कपडे ज़रूर धुल गए थे. मैंने साथी की ओर
देखा तो मुस्कराने लगे. बोले कि चलो अनुभव तो हुआ और कपडे भी धुल गए. धीरे-धीरे और
भी सीख जाऊँगा. अपने हिस्से के बिजली पानी का उपयोग तो कर ही लूँगा जो मेरा अधिकार
है. पता चला कि आजकल अधिकार के लिए सप्ताह में तीन या चार बार कपड़े धोकर ला रहे
हैं. बार-बार दौड़ भाग करते हैं अलग से. धन्य है अधिकार की मादकता का सुख.
बुधवार, 24 जनवरी 2018
अथ बिल्ली कथा
कुछ लोग कुत्ता न पालकर बिल्ली पालते हैं.
एक बार में अपने मित्र के रिश्तेदार के घर गया जिनके यहाँ एक बिल्ली सकुटुम्ब रहती
थी. गिन तो मैं नहीं सका लेकिन मेरा अनुमान है कि कुलमिलाकर पूरा कुनबा छ-सात का
तो रहा होगा. हमारे जाने से और बार-बार बिल्लियों के दस्तक देने से घर के मालिक
असहज महसूस कर रहे थे. मैं बिल्लियों के कारण असहज अनुभव कर रहा था. मेरे मित्र हम
दोनों के की असहजता के कारण असहज हो रहे थे. निष्कर्षतः सब असहज थे केवल घर की
मालकिन के यानी दोस्त के मित्र की पत्नी के, जिनके कारण बिल्लियाँ घर में अबतक थीं. दोस्त के
मित्र का नाम कबीर था जिनकी उम्र लगभग 55 वर्ष के आसपास रही होगी. वापस लौटते समय
मित्र ने रास्ते में बताया कि कबीर साहब किसी समय भयंकर बिल्ली विरोधी थे. लेकिन
इनकी पत्नी को न जाने कहाँ से प्रेरणा मिली कि ये अपने मायके से एक बिल्ली ले आयीं.
वस्तुतः यह शादी का किंचित विलंब से ही सही पर सही समय पर उत्पन्न हुआ ‘आफ्टर
इफेक्ट’ था. कारण यह था कि जब कई साल के बाद भी घर में कोई संतान न हुई तो मित्र
की घरवाली ने प्राणी-पालन में मन लगाया. मित्र आखिर कैसे, क्यों और कब तक विरोध
करते. अंततः पत्नी की बेरहम इच्छा के आगे उनको समझौता करना पड़ा. पत्नी पर तो उनका
कोई दबाब न चला, पर अपने दिल पर पत्थर रखकर अपने ऊपर तो दबाब कम से कम बना ही सकते
थे. सो उन्होंने बना लिया. इतना कहकर दोस्त चुप हो गया. शायद आगे वाकया या तो उसको
पता नहीं था या मैं उसको सुनाने के लिए उपयुक्त पात्र नहीं था. अतः मैंने भी न
पूछा. लेकिन दोस्त द्वारा मिली इस जानकारी से मेरे अंदर एक जिज्ञासा बलवती हो गयी
कि यदि संभव हो पाए तो दोस्त के मित्र से एक बार और मिला जाय. शीघ्र ही संभावना
बनी तो मुलाक़ात हो ही गयी. बात-बात में पता चला कि बिल्ली-चर्चा दोस्त की दुखती रग
है. लेकिन इससे क्या? अगर रग है और दुखती रग है तो उसे और दुखाने में हरज ही क्या
है? यही दस्तूर भी है. किसी ने कहा भी है कि कुछ खास जानना हो या किसी को चिढाना
हो तो उसकी दुखती रग पर हाथ रख दो. अतः मैंने ईमानदारी से अधिक जानने के लिए ही राग
को छू दिया. जानने पर प्रस्तुत जानकारी मिली जिसमें मित्र के ज्ञान की छाप मौजूद
थी. आप भी सुनिए- अनेक कमियां गिनाने के बात अचानक कुछ यद् आ जाने पर कबीर साहब ने
अपनी सबसे ज़िम्मेदार बिल्ली को बुलाया. उन्होंने धीरे से उसके कान में न जाने क्या
कहा कि वह बोलने लगी. अविश्वसनीय पर उस बोलती बिल्ली ने दुनिया की सभी बिल्लियों का
प्रतिनिधित्व करते हुए बताया कि बिल्ली की अनेक विशेषताएँ हैं। सबसे बड़ी विशेषता
तो यह है कि बिल्ली का सबसे पारिवारिक संबंध हैं। वह रिश्ता इतना मजबूती का है कि वह
सबकी मौसी है। चाहे उसका कोई राजा हो या न हो, लेकिन फिर भी बिल्ली बिन राजा की
रानी है, भले ही चाहे वह खूब
सयानी ही क्यों न हो? बिल्ली इतनी लोकप्रिय है कि बिल्ली के नाम पर कैटवॉक होता है
जिसको मशहूर मॉडेल्स सम्पन्न करते हैं। यानी अपनी चाल से भी बिल्ली अनुकरणीय है।
बिल्ली की आँखें बहुत मार्के की होती हैं इसलिए बिल्ली के नाम पर ‘कैटस आई’ रखा गया है जिसकी विशेषता है
कि वह रात में भी चमकती हैं। बिल्ली प्राणियों में सबसे स्मार्ट होती है और इसीलिए
किसी को यदि स्मार्ट कहना हो तो हम कहते हैं, बड़े कैट हो रहे हो? क्या बात है? हाय कैट। बिल्ली ने चूहों की बड़ी-बड़ी समस्यायेँ सुलझाई
हैं। उनमें से सबसे बड़ी समस्या चूहों के लिए यह थी कि बिल्ली के गले में घंटी कौन
बाँधेगा, इसका समाधान भी आखिर
में बिल्ली ने ही निकाला और आसानी से अपना गला चूहों के सामने कर दिया कि ये लो मेरे
प्यारे दोस्तो, ये लो मेरा गला और निडर होकर बांधो मेरे गले में घंटी। मैं कुछ भी नहीं
करूंगी. चुपचाप अपने गले में आपकी घंटी बंधवा लूंगी. भले ही मुझे चाहे जो तकलीफ़
क्यों न हो. मैं चाहती हूँ कि जब भी मैं इधर से गुज़रूँ, तो मेरे आने का तुमको पहले से ही पता चल जाय। तुम मानसिक
रूप से तैयार हो जाओ। हो सकता है कि अपने बचाव की तैयारी करो और इधर-उधर भागो।
इससे तुम्हारा स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। मैं तो फिर भी किसी तरह अपना काम चला ही
लूँगी, लेकिन तुम्हारे स्वास्थ्य की
ज़िम्मेदारी तो मेरी भी बनती ही है। आखिर पीढ़ियों से हमारा आपसी संबंध है। इस
पुराने संबंध का निर्वाह मैं हर कीमत पर करूंगी। मेरे ही बारे में अक्सर कहा जाता
है कि चूहों की रखवाली बिल्ली, अब उन मूर्खों को कौन बताए कि मैं नहीं तो और कौन
आपकी रखवाली करेगा? मैं तुमको अच्छी तरह जानती हूँ, तुम्हारी नस-नस पहचानती हूँ, खून की तो बात क्या हड्डी तक का हाल जानती हूँ। मुझसे अधिक
तुम्हें कौन जानता है। मैंने चाहे जितने भी चूहे खाये हों, पर ज़रा बताना कि ऐसा
काम करने के बाद भी मेरे अलावा कोई और धार्मिक-यात्रा करने गया था। मैं ही तुमसब
के कल्याण के लिए अनेक कष्ट सहन करते हुए तीर्थयात्रा पर गयी। कुत्ते को देखो। कभी
तुमने सुना है उसके बारे में। सब बुराई करते हैं। कहते हैं, चल कुत्ते, आया है कुत्ता कहीं का। लोगों
ने तो उसके साथ यह तक किया कि धोखा देकर
उसकी जात भी पता कर ली. क्या आवश्यकता थी इसकी. क्या मिला लोगों को कुत्ते
की जाति पता करके. बेचारे को धोखा देकर केवल और वह भी दो पैसे की खली केवल हँडिया
देकर उसकी जात भी पहचान ली गयी। ऐसी गोपनीय बात जिसको वह पीढ़ियों से अपने अन्दर
छिपाए हुए था, लोगों ने उसको इतने सस्ते में जान लिया. धोखा किया सरासर उसके साथ.
लेकिन फिर भी वह वफादारी करता है. मूर्ख जो ठहरा. मेरी तरह चालाक नहीं है. बेचारा
धोबी के घर भी गया तो वहां भी, न घर का रहा न घाट का। कितना वफादार होता है फिर भी
दुत्कारा जाता है। मुझे देखो, मेरे बारे में ऐसी कोई बात नहीं है। मेरी वफादारी का न तो कोई
उदाहरण दिया जाता है, न ही मेरा मज़ाक उड़ाया जाता है। हाँ, केवल धार्मिक मामलों में ही मुझे टोंट
मारा गया था, पर मैंने उसके बाद अबतक बहुत ध्यान रखा है। मैं अब उन ममलों से दूर
रहती हूँ. पूर्णत: शाकाहारी हो गयी हूँ। अहिंसावादी हूँ और सबसे बड़ी बात यह है कि मैं
प्रेम की पुजारन हूँ। बिल्ले के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती, क्योकि इस भद्र
समाज ने जो मूलतः पुरुष प्रधान है, सब बातें केवल मुझे कष्ट पहुँचाने लिए ही कही
हैं और मेरे बारे में हकीक़त से परे जाकर मनमानी झूटी-सच्ची कहानियाँ बनाई हैं। यदि
ऐसा नहीं है तो क्यों नहीं कभी किसी ने घंटी जैसी खतरनाक और भारी वस्तू बिल्ले के
गले में बांधने का सुझाव दिया. आजतक मैंने नहीं सुना कि किसी ने बिल्ला, कुत्ता या
भेड़िया के गले में घंटी बाँधने की हिम्मत की हो? यहाँ तक कि शेर के भी नहीं जो कि हमारा
ही पूर्वज है. हमें बताया गया है और हम भी ऐसा मानते हैं कि हम उसकी प्रजाति के
हैं. इसीलिए हम उसका बहुत आदर करते हैं. तुम तो मुझे यह भी बताओ कि क्यों नहीं
बिल्ला कभी हज जैसी पवित्र यात्रा पर गया। उससे तो कोई शिकायत नहीं, फिर मुझसे ही क्यों? मैं तो आखिर गयी भी और ताना
भी आजतक मुझे ही मारा जाता है. ये सब बातें स्वयं बिल्ली से सुनकर मैं उनको आपको
बताने चल दिया. .......
सोमवार, 12 जून 2017
हफ्स और हबीब
कोरिया प्रवास के
दौरान जब मैं सुबह-शाम खेल के मैदान में घूमने गया तो एक दिन वहां अफगानी जैसा
दिखने वाला व्यक्ति घूमते हुए दिखाई दिया. मेरा ध्यान उस आदमी पर इसलिए गया कि मुझे
वह जिज्ञासा से घूर रहा था. यहाँ तक कि घूमते-घूमते मुझे ध्यान से देखने के लिए ही
बीच-बीच में थोडा रुक भी जाता. फील्ड चौकोर था और घूमने का ट्रैक गोलाकार. अतः फील्ड के
कोनों में उसे रुकने का बहाना भी मिल जाता. जब
घूमता-घूमता मैं उसके बराबर से निकलता, वह बिलकुल अनजान-सा होकर मेरी तरफ कनखियों से देखता. फिर तेज़ी से कदम रखता हुआ
मेरे बराबर से आगे निकलने का प्रयास करता, कुछ इस तरह कि मुझे उसकी
गतिविधि पर किसी प्रकार का कोई शक भी न हो. शक करने का हालांकि कोई कारण भी नहीं
बनता था क्योंकि ऐसा अनेक बार होता था जब घूमते-घूमते कई लोग इस तरह रुक-रुक कर
टहला करते थे और इस प्रक्रिया में कभी आगे निकल जाते तो कभी पीछे छूट जाते. पर
मैंने धीरे-धीरे महसूस किया कि वह लड़का जैसे मेरे आस-पास ही रहने का प्रयास कर रहा
था. वरना रुकने के बाद जैसे ही मैं उसके पास से आगे जा रहा होता था वह अपनी कनखियों
से मुझे ही क्यों घूरता हुआ लगता. कई वार तो ऐसा
भी हुआ कि जैसे ही मैं चलते-चलते उसके बराबर से गुज़रा तो वह मेरे आगे निकलते ही
पुनः चल दिया. पहले तो मैंने उसपर कोई ध्यान न दिया, क्योंकि न तो मैं उसे जानता
था और किसी भी कारण से न ही मेरे पास उसपर या उसकी गतिविधियों पर शक करने का कोई आधार
था. सच पूछा जाय तो उसकी कोई आवश्यकता थी भी नहीं थी. रोज़ लोग टहलते ही रहते थे. मैं
उस दिन कुछ ज़यादा देर फील्ड में रहा गया. लगभग एक घंटे तक. जब मैं टहलने के बाद अपने अपार्टमेंट की ओर जाने लगा तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह लड़का वहीं एक बेंच
पर बैठा हुआ था, जो सुस्ताने के लिए ग्राउंड में दोनों ओर रखी हुई थीं. वह लगातार
मुझे इस तरह देख रहा था जैसे कि पहचानने का प्रयास कर रहा हो. लड़का देखने में बहुत गोरा था
और उसके चेहरे पर बहुत हल्की-सी दाढ़ी थी. चेहरा
गोलाकार था और कद बहुत लंबा नहीं था. वह
अनौपचारिक पोशाक में था पर वह स्पोर्ट्स ड्रेस नहीं थी. हाँ, स्पोर्ट्स के ब्रांडेड जूते अवश्य पहने हुए था. उसकी ड्रेस से वह देखने में किसी अच्छे परिवार का लगता था. बातचीत हुई नहीं थी, इसलिए यह कह पाना कठिन था कि
वह पढ़ा-लिखा कितना है. इन सब जिज्ञासाओं के बीच मैंने उसके साथ बातचीत करके उसके
बारे में जानने का मन बनाया. और उसके निकट गया तो उसने स्वयं ही मुझसे बात करने की पहल की। उसने अपना नाम हबीब बताया और यह भी
कि वह पाकिस्तान का रहने वाला है। मैंने अपना परिचय दिया और साथ में अपना विजिटिंग कार्ड भी, जो इत्तफाक से उस
समय मेरे पर्स में था. उस लड़के को देखकर लग रहा था कि वह कहीं कड़ी मेहनत वाली नौकरी
करता होगा. मैंने देखा कि वह मेरे विजिटिंग कार्ड को बड़े ध्यान से पढ़ रहा था और पढ़ते-पढ़ते
उसके चहरे का रंग भी तेज़ी से बदलता जा रहा था. यह कुछ क्षणों के अंतराल में ही हुआ
होगा कि वह तुरंत ही व्यवस्थित होकर मुस्कराया और बोला कि ‘ओह, तो आप हिंदुस्तान से
हैं. मैंने समझा था कि आप पाकिस्तान से हैं.’ खैर, चलिये, आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। मुझे
उसकी प्रतिक्रिया जानकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उसके पहले भी न जाने क्यों, कई लोग इसी
प्रकार मुझे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ब्राजील, नेपाल, स्पेन आदि का समझने की भूल
कर चुके थे. मुझे अपना अंतर्राष्ट्रीयकरण किये जाने पर अच्छा भी लगता था और
आश्चर्य भी होता था. उस पाकिस्तानी व्यक्ति ने भी ऐसा ही कुछ सोचा होगा जैसा मैंने
उसके अफगानी होने के बारे में सोचा था। हम दोनों ही गलत निकले। लेकिन फर्क केवल यह
था कि मुझे उसके अफगानी न होने पर कोई दुख या आश्चर्य नहीं हुआ जबकि उसको मेरे
पाकिस्तानी न होने पर कुछ ऐसा हुआ जो उसके चहरे के भावों से पता चलता था पर वह बता
नहीं रहा था। खैर, जब उसने मुझसे कहा कि ‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई’ तो मैंने मज़ाक में कहा कि ‘सचमुच खुशी हुई या सिर्फ कहने के लिए?’ इस पर वह बहुत ज़ोर से हंसा और बोला कि ‘आप जो समझें’।
सामान्य परिचय के बाद शिष्टाचारवश मैंने उसे चाय ऑफर
की। किंचित संकोच के बाद वह तैयार हो गया, लेकिन मेरे अपार्टमेंट में नहीं, विश्वविद्यालय
कैंटीन में। कमरे चलने में वह हिचक रहा था। मैंने भी बहुत आग्रह नहीं किया। पहली
बार मिल रहा था तो मुझे भी बहुत आग्रह करने की आवश्यकता नहीं महसूस हुई। वैसे भी
मेरे लिए वो और उसके लिए लिए मैं आपस में अजनबी ही थे। उसको मैंने विश्वविद्यालय के कैंटीन में ले जाकर चाय पिलाई और बातचीत की। मैंने यह भी पूछा कि वह मुझसे क्यों मिलना चाहता है? जसने अजीब-सी बात बताई। बोला कि 'मैं यहाँ किसी पाकिस्तानी से मिलना चाहता था। पता चला था कि एक पाकिस्तानी अध्यापक इस विश्वविद्यालय में रिसर्च के
लिए आए हैं। मैं उनको और उनके बारे में कुछ नहीं जानता। बस सुना ही है। आपको देखा
तो ऐसा लगा कि आप पाकिस्तान से हैं।‘ मैंने पूछा कि मुझे देखकर आपको कैसे लगा कि मैं पाकिस्तानी
हूँ. क्या खास है मेरे चेहरे में?’ वह चुप रहा। फिर मैंने दोबारा पूछा तो बोला कि आपका चेहरा
पाकिस्तानी इसलिए लगता है कि आप दाढ़ी और मूंछ रखते हैं। इस देश में ज़्यादातर
पाकिस्तानी मूंछ रखते हैं और हिंदुस्तानी नहीं रखते हैं।‘ मुझे उसकी बात में थोड़ी-थोड़ी
सच्चाई लगी। क्योंकि कुछ कोरेयाई विद्यार्थी भी मुझसे पूछते थे कि मैं पाकिस्तानी
हूँ या हिंदुस्तानी? इसका कारण
संभवतः मूंछ ही रहा होगा। कैसी अजीब बात है? खैर, उस पाकिस्तानी के प्रति मेरे
मन में रूचि बढ़ने लगी। वह बातें बहुत शानदार करता था। उसको हिन्दी नहीं आती थी।
उर्दू भी नहीं आती थी। केवल ऐसी भाषा बोल रहा था जो पंजाबी जैसी थी. हालांकि वह
स्वात का रहने वाला था। उसी ने मुझे बताया कि स्वात बहुत सुंदर जगह है। मौसम बहुत
अच्छा है और प्रायः ठंड रहती है। उसने तो यहाँ तक कहा कि ‘स्वात आपके कश्मीर से भी अधिक
सुंदर है।‘ उसके मुंह से ऐसा सुनकर अजीब-सा लगा. हम तो कश्मीर को स्वर्ग कहते हैं, पर हबीब? मैंने
मजाक में उससे यूं ही कहा कि हिन्दुस्तानी ही क्यों ज़यादर पाकिस्तानी भी विदेशों
मूंछ नहीं रखते हैं. उस लड़के के चेहरे पर भी मूंछें नहीं थीं. हम मूंछ नहीं तो
मूंछ की बात अवश्य रखते हैं. वह जोर से हंसा और बोला आप अच्छी बातें करते हैं. थोड़ी
ही देर में हबीब से ढेर साड़ी बातें हो गयीं. पता चला कि उसकी जिंदगी बहुत व्यस्त
है। वह अधिक पढ़ा लिखा नहीं है। उसको अंग्रेजी भी ठीक से नहीं आती है। शब्दों का
उच्चारण बहुत खराब करता है। अशुद्ध भी बोलता है। वाक्य सही से नहीं बना पाता। फिर
भी वह कई साल से कोरिया में रहता
है और किसी प्राइवेट कंपनी में काम करता है। हबीब ने यह भी बताया कि वह विवाहित है
और उसकी पत्नी कोरियाई है। आगे बातचीत के दौरान यह भी मालूम हुआ कि उसकी पत्नी
डॉक्टर है और एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत है। उसने मुझे अपने घर बुलाने के लिए
कहा और यह भी कि यदि कोरिया में कहीं कोई काम पड़े तो वह मदद करेगा. वह कोरियाई
बहुत अच्छी बोल लेता था. बीच में किसी से फोन पर बात करते हुए उसको सुना. मैंने हबीब को धन्यवाद कहा और उसे
बाहर तक छोड़ आया। वह चला गया तथा पुनः आने के लिए भी कह गया। हबीब अगले दो-तीन दिन
नहीं आया। अब मुझे उससे मिलने की इच्छा होने लगी। मैंने उसको फोन किया। लेकिन वह फोन
पर नहीं मिला। फोन शायद बंद था। कोरेयाई भाषा में कोई संदेश आ रहा था। मैं कोरेयाई
संदेश नहीं समझ सका। फोन करने के दो दिन बाद हबीब का फोन आया। बोला कि दूसरे शहर में
किसी काम के सिलसिले में गया था। उसने मेरे पास मिलने आने के लिए कहा. अगले दिन
हफ़्स में आया। लेकिन मेरे टहलने के बाद। मैंने पूछा कि ‘तुम नियमित नहीं टहलते हो’। हबीब बोला कि ‘बिलकुल नहीं’। कभी-कभी समय मिलने पर ही
टहल पाता हूँ. नौकरी के बाद समय ही कहाँ
मिलता है कि टहलूं भी........आगे ....
बुधवार, 31 मई 2017
मित्र पुराण 2
कभी-कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि जिस पर चाहकर भी आपका वश नहीं रहता। ऐसा ही मेरे और मेरे मित्र के बीच हुआ। दक्षिण कोरिया के सिओल स्थित हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय में अध्यापन हेतु कार्यरत समस्त प्राध्यापकों और गैर शिक्षक कर्मचारियों को विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा विजिटिंग कार्ड छपवाकर दिए जाते हैं. सभी कार्ड्स का रंग बिलकुल एक समान होता है. जैसा प्रायः होता है कि पहली बार मिलते समय विजिटिंग कार्ड देने की परंपरा है। इसलिए जब लोग आपस में मिलते हैं तो विजिटिंग कार्ड्स का आदान-प्रदान होता है। यहाँ हमारे जैसे विदेशी प्राध्यापकों के पास कार्ड तो बहुतायत में होते हैं अपने देश की अपेक्षा मिलने वाले कम, अब कार्ड के लिए समस्या है कि वह जाये कहाँ? मेरे एक सहकर्मी साथी की यही पीड़ा थी। अपना सुन्दर-सा विजिटिंग कार्ड वो दे किसे? एक दिन उसने अपनी वह पीड़ा मुझे बताई और कहा कि ‘देखिये इतने सारे विजिटिंग कार्ड्स हैं। अब हमारे लिए इनका क्या उपयोग है? भारत जाएंगे तो वहाँ भी किसको दें? मेरे लिए सब बेकार हैं।’ मुझे उनका कष्ट देखकर अच्छा नहीं लगा। सोचा कि एक राय दे दूँ और राय होती भी देने के लिए है। राय के साथ एक और महत्वपूर्ण बात जुड़ी है कि भारत में उसे बिन मांगे देने की परंपरा है। अतः परंपरा का निर्वाह करते हुए मैंने अपनी राय मित्र को दे दी। राय देने का परिणाम क्या हुआ और मित्र ने किस तरह उस बिन मांगी राय पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, वह बाद में। पहले राय सुनिए। मैंने कहा कि आप प्रातः जब घर से निकलते हैं तो सबसे पहले अपनी जेब में पर्स या रुपये रखने से भी पहले दस-बीस विजिटिंग कार्ड रख लिया कीजिए। रास्ते में जो भी मिले उसे एक थमा दीजिये। विश्वविद्यालय के सभी विभागों में जाइए और कार्ड का आदान-प्रदान कीजिये। एक ही दुकान से सामान मत खरीदिए। अलग-अलग दुकानों पर जाइए। सबको अपना कार्ड दे दीजिये। क्योंकि मैं पहले से कार्यरत था तो वहाँ की अपनी वरिष्ठता का सम्मान करते हुए उनको बताया कि कोरिया में यदि दुकानदार को बताएं कि आप प्रोफेसर हैं तो बहुत सम्मान करते हैं और कभी-कभी सामान खरीदने पर कुछ छूट भी दे देते हैं। भारत मैं तो ऐसा है नहीं, इसलिए अपने पद के महत्व का आनंद लीजिये। कोई काम न हो तब भी बस या सबवे में कार्ड के लिए ही सही, कभी-कभी यात्रा कीजिये और साथ बैठे व्यक्ति को मुस्कराहट के साथ अपना कार्ड थमा दीजिये।‘ बाकी सुझाव तो मित्र को अच्छे लगे, पर व्यर्थ बस या सबवे की यात्रा का विचार पसंद नहीं आया। कहने लगे कि ‘केवल कार्ड बांटने के लिए मैं बस और सबवे में टिकट के पैसे क्यों खर्च करूँ। आप क्यों नहीं अपने साथ मेरे भी कुछ विजिटिंग कार्ड रख लेते? जहां अपने दें मेरे भी दे दें।‘ मुझे उनकी बात अच्छी लगी पर मज़ाक में गलती से उनसे वह कह गया जो नहीं कहना चाहिए था। कहा कि ‘मैं ऐसा करता हूँ कि कल और परसों मेरी कक्षा नहीं है, अतः नाश्ते के बाद सबवे स्टेशन पर आपके कार्ड लेकर चला जाता हूँ और जहां विज्ञापन करने वाले खड़े रहते हैं वहीं उनकी बगल में खड़े होकर आपके सभी कार्ड दो दिनों में बाँट देता हूँ। समस्या समाप्त।‘ अब राय देने का परिणाम और प्रतिक्रिया सुनिए। कहते हैं कि कमान से निकला तीर और ज़ुबान से निकली बात कभी वापस नहीं आती। पर ऐसा हुआ नहीं। तीर भी वापस आया और बात भी। तीर नज़रों से वापस आया क्योंकि मित्र ने बहुत ही खतरनाक दिखने वाली निगाहों से मुझे घूरा और मुंह से निकली मेरी बात मित्र के मुखारविंद से और भी अधिक फलीभूत होकर वापस आयी। गुस्से से भरकर इतना तेज़ मुंह खोला कि उसके बाद कई दिनों तक उनको मेरे साथ खाना खाने के लिए मुंह खोलने की आवश्यकता नहीं हुई। अपने बनाए कोपभवन में ही चले गए। बोनस में दो-तीन सप्ताह बात तक नहीं की, वह अलग से। यहाँ तक कि नाश्ते पर साथ जाने का समय भी बदल लिया।
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