आजकल विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध की जो गति है उससे
कोई अनभिज्ञ नहीं है. लोगों को प्रायः शिकायत रहती है कि शोध का स्तर निरंतर गिर
रहा है, मेधा का पतन हो रहा है. लोग पढ़ते-लिखते नहीं हैं आदि.. आदि. लेकिन इस
चर्चा को छेडने से पहले हम स्वयं पर और अपनी शिक्षा प्रणाली पर भी गौर करें. हम यह
क्यों भूल जाते हैं कि इसके ज़िम्मेदार व्यवस्था के साथ-साथ हममें से भी कुछ लोग तो
होंगे ही. कितना समय और कितनी ऊर्जा आज शिक्षक लोग अपने छात्रों पर खर्च करते है? अधिकांश
विश्वविद्यालयों में आज भी अध्यापन की तकनीक एक तरफ़ा ट्रेफिक की तरह ही है. यानी
कि वन वे. कक्षा में शिक्षक ने अपना व्याख्यान दिया या पहले से तैयार नोट्स अथवा लिखा
हुआ पढ़ दिया, छात्रों ने ध्यानपूर्वक सुन लिया अथवा व्याख्यान को अपनी नोटबुक में
लिपिबद्ध कर लिया. बस, कक्षा की जिम्मेदारी पूर्ण. प्राध्यापक ने न तो छात्रों को
प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करने का प्रयास ही किया और न ही छात्रों ने स्वयं
अपनी ओर से सवाल करने का कष्ट किया. दिन, सप्ताह, माह और इसी तरह पूरा सत्र
समाप्त. सालों से हम इसी प्रणाली का अनुसरण करते आ रहे हैं बिना इस पर विचार किये
कि ये पद्धति हमारी शिक्षा को किधर ले जा रही है. हमारी शिक्षा प्रणाली
अन्तःक्रियात्मक है ही नहीं. हम लोग छात्रों को प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित नहीं करते
हैं? या करना नहीं चाहते है, या फिर प्रेरित ही नहीं कर पाते हैं. कुछ साथी तो यह
कहने में भी कोई गुरेज़ नहीं करते कि ‘अरे छोड़िये भी, एक दो नहीं, पूरा अबा का अबा
ही ख़राब है.’ लेकिन ऐसा कोई सैद्धांतिक किस्म का वक्तव्य देने से पहले हमें थोडा
इस बात पर भी गौर कर लेना चाहिए कि जिस तरह के और जिस ज्ञानात्मक क्षमता के
विद्यार्थी आ रहे हैं वही तो हमारा सरमाया है. हमें उन्हीं पर मेहनत करनी है. हमारे साथी प्राध्यापक अक्सर विद्यार्थी
के सुविज्ञ न होने की शिकायत करते हैं. सुधार के उपायों पर विचार नहीं करते.
जबकि वे स्वयं कितने विज्ञ हैं इस विषय में कोई नहीं सोचता.
जहाँ अध्यापक बनते ही हममें से ज़्यादातर साथी सबसे पहला काम करते हें पढ़ना-लिखना
छोड़ देना. लिखना चाहे जारी भी रखें पर पढ़ने के द्वार तो लगभग बंद कर ही लेते हैं. आज
जब रामचंद्र शुक्ल और हज़ारीप्रसाद द्विवेदी या रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ आदि सरीखे प्राध्यापक ही नहीं हैं तो उनके योग्य शिष्यों
जैसे विद्यार्थियों की अपेक्षा कैसे की जा सकती है. समस्या लगभग सभी
विश्वविद्यालयों में ऐसी ही हैं। इसका एक कारण तो यह है कि बहुत से शिक्षक अपनी
जिम्मेदारी के प्रति उदासीन हैं। दूसरे, नौकरी पाते ही शिक्षक पहला काम
यह करता है कि स्वयं को सर्वज्ञ और सर्वगुण संपन्न समझ करके यह भूल जाना चाहता है
कि वह भी कभी छात्र था। जैसे रेल के डिब्बे में सीट पा चुका मुसाफिर अपनी ओर से तो
पूरा प्रयास यही करता है कि ट्रेन किसी भी स्टेशन पर न रुके। अगर रुके भी तो कोई
अन्य सवारी उस डिब्बे में न चढ़े और यदि सवारी
जोर लगाकर चढ़ भी जाये तो उस मुसाफिर की ओर तो बिलकुल भी न देखे जो डिब्बे में पहले
से बैठा हुआ है और सीट पाकर निश्चिन्त है. ट्रेन में सवार यात्री का बस चले तो वह पूरी
ट्रेन को लेकर अकेला ही गंतव्य तक चला जाय। यह तो इस आपाधापी के दौर की सोच है.
लगभग यही हालत उन साथी अध्यापकों की भी है जो शोध कर चुके हैं, नौकरी पा चुके हैं, प्रमोशन
ले चुके हैं और विश्वविद्यालयों अथवा महाविद्यालयों में, जहां
कहीं भी शोध-कार्य होता है, ज़िम्मेदारी के पदों पर हैं। अब वे स्वयं को ऐसी स्थिति में पहुंचा हुआ मानते
हैं कि जब उनसे मिलिए तो जैसे कह रहे हों कि आओ बेटा आओ, हम कराएँगे अनुसन्धान और
बताएँगे कि कैसे होती है शोध. पहले तो ऐसा प्रश्न-पत्र बनाया जाता है जिसे उसी अध्यापक से पूछ लिया जाये तो
वे स्वयं भी हल न कर सकें। क्योंकि कठिन से कठिन प्रश्नपत्र बनाना ही उनकी सफलता
का प्रमाण होता है। फिर यदि कोई प्रतिभाशाली छात्र लिखित परीक्षा में पास हो भी
गया तो फिर साक्षात्कार में - जिसे कोई और घटिया नाम दे दिया जाय तो बेहतर- छात्र
के ज्ञान और उसके शोध-विषय की इतनी छीछालेदर कर डालते हैं कि विद्यार्थी परेशान
होकर कुछ ऐसा-वैसा नहीं कर गुज़रता यही क्या कम ग़नीमत है। आप चाहें तो नमूने के
लिए कुछ प्रश्न आपके विचारार्थ प्रस्तुत हैं -1. शार्दूलविक्रीड़ित छंद क्या होता है, सोदाहरण
समझाइये?, आचार्य
रामचंद्र शुक्ल और हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के इतिहास-ग्रंथों में किसके इतिहास की
टीआरपी ज़्यादा है और क्यों? बच्चन सिंह की पुस्तक 'हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास' को हिन्दी साहित्य का तीसरा या
चौथा इतिहास क्यों नहीं कह सकते। आदि आदि। इसी प्रकार के और भी भयानक किस्म के
हतोत्साहित कर देने वाले परमाणु हथियार जैसी मारक क्षमता से लैस अनेक सवाल। मैं
बात को हल्का करने का प्रयास बिल्कुल भी नहीं कर रहा हूं। आप अपने अनुभवों के आलोक
में स्वयं विचार करें तो पाएंगे कि कई बार साथी लोग विद्यार्थी के साथ कुछ इस तरह
का वर्ताव करते हैं कि जैसे दुश्मन की सेना का भटका हुआ कोई सैनिक आ फंसा हो। साथी
उसको इस तरह देखते हैं और सोचते हैं कि अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे. जैसे
विद्यार्थी सचमुच ऊंट ही है और हम स्वयं पहाड़. दरअसल होना तो यह चाहिए कि हम अपनी
सोच में बदलाव लाने का प्रयास करें. विद्यार्थी को अपने स्तर से ही नहीं बल्कि उसके
स्तर से भी जांचने की आवश्यकता है. आज ज़रुरत इस बात की है कि छात्र को हम कम से कम
छात्र समझें और अपना ही छात्र समझें।
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