शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

अथ श्वान कथा

दिल्ली में था तो घर के पीछे के पार्क में काले कुत्ते के दर्शन हो जाते थे. साथ ही उसके मालिक को एक दो गालियां अच्छी और बुरी दोनों मिलाकर मन ही मन दे लेता था, वैसे ही नहीं,  पार्क में कुत्ते को घुमाकर उसे गन्दा करने के कारण. मेरा कोई व्यक्तिगत झगड़ा तो उसके साथ था नहीं. हालाँकि मेरे घर में कुत्ते और उसके परिवार यानी कुते के मालिक के परिवार की आलोचना को लेकर दो राय हो गयीं थीं. मेरी श्रीमती जी उस कुत्ता मालिक को ज़बरदस्त डांटने के मूड में थीं. बस अनुकूल अवसर के इंतजार में थीं. अनुकूल अवसर यानी मैं हाँ कह दूं बस. मैं भी हालाँकि पीछे घटी कुछ घटनाओं के कारण आंशिक रूप से कुत्ता विरोधी हो गया हूँ, पर मैं असमंजस में था और इसलिए भी कि मुझे कुत्ते की सुविधा देखकर उसको पार्क में आने के लिए मना करना अभी कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. यद्यपि मुझे पूरा विश्वास था कि कुत्ता ऐसा बिलकुल नहीं सोचता होगा. वह तो शक्ल से ही पैदायशी बदमाश और अन्य दोपाये-चौपाये जीवों की भांति निगेटिव सोचने वाला-सा लगता था. उसके बारे में मेरी पक्की धरणा थी कि यह मौका मिलने पर कुत्ते की भांति ही काटेगा अवश्य. मेरे मन में कुत्ते को एक नसीहत देने की इच्छा अवश्य घर कर गयी थी, बस अनुकूल अवसर की तलाश थी. अनुकूल अवसर भी जल्द ही आ गया. एक दिन जब मैं कहीं से घूमकर अपने घर वापस आ रहा था तो मैंने देखा कि कुत्ता पार्क में अकेला है. जहाँ तक जा सकती थी, वहां तक नज़र दौड़ाने पर भी मुझे कुत्ते का मालिक अथवा उसका कोई प्रतिनिधि दिखाई नहीं दिया. मैंने सोचा कि यही मौका है जब कुत्ते को कुछ ज़रूरी नसीहतें दी जा सकती हैं. अतः पहले तो मैंने किंचित नकली मुस्कान फेंककर और आँखे मटकाकर कुत्ते को लुभाने का प्रयास किया. थोड़ी देख रुका, पर कुछ नहीं हुआ. कुत्ता कुछ घाघ-सा  लगा. ऐसा लगता था कि ये सब खेल वह पहले ही खेल चुका है और शायद ये सब अनुभव भी उसे पहले से डीएनए में मिल चुके हैं कि किसी के झांसे में कतई नहीं आना. खैर, फिर भी मैंने कोई मौका न गंवाते हुए कुत्ते के सामने दो बिस्किट रख दिए. कुत्ते ने रहस्यमयी दृष्टि के साथ पहले तो मुझे देखा और फिर बिस्किटों को. कुछ देर तक उसकी निगाह बिस्किटों के ऊपर टिकी रही. लेकिन अचानक एक ही झटके में उसने पहले तो बिस्किट सूंघे और फिर वैसे ही छोड़ दिए और मेरी तरफ को टेढ़ा देखकर इस तरह गुर्राने लगा कि चाहूं तो मैं यह मानूं कि वह मुझे ही देखकर गुर्रा रहा है और यदि चाहूं तो कुत्ते के उस एक्शन पर बेनिफिट ऑफ डाउटले लूं. कुत्ते का मूँड भांपकर मैंने बेनिफिट ऑफ डाउटलेना ही बेहतर समझा और कुत्ते की ओर देखकर थोड़ा मुस्कराया. कुत्ता थोड़ी देर के लिए तो कन्फ्यूज़-सा हो गया, पर तुरंत ही संभलकर उसने कुछ इस तरह मेरी ओर देखा कि जैसे मैं उसको बुद्धू बना रहा हूँ कि वैसे तो मैं उसको मन से पसंद तक नहीं करता और अब बिस्किट दे रहा हूँ. कुछ समय गुज़रा पर कुत्ता तो आखिर कुत्ता ही था. बहुत देर तक अपनी राय पर स्थिर रह न सका. संभवतः बिस्किट भी उसे पसंद आ रहे थे. अतः उसने इधर-उधर देखा और फिर सावधानीपूर्वक बिस्किट खाने लगा. जब बिस्किट समाप्त हो गए तो उसने अपनी जीभ थोड़ी लपलपायी और शायद और मिलने की आशा टूटती देख गुस्सा सा होने लगा. बिस्किट खाकर भी कमबख्त को न जाने क्या सूझी कि मेरी ओर पुनः क्रोध में देखने लगा. मैंने भी पुनः आश्वत होने के लिए चारों ओर नज़र दौड़ाई और फिर जोर से अपने हाथ का छाता झट से कुत्ते के मुंह की ओर खोल दिया. फड़-फड़ की ज़ोरदार आवाज़ के साथ छटा खुल गया. कुत्ते ने संभवतः इस प्रकार का एक्शन कभी देखा नहीं होगा और यदि देखा भी होगा तो वह उस समय उसके लिए तैयार नहीं था,  अतः घबरा गया और डरकर बहुत पीछे हट गया. मैं मन ही मन अपनी सफलता पर खुश होकर और कुत्ते की ओर से बेफिक्र होकर घर की ओर चल दिया.
लेकिन यह सोचना ठीक नहीं है कि कुत्ता प्रकरण भारत में ही छूट गया. भौतिक रूप से तो यह सही हो भी सकता है पर अन्य दृष्टियों से तो बिलकुल सही नहीं था. आवश्यक नहीं है कि समस्या किसी जहाज में बैठकर आये. वह आपके साथ अदृश्य रूप से लिपट कर भी चल आ सकती है. एक गीत भी है – ‘लो आगई उनकी याद वो नहीं आये’. तो आ ही गयी यथार्थ में. यहाँ तो याद भी है और साक्षात् उनके प्रतिरूप भी. ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि कोरिया में कुत्ते तो आसानी से दिखाई नहीं देते, पर होते हैं ज़नाब. कहने का आशय यह है कि भारत जैसे नहीं हैं. जो पालतू हैं वे बहुत छोटे हैं. जो बड़े हैं वे बहुत बड़े हैं और मूलतः खाद्य की वस्तू हैं. यद्यपि कुत्तों के लिए रहत की बात यह है कि आजकल इस भांति के खान-पान का चलन विगत दिनों की अपेक्षा कोरिया में भी कम ही हुआ है. संभ्रांत वर्ग श्वान प्रकरण से दूर रहता है. और यदि कुछ लोग खाते भी होंगे तो कभी-कभार और प्रायः होटलों पर. यह सब आमतौर पर नहीं मिलता. मेरे एक कोरियाई मित्र ने बताया था कि एक भारतीय प्रोफेसर ने भी कोरिया में कुत्ते का मांस खाने की इच्छा प्रकट की थी. दरअसल कोरिया के वे प्रोफेसर भारत में रहे थे और उन्होंने भारतीय संस्कृति का- आतिथ्य सत्कार का वह मूलमन्त्र पढ़ा था कि अतिथि देवोभव.
कोरिया के प्रोफेसर जो उनके होस्ट बने, यद्यपि स्वयं इस तरह का खाना नहीं खाते थे पर उन्होंने अपने भारतीय प्रोफेसर की भावना का ध्यान रखते हुए उनको दैविक आनंद की प्राप्ति करायी. यह जानकार मेरी जिज्ञासा दो चीज़ों के लिए बहुत बढ़ गयी. एक तो मैं उन कुत्तों को देखना चाहता था जिनका खाद्य वस्तु के रूप में उपयोग किया जाता है या किया जाता होगा और जिनके एक साथी को भोजन के रूप में हमारे सहकर्मी ने अपने मुखारविंद में आने दिया. दूसरे मैं उन सज्जन और भद्र पुरुष को एक बार ध्यान से देखना चाहता था. अतः मैंने अपने कोरियाई मित्रों से पूछा. इसी प्रसंग में किसी मित्र ने बताया था कि सियोल में ही एक सब्जी मंडी है. वहीं कुछ दूकानें ऐसी भी हैं जिन पर कुत्तों का मांस भी मिलता है. आप वहां जाकर देख सकते हैं कुत्ते भी बकरों की भांति बंधे होंगे. अब कोरिया में सब्जी मंडी है तो पर भारत की तरह तो है. बहुत ही साफ़-सुथरी और व्यवस्थित. सब्जियां भी सुन्दर रूप से सजी हुईं. खुली नहीं बल्कि साफ़ पोलिथिनों में बंद और ताज़ा. कोई मोल-भाव नहीं, सब कुछ पहले से तय. आप उठाइए पैसे दीजिए और ले आइये. कैश भुगतान कीजिए या कार्ड से दीजिए. सब जगह कार्ड रीड करने की मशीनें उपलब्ध होती हैं और अधिकाँश लोग कार्ड का ही उपयोग करते हैं.  एक बात ध्यान देने कि है कि मैं काफी दिनों तक कोरिया में रहा हूँ पर एक भी बार मुझसे किसी दुकानदार ने यह नहीं कहा कि चेंज दीजिए. वे कोरिया की मुद्रा वोन की सबसे छोटी इकाई यानी एक पाई तक वापस करते हैं. हमारे देश के दुकानदारों की तरह माचिस, टॉफी या आपको खांसी हो अथवा न हो पर विक्स की करामाती गोलियां नहीं थमा देते. यहाँ सब्जी के साथ-साथ और बल्कि कहीं-कहीं उससे अधिक तो दूसरी चीज़ें मिलती हैं. ज़ाहिर सी बात है कि जो वस्तुएं किसी न किसी रूप में खायी जाएँगी तो वे बिकेंगी भी तो वहीं आस-पास. कोरिया मांसाहारी देश है. अतः सब्जी के साथ अन्य खाद्य पदार्थ भी बहुतायत में सब्जी मंडियों में ही मिलते हैं. मैं आगे बाधा तो देखा कि सब्जियों की लाइन समाप्त होते ही कुछ दुकानें श्वान केन्द्रित भी है. यानी यदि आपको कुत्ता पसंद है तो कटवा कर ले लीजिये. बकरों की भांति बड़े पिंजड़ों में खड़े रहते हैं अपनी बारी के इंतजार मैं. मैं थोड़ी देर खड़े होकर दो कुत्तों को देखता रहा. कुत्ते भी मेरी ओर देखने लगे जैसे आहट ले रहे हों कि मुझसे कोई खतरा तो नहीं है. मेरे कोरियाई साथी ने मजाक में कहा कि ‘मैं तो खाता नहीं पर लगता है कि शायद आपको पहचानने का प्रयास कर रहे हैं कि कहीं आप उनके परिचित तो नहीं हैं जिन भारतीय प्रोफेसर महोदय ने इनके किसी परिचित का रसास्वादन किया है? मुझे किंचित अफ़सोस-सा हुआ. हालाँकि बात केवल मजाक में ही हो रही थी. मुझे लगने लगा कि कुत्ते दयनीयता की सीमा तक आशान्वित हो रहे हैं और सोच रहे थे कि शायद मैं उन्हें सचमुच बचा ही लूं. लेकिन उनको बचाना मेरे बस में तो था नहीं. मुझे कबीर के दोहे की एक पंक्ति याद आ गयी कि बकरी पाती खात है ताकी काढी खाल.पर कुत्ते तो वे सब नहीं खाते जो कबीर ने बकरियों के खाने के लिए कहा है. इनको किस बात की सजा. फिर मुझे अपने आस-पास के कुत्ते याद आये. जो मुझे अक्सर परेशान करते हैं. उनकी याद आते ही मैं वहां से चल दिया और सोचने लगा कि जो होना है हो. जो करेगा सो भरेगा. ये कुत्ता बने ही क्यों?
अब चिंता की बात यह है कि जबसे मंडी में कुत्ते देखकर आया हूँ दिल्ली के कुत्ते अब सपने मैं आने लगे हैं. कहाँ तो सुन्दर-सुन्दर चीजें. अच्छे-अच्छे नज़ारे. स्वप्न लोक की कल्पनाएँ, सुखद स्मृतियों का सपनों में आना और कहाँ कमबख्त कुत्ते. कुत्ते और सपने ऐसा सोचकर ही अजीब-सा लगता है. कुत्ते और वे भी सपनों में और वे भी भोंकते हुए. हालाँकि एक दो बार ही ऐसा हुआ है. सपने में दो कुत्ते ऊपर की ओर मुंह उठाकर भोंकते हैं और कनखियों से मेरे ऊपर अपने भोंकने के असर का अंदाज़ लगाते हैं और फिर चले जाते हैं. ऐसा दो-तीन दिनों से ही हुआ है. फिर भी चिंतनीय तो है ही कि मेरे साथ ही क्यों हो? किसी से पता करूंगा कि अपने पडौस वाले कुत्ते का कमाल तो नहीं है यह.? इन्टरनेट का ज़माना है. कुछ भी संभव है. नेटवर्किंग के ज़रिये भारतीय कुत्ते ने यहाँ के स्थानीय श्वानों के साथ मिलकर कुछ कलाकारी तो नहीं कर दी. कुत्ता है कुछ भी कर सकता है.

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