शनिवार, 27 अप्रैल 2013

sahityakar mitra


शिवाजी नामक मेरे एक पड़ोसी साहित्य और कला में बहुत रूचि रखते हैं. वे जब भी मिलने आते हें प्रश्नों और जिज्ञासाओं का अम्बार लगा देते हैं. उनकी जिज्ञासाओं की गुणवत्ता इतनी हाई पोटेंसी की होती है कि कई बार तो मुझे उनके समाधान के लिए टाइम आउट लेकर अलग से पढ़ना पड़ता है. दिल्ली में हो रही साहित्यिक गतिविधियों के बारे में सजग रहना पड़ता है. न जाने कब किस कार्यक्रम के बारे में पूछ लें. हालांकि साहित्य सीधे-सीधे उनकी दिलचस्पी का क्षेत्र नहीं रहा है और न ही कभी उनकी प्राथमिकता. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तेजी से घटी घटनाओं से साहित्य और कला में उसकी अभिरुचि बढती चली गयी. जैसे सरकारी संस्थाओं के पुरस्कार जिनमें धन भी मिलता है और सम्मान भी. या फिर इन पुरस्कारों का भव्य समारोहों में साहित्य अथवा राजनीति के किसी प्रसिद्ध व्यक्तित्व द्वारा प्रदान किया जाना. और भी कुछ इसी प्रकार की लाभप्रद चीजें शिवाजी रोज खोज लाते हैं. आजकल तो शिवाजी ने लिखना भी शुरू कर दिया है. वह भी सोद्देश्य लेखन. सोद्देश्य लेखन से हमारे इन मित्र का आशय है जिस लेखन से उनका उद्देश्य पूरा होता हो यानी लाभ प्राप्त होता हो. आजकल शिवाजी के अन्दर यह आकांक्षा बलवती होने लगी है कि वे कुछ लिखें. उनको भी एक ऐसा पुरस्कार मिलना चाहिए जिससे कुछ आय भी हो. जब वे नौकरी में थे तो उनकी रूचि केवल साहित्य चर्चा तक सीमित थी लेकिन अवकाश प्राप्त करने के बाद उनकी रूचि लिखने और सुनाने में अधिक हो गयी है. पहले बात केवल शौक तक सीमित थी पर अब शौक गहराकर आदत में बदल चुका है. आज स्थिति यह है कि वे जब भी कोई नयी रचना लिखते हैं तो अपना पहला श्रोता मुझे बनाते हैं. मेरी हिंदी पढ़ाने की  नौकरी अथवा मेरे हिंदी अध्यापकत्व को वे हिंदी सेवा मानते हैं, अतः वे कहते हैं कि उनकी रचनाएँ सुनना और सुनना ही नहीं उनपर टिप्पणी करना मेरी पेशेगत और नैतिक ज़िम्मेदारी है. अपने मित्र की बात मानकर और उनका पडौसी होने के नाते मैं अपनी ज़िम्मेदारी बड़ी श्रद्धा व लगन के साथ पूरी करता हूँ. लेकिन यही आजकल मुसीबत का कारण बना हुआ है. कारण यह है मित्र अपनी नयी पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहते हैं. पुस्तक प्रकाशित करना या करवाना आज वैसे भी कोई समस्या नहीं है और यदि आपके पास छोटा सा भी कोई लाभ करा सकने वाला ऐसा पद है तो काम और आसान हो जाता है. फिर शिवाजी तो सरकार के एक बड़े विभाग में बड़े अधिकारी रह चुके हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के एक उपक्रम में निदेशक भी रह चुके हैं. अतः उनके लिए छपना कोई समस्या नहीं है. बात किसी नामी प्रकाशक के यहाँ से रचना के प्रकाशित होने की है. आजकल मेरे ये मित्र कुछ इसी प्रकार की उधेड़बुन में हैं कि क्या छपवाऊँ कहाँ छपवाऊँ और फिर कहाँ विमोचन करवाऊँ, किससे कराऊँ? आदि आदि. अच्छे सलाहकार के रूप में उनकी उम्मीद एक मैं ही हूँ. आज यही हुआ. सुबह जब मैं घर से अपने विश्वविद्यालय के लिए निकल रहा था तो ठीक उसी वक्त मेरे ये पड़ौसी नवोदित साहित्यकार साथी मुझसे मिलने आ गये. सुबह-सुबह की बात थी. विश्वविद्यालय जाना था, कक्षा के लिए देर भी हो रही थी, इसलिए लंबी बातचीत की स्थिति में तो मैं बिलकुल नहीं था। लेकिन साहित्यकार मित्र तो आखिर मित्र ही ठहरे । फुरसत के साथ आये थे। लग रहा था कि उनको जाने की कोई जल्दी नहीं है। मैं चिंतित था और वे निश्चिंत थे. मैं डर रहा था कि मित्र कहीं चिपक ही न जायें। लेकिन मेरी आशंका सच निकली. वास्तव में मित्र लंबी बातचीत के मूड में थे. दरअसल उन्होंने कहीं से ज़बरदस्त प्रेरणा लेकर ढेर साड़ी कवितायेँ लिख डालीं. अपनी कविताओं का एक संकलन भी तैयार कर लिया है. वह अपनी उसी पुस्तक के बारे में बात करने आये थे। बात पुस्तक के प्रकाशन की उतनी नहीं थी जितनी उसके किसी अच्छी जगह विमोचन की। विमोचन कहां करवाया जाय,किससे करवाया जाय? इसे लेकर मित्र उधेड़बुन में थे. उनका आग्रह था कि उनकी पुस्तक का विमोचन किसी ऐसी जगह करवाया जाय जहां विमोचन करवाने से उन्हें प्रसिद्धि मिले। मैंने कहा कि किसी विश्वविद्यालय में करवा देते हैं। विश्वविद्यालय के अध्यक्ष से विमोचन करवा देते हैं। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय में नहीं, बल्कि आईआईसी में करवाइए । मैंने सुना है कि वह बहुत शुभ स्थान है। प्रकाशकों की भी पसंद की जगह है। वहां पत्रकार भी आसानी से आ जाते हैं. और यदि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में नहीं तो इंडिया हेबीटेट सेंटर में प्रबंध करवा दीजिए। लेकिन इन दोनों के अलावा और कहीं नहीं। उसने यह भी कहा कि विमोचन में नामी व्यक्तित्वों को ज़रूर बुलाना है। उनके आने से समारोह की शोभा और भी बढ़ जाएगी। तभी तो लोगों का ध्यान पुस्तक और पुस्तक के लेखक दोनों पर जाएगा। लोग मेरी किताब को पढ़ेंगे । नहीं पढेंगे तो भी किताब पर समीक्षाएं तो अवश्य लिखेंगे। कभी कभी बिना पढ़े भी तो समीक्षाएं लिखी ही जाती हैं। अख़बारों में मेरी चर्चा होगी । मैं उनकी बात सुन रहा था। सहमति में सिर भी हिला रहा था। उन्होंने जो कुछ कहा मैंने सहर्ष स्वीकार किया। सब तरह के सहयोग का वादा किया, नमकीन, बिस्कुट तथा चाय के साथ उनकी खातिर की, कार में साथ बिठाया और समस्या साथ लेकर विश्वविद्यालय के लिए चल दिया। 

मंगलवार, 19 मई 2009

संगोष्ठी के कुछ चित्र

डॉ प्रदीप कुमार दास और डॉ काना


प्रोफ़ेसर महेन्द्रपाल शर्मा, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली





संगोष्ठी में प्रतिभागी

इक्कीसवीं शताब्दी में भारत अध्ययन में शोध की नई दिशाएं



इक्कीसवीं शताब्दी में भारत अध्ययन में शोध की नई दिशाएं
हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज, सियोल, कोरिया के इंस्टिट्यूट ऑफ़ साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज ने १६ मई को एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया। इसका उद्घाटन हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज के कुलपति प्रोफ़ेसर पार्क चुल ने किया और सेमिनार का बीज वक्तव्य आई एस एस के निदेशक प्रोफ़ेसर छे ने दिया। इस सेमिनार में कई देशों के विद्वानों ने भाग लिया। इन विद्वानों में प्रमुख थे भारत के जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर महेंद्र पाल शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ कृष्ण मेनन (प्रोफ़ेसर राजीव खन्ना), डॉ वीरेंदर भारद्वाज डॉ प्रदीप कुमार दास और टोकियो विश्वविद्यालय के डॉ काना तोमिजावा और कजुमा नाकामिजो सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी की डॉ हवों कुई ने अपने आलेख पढ़े


हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज की प्रोफ़ेसर किम वू जो, प्रोफ़ेसर ली योंग गू , प्रोफ़ेसर लिम जोंग दोंग, डॉ चांग वान किम, डॉ चुन हो ली ने भी इस संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त किए इस संगोष्ठी में जहाँ एक ओर भूमंडलीकरण ओर बाजारवाद के दौर में तेजी से बदलते समाज की विभिन्न समस्याओं पर विचार विमर्श किया गया वहीं आज कल के कुछ ज्वलंत मुद्दों पर भी बहस की गयी कुल मिलकर यह संगोष्ठी भारत अध्ययन के क्षेत्र में हो रहे नए अनुसंधानों की ओर प्रतिभागियों और श्रोताओं का ध्यान खींचने में पूर्णतः सफल रही सेमिनार के विषय थे - इक्कीसवी सदी में हिन्दी साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की समस्याएं, भारतीय भाषा विज्ञानं की वर्त्तमान प्रवृतियाँ और स्थिति, कृतिम बौद्धिकता इतनी अबौधिक क्यों है, महाभारत से प्रेरित आधुनिक हिन्दी कविता के विशेष सन्दर्भ में वर्त्तमान सामाजिक विवाद और चुनौतियों का अध्ययन, भारतीय राजनीती की वर्तमान अनुसन्धान : लोकतंत्र और विकास के बीच बहस, अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत के औरिएन्तलिस्त और भारतीय अध्ययन की दो प्रवृतियाँ दंगों की ज़वाबदेही : नए परिप्रेक्ष्य में भारतीय राजनीती की समझ, दक्षिण एशियाई कला इतिहास के अध्ययन की नई प्रवृतियाँ आदि


संगोष्टी के कुछ चित्र


मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

मेरी कवितायें

मेरी कवितायें:

गणित

मारो मारो और मारो

गिनो मत

लोग कहते हैं हमारा गणित कमजोर है

बन्दूक

चल पड़ी बन्दूक

दन दना दन

मैंने पूछा क्यों ?

वोह बोला चलेगी ही बन्दूक

जब हाथ मैं होगी और भरी हुई