जब
मैं प्राइमरी स्कूल की पहली कक्षा में गया तो अपनी कक्षा के अन्य छात्रों की तुलना
में कद में छोटा था। एक और छात्र था जो मुझसे भी छोटा था. लेकिन उसका तो नहीं पर
छोटा कद होने की वजह से मेरा नाम चीनी पड़ गया। नाम तो कक्षा के मेरे अध्यापक ने
रखा था और यह बात केवल क्लास तक ही सीमित थी लेकिन धीरे-धीरे बात मुहल्ले के
बच्चों तक पहुंच गयी। वे मुझे चीनी कहकर चिढ़ाते। आरंभ में तो ऐसा कभी-कभी होता था
पर जल्द ही इसकी फ्रीक्वेंसी बढ़ने लगी। हद तो तब हो गयी जब बात-बात पर साथी चीनी
कह कर चिढ़ाते। कभी कभी तो मैं इतना चिढ़ जाता कि जिस अध्यापक ने यह नाम लिया था
छिपकर चालाकी से उसकी साइकिल के पहिए की हवा निकाल देता। मेरी इस शरारत का उन
अध्यापक महोदय को कभी पता ही नहीं चला और वो मुझे निहायत शरीफ,
सीधी-सादा और आज्ञाकारी विद्यार्थी मानते। दरअसल उन
को भी नहीं पता था कि उन्होंने कक्षा के विद्यार्थियों की जो ज्ञानवृद्धि की है
उससे मेरा कितना मानसिक नुकसान हुआ था। वास्तव में उन दिनों भारत चीन युद्ध चल रहा
था। देश में हर तरफ उस युद्ध की चर्चा थी। अध्यापक महोदय न जाने क्यों स्वयं बहुत
तनाव में थे। मैं दूसरी कक्षा का छात्र था, और
मेरी उम्र रही होगी लगभग सात वर्ष। मेरी कक्षा के अध्यापक चीनी आक्रमण से बहुत
अधिक आहत थे और गुस्सा भी। मैं कयोंकि सामने ही बैठा था अत: उनकी दृष्टि सीधे मुझ
पर आकर ठहर गयी। गुस्से से मेरी ओर देखते हुए कहने लगे कि, इतने
छोटे-छोटे होते हैं कम्बख़्त चीनी लोग और देखा कितना बड़ा धोखा दिया है इन चीनियों
ने। हिम्मत देखो उनकी। कुछ और भी इसी प्रकार बड़बड़ाने लगे। वे तो इतना कहकर चले
गए लेकिन मेरे लिए बड़ी समस्या कड़ी कर गए. मेरी उम्र के छात्रों को क्या लेना-देना
था भारत-चीनी युद्ध से। उन्हें तो मुझे चिढाने का बहाना मिल गया। पहले तो बात केवल
कक्षा तक ही सीमित रही फिर न जाने मेरे साथियों को इसमें क्या उर्वरता दिखाई दी कि
उन्होंने इसका युद्ध स्तर पर प्रचार करने का मन बनाया और अध्यापक द्वारा कक्षा में
कही बात को गली, मुहल्ले और फिर गांव तक ले गए। उनके लिए यह केवल
मनोरंजन का साधन था पर मेरे लिए छवि भंजन का। हालांकि सभी छात्र ऐसे नहीं थे। केवल
कुछ ही शरारती थे। पर थे वे एक गंदी मछली की भांति जिनके सामने पूरा तालाब था।
परिणामत: मैं अपने ही साथियों से बचने का प्रयास करता।
बुधवार, 3 दिसंबर 2014
शुक्रवार, 14 नवंबर 2014
जे एन यू की भांग
जेएनयू में जब मैंने पहली बार और वही आखरी बार भांग
पी। मैं उस समय एम.फिल का विद्यार्थी था। हमारे एक वरिष्ठ साथी थे घनश्याम मिश्र।
(जो संभवत: अब नहीं हैं, अत: उनकी स्मृति के प्रति पूर्ण सम्मान के साथ)।
घनश्याम मिश्र बहुत ही प्रिय स्वभाव के एक मददगार व्यक्ति थे। यद्यपि वे भांग और
भांग की प्रजातियों के यूं भी बहुत शौकीन थे पर यदि कोई विशेष अवसर हो तो फिर तो
कहने ही क्या? खैर
होली पर वे सदैव भांग तैयार किया करते थे। वे गंगा होस्टल में रहते थे ग्राउंड
फ्लोर पर। उनकी सेलेक्टिव लिस्ट होती थी और कलेक्टिव आयोजन। फिर बाद में जो आ जाए।
ना किसी के लिए भी नहीं। अत:1979 की घटना है जब पं. घनश्याम मिश्र ने कुछ छात्रों के
आपसी सहयोग से होली के लिए भांग तैयार करने की योजना बनाई। ज़रूरी सामान खरीदकर
लाया गया जिसमें मेवाओं पर विशेष जोर दिया गया था। मिश्र जी के कमरे में बाज़ार से
खरीदकर सब सामान लाकर रख दिया गया. देर रात को में अपने कमरे में जाकर सो गया.
सुबह के 5 बजे होंगे जब डिब्बों के सड़क पर बार-बार टकराने की आवाज़ से मेरी आँखें
खुल गयी. बालकोनी से बाहर झांककर देखा तो दो कुत्ते बड़ी तेजी के साथ पेरियार
हॉस्टल की ओर से गंगा हॉस्टल की ओर दौड़े चले जा रहे थे. उनकी पूँछ में किसी शरारती
लड़के ने डिब्बे बाँध दिए थे. डिब्बे तीन के थे और उनकी आवाज़ से कुत्ते और भी तेजी
से दौड़ रहे थे. अन्याय तो उनके साथ हो ही चुका था. देखकर दुःख भी हुआ. बड़ी रूचि के
साथ भांग तैयार की गयी। सामान की कोई कमी नहीं थी. भरपूर दूध और चीनी। बादाम,
किशमिश और काजू आदि मेवे मिश्राजी की अलमारी से निकाले गए. किसी साथी ने ध्यान
दिलाया कि पोटली में वजन कल की अपेक्षा
कुछ कम है. मिश्राजी मुस्करा कर बोले, जो बचा है सब घोट डालो. देर की तो वजन और
हल्का हो जायेगा. भांग खूब मेहनत से तैयार की गयी थी। भांग तैयार करने की
प्रक्रिया और उसमें डाली गयी सामग्री को देखकर मन ललचाने लगा था, अत: सोच लिया था
कि आज तो भांग का भरपूर आनंद अवश्य लिया जाएगा। होली वाले दिन सभी साथियों ने भांग
पी. हमारे एक मित्र थे हरप्रकाश गौड़ और सुरेश शर्मा. उन्होंने भी भांग पी पर उनपर कुछ असर न हुआ.
कहने लगे और पीना चाहिए. दोबारा घनश्याम मिश्र के कमरे में गए और पुनः भांग का
स्वाद चखा. हरप्रकाश जी को मेवों का कुछ लोभ आ गया अतः भांग के बर्तन की तलहटी से
जिसमें भांग भी शामिल थी, काफी सारे पदार्थ लेकर खा गए. परिणाम हुआ कि भांग के नशे
में एक व्यक्ति जो जो कर सकता है उन दोनों ने किया, जो सोच सकता है उन्होंने सोचा और
जो नहीं कर सकता है उन्होंने न किया. वे कथाकार हो गए, संगीतकार हो गए, गायक हो गए
और अभिनेता तो बनना ही था सो बन गए. उनकी हालत देखकर तीसरी कसम के राजकपूर की
भांति मैंने एक निर्णय लिया कि जीवन में आगे कभी भांग नहीं पीयेंगे.
शिक्षा और अनुसन्धान
आजकल विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध की जो गति है उससे
कोई अनभिज्ञ नहीं है. लोगों को प्रायः शिकायत रहती है कि शोध का स्तर निरंतर गिर
रहा है, मेधा का पतन हो रहा है. लोग पढ़ते-लिखते नहीं हैं आदि.. आदि. लेकिन इस
चर्चा को छेडने से पहले हम स्वयं पर और अपनी शिक्षा प्रणाली पर भी गौर करें. हम यह
क्यों भूल जाते हैं कि इसके ज़िम्मेदार व्यवस्था के साथ-साथ हममें से भी कुछ लोग तो
होंगे ही. कितना समय और कितनी ऊर्जा आज शिक्षक लोग अपने छात्रों पर खर्च करते है? अधिकांश
विश्वविद्यालयों में आज भी अध्यापन की तकनीक एक तरफ़ा ट्रेफिक की तरह ही है. यानी
कि वन वे. कक्षा में शिक्षक ने अपना व्याख्यान दिया या पहले से तैयार नोट्स अथवा लिखा
हुआ पढ़ दिया, छात्रों ने ध्यानपूर्वक सुन लिया अथवा व्याख्यान को अपनी नोटबुक में
लिपिबद्ध कर लिया. बस, कक्षा की जिम्मेदारी पूर्ण. प्राध्यापक ने न तो छात्रों को
प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करने का प्रयास ही किया और न ही छात्रों ने स्वयं
अपनी ओर से सवाल करने का कष्ट किया. दिन, सप्ताह, माह और इसी तरह पूरा सत्र
समाप्त. सालों से हम इसी प्रणाली का अनुसरण करते आ रहे हैं बिना इस पर विचार किये
कि ये पद्धति हमारी शिक्षा को किधर ले जा रही है. हमारी शिक्षा प्रणाली
अन्तःक्रियात्मक है ही नहीं. हम लोग छात्रों को प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित नहीं करते
हैं? या करना नहीं चाहते है, या फिर प्रेरित ही नहीं कर पाते हैं. कुछ साथी तो यह
कहने में भी कोई गुरेज़ नहीं करते कि ‘अरे छोड़िये भी, एक दो नहीं, पूरा अबा का अबा
ही ख़राब है.’ लेकिन ऐसा कोई सैद्धांतिक किस्म का वक्तव्य देने से पहले हमें थोडा
इस बात पर भी गौर कर लेना चाहिए कि जिस तरह के और जिस ज्ञानात्मक क्षमता के
विद्यार्थी आ रहे हैं वही तो हमारा सरमाया है. हमें उन्हीं पर मेहनत करनी है. हमारे साथी प्राध्यापक अक्सर विद्यार्थी
के सुविज्ञ न होने की शिकायत करते हैं. सुधार के उपायों पर विचार नहीं करते.
जबकि वे स्वयं कितने विज्ञ हैं इस विषय में कोई नहीं सोचता.
जहाँ अध्यापक बनते ही हममें से ज़्यादातर साथी सबसे पहला काम करते हें पढ़ना-लिखना
छोड़ देना. लिखना चाहे जारी भी रखें पर पढ़ने के द्वार तो लगभग बंद कर ही लेते हैं. आज
जब रामचंद्र शुक्ल और हज़ारीप्रसाद द्विवेदी या रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ आदि सरीखे प्राध्यापक ही नहीं हैं तो उनके योग्य शिष्यों
जैसे विद्यार्थियों की अपेक्षा कैसे की जा सकती है. समस्या लगभग सभी
विश्वविद्यालयों में ऐसी ही हैं। इसका एक कारण तो यह है कि बहुत से शिक्षक अपनी
जिम्मेदारी के प्रति उदासीन हैं। दूसरे, नौकरी पाते ही शिक्षक पहला काम
यह करता है कि स्वयं को सर्वज्ञ और सर्वगुण संपन्न समझ करके यह भूल जाना चाहता है
कि वह भी कभी छात्र था। जैसे रेल के डिब्बे में सीट पा चुका मुसाफिर अपनी ओर से तो
पूरा प्रयास यही करता है कि ट्रेन किसी भी स्टेशन पर न रुके। अगर रुके भी तो कोई
अन्य सवारी उस डिब्बे में न चढ़े और यदि सवारी
जोर लगाकर चढ़ भी जाये तो उस मुसाफिर की ओर तो बिलकुल भी न देखे जो डिब्बे में पहले
से बैठा हुआ है और सीट पाकर निश्चिन्त है. ट्रेन में सवार यात्री का बस चले तो वह पूरी
ट्रेन को लेकर अकेला ही गंतव्य तक चला जाय। यह तो इस आपाधापी के दौर की सोच है.
लगभग यही हालत उन साथी अध्यापकों की भी है जो शोध कर चुके हैं, नौकरी पा चुके हैं, प्रमोशन
ले चुके हैं और विश्वविद्यालयों अथवा महाविद्यालयों में, जहां
कहीं भी शोध-कार्य होता है, ज़िम्मेदारी के पदों पर हैं। अब वे स्वयं को ऐसी स्थिति में पहुंचा हुआ मानते
हैं कि जब उनसे मिलिए तो जैसे कह रहे हों कि आओ बेटा आओ, हम कराएँगे अनुसन्धान और
बताएँगे कि कैसे होती है शोध. पहले तो ऐसा प्रश्न-पत्र बनाया जाता है जिसे उसी अध्यापक से पूछ लिया जाये तो
वे स्वयं भी हल न कर सकें। क्योंकि कठिन से कठिन प्रश्नपत्र बनाना ही उनकी सफलता
का प्रमाण होता है। फिर यदि कोई प्रतिभाशाली छात्र लिखित परीक्षा में पास हो भी
गया तो फिर साक्षात्कार में - जिसे कोई और घटिया नाम दे दिया जाय तो बेहतर- छात्र
के ज्ञान और उसके शोध-विषय की इतनी छीछालेदर कर डालते हैं कि विद्यार्थी परेशान
होकर कुछ ऐसा-वैसा नहीं कर गुज़रता यही क्या कम ग़नीमत है। आप चाहें तो नमूने के
लिए कुछ प्रश्न आपके विचारार्थ प्रस्तुत हैं -1. शार्दूलविक्रीड़ित छंद क्या होता है, सोदाहरण
समझाइये?, आचार्य
रामचंद्र शुक्ल और हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के इतिहास-ग्रंथों में किसके इतिहास की
टीआरपी ज़्यादा है और क्यों? बच्चन सिंह की पुस्तक 'हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास' को हिन्दी साहित्य का तीसरा या
चौथा इतिहास क्यों नहीं कह सकते। आदि आदि। इसी प्रकार के और भी भयानक किस्म के
हतोत्साहित कर देने वाले परमाणु हथियार जैसी मारक क्षमता से लैस अनेक सवाल। मैं
बात को हल्का करने का प्रयास बिल्कुल भी नहीं कर रहा हूं। आप अपने अनुभवों के आलोक
में स्वयं विचार करें तो पाएंगे कि कई बार साथी लोग विद्यार्थी के साथ कुछ इस तरह
का वर्ताव करते हैं कि जैसे दुश्मन की सेना का भटका हुआ कोई सैनिक आ फंसा हो। साथी
उसको इस तरह देखते हैं और सोचते हैं कि अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे. जैसे
विद्यार्थी सचमुच ऊंट ही है और हम स्वयं पहाड़. दरअसल होना तो यह चाहिए कि हम अपनी
सोच में बदलाव लाने का प्रयास करें. विद्यार्थी को अपने स्तर से ही नहीं बल्कि उसके
स्तर से भी जांचने की आवश्यकता है. आज ज़रुरत इस बात की है कि छात्र को हम कम से कम
छात्र समझें और अपना ही छात्र समझें।
सोमवार, 9 सितंबर 2013
तुम याद करोगे
शिक्षक दिवस बीत गया. लेकिन पूरा माह तो बाकी है. इसीलिए शिक्षक दिवस के सन्दर्भ में मुझे आज जेएनयू में अपने एक प्राध्यापक डा. बी. एम. चिंतामणि जी की याद आ रही है. वे बहुत ही सहज और सरल प्रकृति के अध्यापक थे. यद्यपि अपने ज्ञान का उन्हें कभी कोई गुमान नहीं था और न ही वे कभी अपने ज्ञानी होने का दावा करते थे. लेकिन इतना साफ़ था कि वे जो थे और जो नहीं थे. जितना जानते थे और जितना नहीं जानते थे, उस सभी की उन्हें भली प्रकार जानकारी थी. उनका सबसे बड़ा गुण तो यही था कि वे सभी की मदद करते थे बिना ये जाने कि कौन उनका विद्यार्थी है और कौन नहीं है. चाहे विभाग का कोई काम हो अथवा विश्वविद्यालय का, चिंतामणि जी यदि कह देते तो कार्य पूरा कराकर ही छोड़ते थे. विद्यार्थियों की ही नहीं बल्कि वे साथी अध्यापकों की व्यक्तिगत समस्याओं का भी समाधान सुझाते. विद्यार्थियों के सुख-दुःख, राग-द्वेष, प्रेम-अप्रेम यानी विविध आयामी सभी तरह की समस्याओं में पूरी रूचि लेते और यथा संभव सहायता करते. यही कारण था कि हमारे साथी छात्र उनके पास भीड़ लगाये रहते. उनको भी छात्रों से बात करने और उनकी समस्याएं सुनाने में आनंद आता था. एक प्रकार से वे भारतीय भाषा केंद्र के अघोषित छात्र परामर्शदाता और ‘डीएसडब्लू’ थे. चिंतामणि जी दक्षिण भारतीय थे और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस में रहकर उन्होंने अपनी पढाई की थी. वे कर्नाटक के रहने वाले थे तथा तमिल, तेलुगु और मलयालम आदि भाषाएँ बड़ी कुशलता से बोलते थे. इस कारण भी वे जे एन यू के दक्षिण भारतीय अध्यापकों और अधिकारियों के बीच सक्रिय थे. डा. चिंतामणि एक नोटबुक में देखकर पढाया करते थे. पढाया क्या करते बोलते रहते और हम विद्यार्थी उस सबको नोट कर लेते. एक दिन हम में से एक छात्र को शरारत सूझी और उसने एक दिन जैसे ही मौका मिला उनकी नोटबुक उन्हीं के कमरे की किताबों के बीच छिपा दी. चिंतामणि जी जब हमारी कक्षा को पढ़ने के लिए बैठे तो कुछ तलाशने लगे. सभवतः नोटबुक न मिल पाने पर किंचित परेशान से दिखे, सोचते रहे और अंततः हम लोगों को अगले दिन आने के लिए कहकर अपने काम में लग गए यानी नोटबुक तलाशने लगे. अगले दिन भी कक्षा नहीं हुई. तीसरे दिन हमने अपने उस साथी से कहा कि अब बहुत हुआ, चाहते हो कि कक्षा हो तो नोटबुक की खोज पूरी करा दो. वही हुआ और कक्षा दो दिन के व्यवधान के बाद विधिवत होने लगी. इसका एक दुष्परिणाम ये हुआ कि चिंतामनि जी जिन्हें मुझ पर बहुत विश्वास था नाराज़ हो गए. प्रकटतः तो उन्होंने अपनी नाराजगी नहीं दिखाई लेकिन जहाँ कर सकते थे वहां अपना काम कर दिया. जिस विषय को वे पढ़ते थे उसमें B+ थमा दिया. मेरे बाकी सभी पेपर्स में A और A- थे लेकिन सिर्फ उनके ही कोर्स में B+ था. मैं दुखी हुआ, बहुत दुखी हुआ, साथ ही उनसे नाराज़ भी. अपनी मार्कशीट लेकर उनके पास विरोध प्रकट करने गया. दुखी वे भी हुए पर कहने लगे ठीक है. क्या फर्क पड़ता है. कुल मिलकर तो ग्रेड बहुत अच्छा है. मैंने तर्क दिया कि ज़रा मार्कशीट देखिये कि इसमें केवल एक ही B+ है जो आपने दिया है, बहुत ही ख़राब दिख रहा है. बोले जो है सो ठीक है. अब तुम मुझे कभी भूल नहीं सकोगे. तुम जब-जब ये मार्कशीट देखोगे तो इस B+ को देखकर तुम्हें मेरी याद ज़रूर आएगी. और वास्तव में ऐसा ही होता है. आज भी वही हुआ. जब पुराने कागजों में कुछ ज़रूरी चीज़ें खोज रहा था तो एम. ए. की अपनी अंकतालिका पर भी नज़र गयी, ध्रुव तारे की तरह टिमटिमा रहे उस B+ पर निगाह अनायास चली ही गयी और साथ ही अपने गुरु डा. बी एम. चिंतामणि जी की उक्ति पर भी. सचमुच वे बहुत याद आये. आज उनकी स्मृति को नमन.
शनिवार, 27 अप्रैल 2013
sahityakar mitra
शिवाजी नामक मेरे एक पड़ोसी साहित्य और कला में बहुत
रूचि रखते हैं. वे जब भी मिलने आते हें प्रश्नों और जिज्ञासाओं का अम्बार लगा देते
हैं. उनकी जिज्ञासाओं की गुणवत्ता इतनी हाई पोटेंसी की होती है कि कई बार तो मुझे
उनके समाधान के लिए टाइम आउट लेकर अलग से पढ़ना पड़ता है. दिल्ली में हो रही
साहित्यिक गतिविधियों के बारे में सजग रहना पड़ता है. न जाने कब किस कार्यक्रम के
बारे में पूछ लें. हालांकि साहित्य सीधे-सीधे उनकी दिलचस्पी का क्षेत्र नहीं रहा
है और न ही कभी उनकी प्राथमिकता. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तेजी से घटी घटनाओं
से साहित्य और कला में उसकी अभिरुचि बढती चली गयी. जैसे सरकारी संस्थाओं के पुरस्कार
जिनमें धन भी मिलता है और सम्मान भी. या फिर इन पुरस्कारों का भव्य
समारोहों में साहित्य अथवा राजनीति के किसी प्रसिद्ध व्यक्तित्व द्वारा प्रदान
किया जाना. और भी कुछ इसी प्रकार की लाभप्रद चीजें शिवाजी रोज खोज लाते हैं. आजकल
तो शिवाजी ने लिखना भी शुरू कर दिया है. वह भी सोद्देश्य लेखन. सोद्देश्य लेखन से
हमारे इन मित्र का आशय है जिस लेखन से उनका उद्देश्य पूरा होता हो यानी लाभ
प्राप्त होता हो. आजकल शिवाजी के अन्दर यह आकांक्षा बलवती होने लगी है कि वे कुछ
लिखें. उनको भी एक ऐसा पुरस्कार मिलना चाहिए जिससे कुछ आय भी हो. जब वे नौकरी में
थे तो उनकी रूचि केवल साहित्य चर्चा तक सीमित थी लेकिन अवकाश प्राप्त करने के बाद
उनकी रूचि लिखने और सुनाने में अधिक हो गयी है. पहले बात केवल शौक तक सीमित थी पर
अब शौक गहराकर आदत में बदल चुका है. आज स्थिति यह है कि वे जब भी कोई नयी रचना
लिखते हैं तो अपना पहला श्रोता मुझे बनाते हैं. मेरी हिंदी पढ़ाने की नौकरी अथवा मेरे हिंदी अध्यापकत्व को वे हिंदी
सेवा मानते हैं, अतः वे कहते हैं कि उनकी रचनाएँ सुनना और सुनना ही नहीं उनपर
टिप्पणी करना मेरी पेशेगत और नैतिक ज़िम्मेदारी है. अपने मित्र की बात मानकर और उनका
पडौसी होने के नाते मैं अपनी ज़िम्मेदारी बड़ी श्रद्धा व लगन के साथ पूरी करता हूँ. लेकिन
यही आजकल मुसीबत का कारण बना हुआ है. कारण यह है मित्र अपनी नयी पुस्तक प्रकाशित
करवाना चाहते हैं. पुस्तक प्रकाशित करना या करवाना आज वैसे भी कोई समस्या नहीं है
और यदि आपके पास छोटा सा भी कोई लाभ करा सकने वाला ऐसा पद है तो काम और आसान हो
जाता है. फिर शिवाजी तो सरकार के एक बड़े विभाग में बड़े अधिकारी रह चुके हैं.
सार्वजनिक क्षेत्र के एक उपक्रम में निदेशक भी रह चुके हैं. अतः उनके लिए छपना कोई
समस्या नहीं है. बात किसी नामी प्रकाशक के यहाँ से रचना के प्रकाशित होने की है. आजकल
मेरे ये मित्र कुछ इसी प्रकार की उधेड़बुन में हैं कि क्या छपवाऊँ कहाँ छपवाऊँ और
फिर कहाँ विमोचन करवाऊँ, किससे कराऊँ? आदि आदि. अच्छे सलाहकार के रूप में उनकी
उम्मीद एक मैं ही हूँ. आज यही हुआ. सुबह जब मैं घर से अपने विश्वविद्यालय के लिए निकल
रहा था तो ठीक उसी वक्त मेरे ये पड़ौसी नवोदित साहित्यकार साथी मुझसे मिलने आ गये.
सुबह-सुबह की बात थी. विश्वविद्यालय
जाना था, कक्षा के लिए देर भी हो रही
थी, इसलिए लंबी बातचीत की स्थिति में तो मैं बिलकुल नहीं
था। लेकिन साहित्यकार मित्र तो आखिर मित्र ही ठहरे । फुरसत के साथ आये थे। लग रहा
था कि उनको जाने की कोई जल्दी नहीं है। मैं चिंतित था और वे निश्चिंत थे. मैं डर
रहा था कि मित्र कहीं चिपक ही न जायें। लेकिन मेरी आशंका सच निकली. वास्तव में
मित्र लंबी बातचीत के मूड में थे. दरअसल उन्होंने
कहीं से ज़बरदस्त प्रेरणा लेकर ढेर साड़ी कवितायेँ लिख डालीं. अपनी कविताओं का एक
संकलन भी तैयार कर लिया है. वह अपनी उसी पुस्तक के बारे में बात करने आये थे। बात
पुस्तक के प्रकाशन की उतनी नहीं थी जितनी उसके किसी अच्छी जगह विमोचन की। विमोचन कहां
करवाया जाय,किससे करवाया जाय? इसे लेकर
मित्र उधेड़बुन में थे. उनका आग्रह था कि उनकी पुस्तक का विमोचन किसी ऐसी जगह करवाया
जाय जहां विमोचन करवाने से उन्हें प्रसिद्धि मिले। मैंने कहा कि किसी
विश्वविद्यालय में करवा देते हैं। विश्वविद्यालय के अध्यक्ष से विमोचन करवा देते
हैं। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय में नहीं, बल्कि आईआईसी में करवाइए । मैंने सुना है कि वह बहुत शुभ स्थान है।
प्रकाशकों की भी पसंद की जगह है। वहां पत्रकार भी आसानी से आ जाते हैं. और यदि इंडिया
इंटरनेशनल सेंटर में नहीं तो इंडिया हेबीटेट सेंटर में प्रबंध करवा दीजिए। लेकिन
इन दोनों के अलावा और कहीं नहीं। उसने यह भी कहा कि विमोचन में नामी व्यक्तित्वों
को ज़रूर बुलाना है। उनके आने से समारोह की शोभा और भी बढ़ जाएगी। तभी तो लोगों का
ध्यान पुस्तक और पुस्तक के लेखक दोनों पर जाएगा। लोग मेरी किताब को पढ़ेंगे । नहीं
पढेंगे तो भी किताब पर समीक्षाएं तो अवश्य लिखेंगे। कभी कभी बिना पढ़े भी तो
समीक्षाएं लिखी ही जाती हैं। अख़बारों में मेरी चर्चा होगी । मैं उनकी बात सुन रहा
था। सहमति में सिर भी हिला रहा था। उन्होंने जो कुछ कहा मैंने सहर्ष स्वीकार किया।
सब तरह के सहयोग का वादा किया, नमकीन, बिस्कुट तथा चाय के साथ उनकी खातिर की, कार में साथ बिठाया और समस्या साथ लेकर विश्वविद्यालय
के लिए चल दिया।
मंगलवार, 19 मई 2009
इक्कीसवीं शताब्दी में भारत अध्ययन में शोध की नई दिशाएं
इक्कीसवीं शताब्दी में भारत अध्ययन में शोध की नई दिशाएं
हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज, सियोल, कोरिया के इंस्टिट्यूट ऑफ़ साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज ने १६ मई को एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया। इसका उद्घाटन हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज के कुलपति प्रोफ़ेसर पार्क चुल ने किया और सेमिनार का बीज वक्तव्य आई एस ए एस के निदेशक प्रोफ़ेसर छे ने दिया। इस सेमिनार में कई देशों के विद्वानों ने भाग लिया। इन विद्वानों में प्रमुख थे भारत के जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर महेंद्र पाल शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ कृष्ण मेनन (प्रोफ़ेसर राजीव खन्ना), डॉ वीरेंदर भारद्वाज डॉ प्रदीप कुमार दास और टोकियो विश्वविद्यालय के डॉ काना तोमिजावा और कजुमा नाकामिजो सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी की डॉ हवोंन कुई ने अपने आलेख पढ़े।
हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज, सियोल, कोरिया के इंस्टिट्यूट ऑफ़ साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज ने १६ मई को एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया। इसका उद्घाटन हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज के कुलपति प्रोफ़ेसर पार्क चुल ने किया और सेमिनार का बीज वक्तव्य आई एस ए एस के निदेशक प्रोफ़ेसर छे ने दिया। इस सेमिनार में कई देशों के विद्वानों ने भाग लिया। इन विद्वानों में प्रमुख थे भारत के जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर महेंद्र पाल शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ कृष्ण मेनन (प्रोफ़ेसर राजीव खन्ना), डॉ वीरेंदर भारद्वाज डॉ प्रदीप कुमार दास और टोकियो विश्वविद्यालय के डॉ काना तोमिजावा और कजुमा नाकामिजो सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी की डॉ हवोंन कुई ने अपने आलेख पढ़े।
हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज की प्रोफ़ेसर किम वू जो, प्रोफ़ेसर ली योंग गू , प्रोफ़ेसर लिम जोंग दोंग, डॉ चांग वान किम, डॉ चुन हो ली ने भी इस संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त किए। इस संगोष्ठी में जहाँ एक ओर भूमंडलीकरण ओर बाजारवाद के दौर में तेजी से बदलते समाज की विभिन्न समस्याओं पर विचार विमर्श किया गया वहीं आज कल के कुछ ज्वलंत मुद्दों पर भी बहस की गयी। कुल मिलकर यह संगोष्ठी भारत अध्ययन के क्षेत्र में हो रहे नए अनुसंधानों की ओर प्रतिभागियों और श्रोताओं का ध्यान खींचने में पूर्णतः सफल रही। सेमिनार के विषय थे - इक्कीसवी सदी में हिन्दी साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की समस्याएं, भारतीय भाषा विज्ञानं की वर्त्तमान प्रवृतियाँ और स्थिति, कृतिम बौद्धिकता इतनी अबौधिक क्यों है, महाभारत से प्रेरित आधुनिक हिन्दी कविता के विशेष सन्दर्भ में वर्त्तमान सामाजिक विवाद और चुनौतियों का अध्ययन, भारतीय राजनीती की वर्तमान अनुसन्धान : लोकतंत्र और विकास के बीच बहस, अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत के औरिएन्तलिस्त और भारतीय अध्ययन की दो प्रवृतियाँ दंगों की ज़वाबदेही : नए परिप्रेक्ष्य में भारतीय राजनीती की समझ, दक्षिण एशियाई कला इतिहास के अध्ययन की नई प्रवृतियाँ आदि।
संगोष्टी के कुछ चित्र
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