रविवार, 26 मार्च 2017

फ्लाइट और समय

दूसरी बार 1998 में हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय, सियोल, कोरिया में अध्यापन हेतु मेरा आना हुआ. मैंने एयर इंडिया की फ्लाइट से अपना टिकट बुक कराया. किताबों और कुछ आवश्यक सामान के साथ-साथ अन्य वस्तुओं के रूप में खान-पान की सामग्री भी थी. एक वर्ष के लिए आना था इसलिए बहुत सा सामान ले जाना था. ग़लती ये हुई की एअरपोर्ट जाने से पहले सामान का वजन नहीं किया. इसलिए हड़बड़ी में सामान का कुछ अंदाज-सा करके ही एअरपोर्ट के लिए चल दिया. रास्ते में एयर इंडिया से फोन आया कि फ्लाइट 2 घंटे लेट है. थोडा ही दूर पहुंचा था, अतः घर के लिए वापस लौट लिया. फिर भी सामान को नहीं तौला . थोड़ी देर घर पर आये मेहमानों के साथ बातचीत करके नियत समय पर एअरपोर्ट के लिए पुनः चल दिया और समय पर पहुँच गया. 11 बजे की उड़ान थी पर एक बजे जानी थी. मैं क्योंकि सपरिवार और कुछ मित्रों के साथ एअरपोर्ट पहुंचा था, तो थोड़ा समय मित्र-मिलन और विदाई आदि में लग गया. सोचा कि कुछ समय और बात कर लेते हैं. पता था कि देर हो चुकी है पर फिर भी समय का ध्यान नहीं रहा. खैर, जब दो घंटे शेष रह गए तो अन्दर दाखिल हुआ और एयर इंडिया के काउंटर पर सामान बुक करने और बोर्डिंग पास के लिए पहुंचा. वहां देखा तो काउंटर बंद था. मुझे आश्चर्य हुआ. सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है. दो घंटे अभी फ्लाइट छूटने को हैं तो काउंटर खुला होना चाहिए. मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, लोगों से पूछताछ की. डरा कि कहीं फ्लाइट चली तो नहीं गयी. किसी ने गलत फोन कर दिया हो. दोस्त दुश्मन तो सबके होते ही हैं. मेरे भी थे. उस समय भी थे और आज भी. जल्दी से एयर इंडिया के ऑफिस पहुंचा. तसल्ली हुई यह देखकर कि वहां एक दो अधिकारी विद्यमान थे. कुल मिलाकर तो तीन या चार लोग रहे होंगे पर उनमें एक अधिकारी कुछ अनमने से बैठे हुए थे. शायद वे थके हुए भी थे. जिस प्रकार से निर्लिप्त भाव से मुंह लटकाए हुए बैठे थे उसके आधार पर उनकों उस समय वहां मौजूद लोगों में गिनना बेकार था. मैंने कुछ सज्जन से दिखने वाले एक अधिकारी को अपनी समस्या बताई और अनुरोध किया कि काउंटर पर किसी को भेजें. उन्होंने मेरा चेहरा देखकर न जाने क्या पढ़ लिया कि नसीहत-सी देने लगे. नैतिक उपदेशक का चेहरा बनाते कुछ गुस्से में बोले कि ‘आपको समय से आना चाहिए था. मालूम नहीं था कि काउंटर फ्लाइट के समय से कितने बजे पहले बंद हो जाता है?’ मैंने कहा कि ‘अभी तो फ्लाइट में दो घंटे शेष हैं. 11 बजे की फ्लाइट एक बजे जानी है, दो घंटे तो वैसे ही लेट है. सवारियों को तकलीफ हुई सो अलग से. फिर काउंटर पहले ही बंद क्यों कर दिया गया’. वे बोले कि ‘आपको मालूम है कि पूरी बोर्डिंग समय पर हो चुकी है. आप ही लेट आये हैं. स्वयं लेट आकर भी शिकायत हमारी कर रहे हैं’. मैंने उनसे बहस करने के बजाय अनुरोध करना ही उचित समझा. उनको भी बहस छोड़कर मेरा अनुरोध करना अच्छा लगा. मेरी ओर देखते हुए अपने फोन से किसी अन्य कर्मी को कहा कि वह मेरा बोर्डिंग पास बना दे. मुझसे बोले कि ‘आप काउंटर पर पहुँचिये. मैं कुछ व्यवस्था करता हूँ’. मैंने उनको धन्यवाद कहा और अपना सामान उठाये पुनः काउंटर की ओर चल दिया. काउंटर पर पहुँचा तो देखा कि वहां दो सरदारजी भी अब बोर्डिंग पास के लिए पंक्ति में खड़े थे. अपने सामान को एक्स रे मशीन से निकालते समय मेरी उनसे भेंट हो चुकी थी. सामान का एक्स रे करने में उन्होंने मेरी मदद भी की थी. लेकिन उन दोनों को कहीं और जाना था. शायद पेरिस या लंदन. समय क्योंकि बहुत कम बचा था और एक बहुत बड़ी लाइन लगी दिखाई दे रही थी इमिग्रेशन चेक के लिए तो मेरी घबराहट बढने लगी. अधिकारी का भेजा हुआ जो कर्मचारी काउंटर पर आया वह इस प्रकार भेजे जाने से खुश नहीं था. बहुत कुपित-सा लग रहा था. मुझे लगा कि शायद इसको वो काम करने के लिए कह दिया गया है जो यह नहीं करना चाहता है. अब मुझे क्या पता कि उसकी क्या समस्या रही होगी. मैं तो अपनी ही उलझन में उलझा हुआ था. डर अलग रहा था कि सामान कहीं ज्यादा न निकल आये. घरवालों विशेष रूप से पत्नी और बच्चों ने प्यार से अनेक बहुत-सी खाने की और उपयोगी चीजें साथ में रख दी थीं. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा था कि यदि वजन अधिक हो तो हम बाहर इंतजार कर लेते हैं सामान वापस दे जाना. खैर, कर्मचारी ने सामान बेल्ट पर रखने के लिए कहा. मैंने डरते-डरते अपनी दोनों अटैचियाँ बेल्ट के ऊपर रख दीं. वजन तौलने वाली इलेक्ट्रोनिक मशीन और मेरे दिल की धड़कन की मशीन, दोनों में जैसे होड़-सी लग गयी. सामान तौलने वाली मशीन तो 45 किलो पर जाकर कम्पन के साथ धीरे-धीरे रुक गयी, पर दिल वाली मशीन धीरे-धीरे बढती ही जा रही थी. सज्जन दिख रहे उस कर्मचारी ने मेरी ओर देखा और बेरुखी से बोला कि ‘सर जी, इतना सामान नहीं जा सकता. आपको पता होना चाहिए था कि केवल जहाज में केवल 20 किलो लगेज ले जाने की ही अनुमति है’. मैंने उसको समझाने की, उस कर्मचारी को अपना परिचय और अपनी हालत का हवाला देकर द्रवित करने की अनेक प्रकार से कोशिश की. उसकी सहानुभूति बटोरने के लिए अपने शाकाहारी होने तक की दुहाई दी. बहुत एक्सपर्ट तो नहीं हूँ चेहरा पढने में, पर मुझे लगा कि वह कर्मचारी नाम से शाकाहारी होना चाहिए. इसलिए बोला कि मैं अंडे तक नहीं खाता. कोरिया ऐसा देश है जहाँ शाकाहारी खाना बहुत ही कम मिलता है. इसलिए थोडा खाने का सामान अधिक है. दयावान हो जाओ. कुछ भी असर न होता देख फिर मैंने उसको अपना ट्रम्प कार्ड दिखाया. यानी अध्यापक होने का प्रमाण. इन सभी प्रयासों का उस पर कोई विशेष असर किसी प्रकार पड़ता नहीं दिखा. होता भी कैसे, सामान दोगुने से भी अधिक था. गलती मेरी ही थी, इसमें वो क्या करता? तभी वह फोन पर किसी से बात करने लगा. संभवतः उसके किसी प्रियजन का फोन आया था. दूसरी तरफ से बोलने वाले के द्वारा शायद कोई ख़ुशी की बात सुनाई दे गई होगी, जिसका उसपर साफ़ असर हुआ. चेहरे का अपना थोड़ा हाव-भाव बदलकर बोला कि सरजी, आप क्योंकि प्रोफ़ेसर हैं और मैं अध्यापकों की बहुत इज्जत करता हूँ, अतः आपको 30 किलो तक अलाउड कर सकता हूँ. पर 45 किलो ले जाना तो असम्भव है. आप ऐसा करिए कि दस किलो सामान के रुपये जमा कर दीजिए और मैं अपने अधिकारी से बात करके पांच किलो आपको एक्स्ट्रा ले जाने की व्यवस्था कर दूंगा. मैंने सोचा कि चलो ठीक है. लेकिन जब रुपये पूछे तो उसने बताया कि केवल चार हज़ार. आप चार हज़ार रुपये की रशीद कटवा लीजिये, बस. सुनकर शरीर और मन दोनों का तनाव बढ़ने लगा. दस किलो सामान के चार हज़ार रुपये. मुझे कुछ जंचा नहीं. बहुत ही घाटे का सौदा लगा. समय कम था. मैंने अपने घर वालों को इधर-उधर देखा, पर वे कहीं दिखाई नहीं दिए. विकल्पहीनता की स्थिति में कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मेरी भ्रम की स्थिति देखकर एयर इंडिया के काउंटर पर बैठा वह कर्मचारी बोला कि साहब जो करना है जल्दी कीजिए. काउंटर बंद करना है. मैंने अनुमान लगाया कि दस किलो सामान कुल चार सौ रुपये का है और जायेगा 4000 रुपये में. लेकिन कभी-कभी व्यक्ति के लिए चीज की कीमत से अधिक उसकी उपयोगिता महत्वपूर्ण होती है. मुझे भी उस समय ऐसा ही महसूस हो रहा था. रुपये से ज्यादा सामान प्यारा लग रहा था. उपयोगिता और आवश्यकता दोनों जो थी उसकी. पर फिर भी सोचा कि सामान ही कम कर देता हूँ. मैंने सामान की सील तोड़ी. मोह और निर्मोह की हालत से गुज़रते हुए काफी सारा अतिरिक्त सामान निकाल कर वहां रखे बॉक्स में डाल दिया. घर से तो सामान पत्नी द्वारा व्यवस्थित करके सजाया गया था. जब मैंने वापस बॉक्स में रखा तो उसमें समाये ही नहीं. लगा कि जैसे सामान भी अपनी बेकद्री से नाराज़ हो गया था. बार-बार उलट-पुलट करने पर सामान की हालत भी कबाड़ जैसी हो चुकी थी और मेरी कबाड़ी जैसी. लोग भी मुझे ही घूर रहे थे. हो सकता है न भी घूर रहे हों पर मुझे ऐसा ही लग रहा था कि पूरी दुनिया ही मुझे घूर रही है और मन ही मन मेरी हालत पर मुस्करा रही है. अच्छा ये हुआ कि वहां खड़े एयर इंडिया के दो तीन कर्मचारी मेरी मदद करने के लिए आगे आये और बिखरे जा रहे सामान को सहेजने में मेरी सहायता करने लगे. उनकी मदद से कुछ अतिरिक्त सामान निकालकर मैं दोबारा सील लगवाने गया और आकर कम किया हुआ सामान पुनः बेल्ट पर रख दिया. घनघोर आश्चर्य, कमबख्त अब भी 35 किलो से ज्यादा ही निकला. अब तो मुझे सामान पर और अपने आप, दोनों पर ही गुस्सा आने लगा और गुस्से में ही एयर इंडिया कर्मचारी से बोला कि जो करना है करो भाई. जितना किराया लगाना है लगाओ. पर जल्दी करो. मेरी फ्लाइट भी छूट सकती है. कर्मचारी बहुत अच्छे स्वभाव का निकला. मुझे लगाने लगा कि पहले मैंने उसका आकलन ठीक नहीं किया था. वह मेरी स्थिति भली प्रकार समझ रहा था. लेकिन अपनी सीमाओं में ही तो कुछ मदद कर सकता था. बोला ठीक है. आप बहुत दुखी न हों. केवल 2500 रुपये जमा कर दीजिए. मैं बाकी देखता हूँ. मेरे पास न रुपये थे, न क्रेडिट कार्ड और न घर वालों से संपर्क करने के लिए फोन. क्या करता? थोड़ी देर पहले ही तो रुपये डॉलर में बदलवाये थे. मैंने उससे कहा भी कि दोस्त डॉलर है वही ले लीजिये. पर दोस्त का उत्तर नकारात्मक था. मैंने तो चार हज़ार रुपये देने का मन भी बना लिया. वह 2500 जमा करने के लिए ही कह रहा था. अतः मुझे उसका सुझाव बुरा नहीं लगा था. शायद मेरी हालत पर तरस खाकर बुकिंग क्लर्क का मन भी बदल चुका था. अतः कर्मचारी की बात ही मान लेना मुझे लाभप्रद लगा. सो मान गया. डॉलर को रुपये में पुनः बदलवाने के लिए अपने उन्हीं सरदार साथियों की मदद ली. सामान उन दोनों के हवाले करके दौड़कर रुपये बदलवा लाया. ऑफिस में अन्दर जाकर रशीद भी ले ली. समस्या बन चुका सामान बुक किया जाने लगा. अब बुकिंग क्लर्क को न जाने क्या सूझा कि उसने मुझे पूरा सामान साथ ले जाने की छूट भी दे दी. हो सकता है उसने मेरा हैण्ड बैग देखकर कहा हो. लेकिन मेरे लिए तो अब सामान को पुनः खोलकर, अच्छी तरह रखकर और फिर एक बार दोबारा सील करने के लिए लेजाकर वापस आने की हिम्मत ही नहीं बची थी. सामान बुक हो जाने पर एक दो बार बाहर घरवालों से मिलने के लिए झाँका भी पर घर के लोग दिखाई नहीं दिए. हालाँकि मुझे विश्वास था कि वे सब वहीं कहीं बाहर होंगे. मैं चाहता था कि बचा हुआ सामान घर वालों को दे दूं. लेकिन कुछ नहीं हो सका. मुझे लगा कि मिलने-जुलने का पूरा कोटा मैं पहले ही इस्तेमाल कर चुका हूँ. इसलिए त्यागे गए सामान पर एक एक बार पुनः प्यार भरी दृष्टि डाली. काउंटर पर खड़े कर्मचारियों का मन मेरे प्रति शुरू से ही सहानुभूतिपूर्ण था. अतः वे मेरे पास आये और पुनः बोले कि सर, ये बचा हुआ सामान आप अपने केबिन बेग में डाल लीजिये. इसका वजन कम है. केवल लेपटॉप ही तो है. एक कर्मचारी ने तो मेरा बेग खोलकर जितना संभव था सामान उसमें रख भी दिया. फिर भी पांच किलो आटा शेष रह ही गया. वही ऐसी चीज थी जिसकी कोरिया में सर्वाधिक अवश्यकता थी. अतः लोभ छोड़कर और आटे के बेग को प्यार के साथ निहारते हुए दोनों सरदार साथियों से विदा लेते हुए इमिग्रेशन चेक के लिए चल दिया.
जहाज के उड़ने में अब थोडा ही समय बचा था, पर देखा कि पहले से ही लम्बी लाइन वैसी ही लम्बी है. उसमें अब भी कोई कमी नहीं आई है. जिस गति से इमिग्रेशन हो रहा था, लगा कि यदि मैं नियमानुसार पंक्ति में इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो भी कम से कम दो तो अवश्य ही बजेंगे. फ्लाइट एक बजे की थी. पहले से ही लेट फ्लाइट को एक घंटा और लेट क्यों करेंगे? लेकिन अन्दर ही अन्दर निश्चिन्त भी था कि अब मेरे पास बोर्डिंग पास है और सामान बुक हो चुका है. अबतक तो जहाज में भी लोड भी किया जा चुका होगा, अतः अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि जहाज मुझे बिना लिए चला जाय. हां मेरी वजह से सबको देर अवश्य होगी. मैं पुनः काउंटर पर पहुँच और एयर इंडिया स्टाफ को अपनी समस्या बताई. गनीमत रही कि उनकी समझ में सब आसानी से तुरंत आ गया. एक कर्मचारी ने दूसरे की ओर देखा, उसने कुछ समझाया. दोनों सक्रिया हो गए. एक कर्मचारी दौड़कर इमिग्रेशन फार्म ले आया और दूसरा व्हील चेयर. मेरा माथा ठनक गया. मैंने कहा मजाक क्यों करते हो. सीधी तरह जो हो सके मदद करो, वरना रहने दो. वे बोले ठीक है रहने देते हैं. मैंने सोचा कि लो अब मरे. मेरा दिल बैठने लगा. व्हील चेअर देखी, फिर कर्मचारी को देखा. कर्मचारी बोला कि भीड़ इतनी है कि  सीधी तरह तो सर कुछ हो ही नहीं सकता. लोग शोर मचाएंगे अलग से. कोई चारा नहीं है आपके इस व्हील चेअर पर बैठने के अतिरिक्त. कोई पूछे तो कहिये कि आप अस्वस्थ हैं, बस. बाकी हम पर छोडिये. जो कुछ वहां पिछले एक घंटे से हो रहा था, उससे गुजरने के बाद कोई अच्छे से अच्छा पहलवान भी अस्वस्थ हो सकता था. मैं तो था अदना-सा मास्टर. मुझे सचमुच लगने लगा कि मैं अस्वस्थ हो गया हूँ. मैंने उनके इस सद्विचार के प्रति अपनी सहमति व्यक्त कर दी. जीवन में पहली बार व्हील चेअर पर बैठने का अनुभव साथ में मिल रहा था. मैं मुस्कराते हुए बैठ गया. उन कर्मचारियों ने मेरा सूटकेस इस तरह मेरे ऊपर रख दिया कि व्हील चेअर पर बैठे हुए मेरा केवल चेहरा ही दिखाई दे रहा था. एक लेपटॉप बेग साथ में था, उसको भी सूटकेस पर रख दिया गया. व्हील चेअर पर मैं और मेरा सामान बैठकर इमिग्रेशन के लिए लगी लम्बी लाइन को बिना किसी रोक-टोक के पार करते हुए चल दिए. लोग-बाग़ मेरी ओर देख रहे थे. मैं डर रहा था कि कहीं कोई परिचित न मिल जाए और सोचे कि मुझे अचानक ये हो क्या गया है. इस तरह क्यों ले जाया जा रहा है, आदि-आदि. ठीक उसी समय मुझे अपने वही दोनों सरदार साथी भी दिख गए जिनसे थोड़ी ही देर पहले ही मेरी बात हुई थी और जो निरंतर मेरी मदद करते रहे थे. मैं थोड़ा डरा. सोचने लगा कि मेरी इस हालत को देखकर एअरपोर्ट पर अभी-अभी मित्र बने ये दोनों साथी बहुत दुखी ही होंगे और अवश्य पूछेंगे कि मेरी ये स्थिति कैसे हो गयी? शक भी करेंगे कि जो व्यक्ति अभी दौड़-दौड़ कर दिलेरी के साथ सब काम कर रहा था वो अचानक व्हील चेअर पर कैसे आ गया? मैं चुप रहा. कर्मचारी पहले ही सचेत कर चुके थे कि किसी से रास्ते में कोई बात नहीं करनी. थोडा गंभीर और दुखी चेहरा बनाये रखना. किसी परिचित को तो बिलकुल भी नहीं पहचानना. मैंने ठीक वही किया भी. दोनों सरदारों की ओर देखकर भी नहीं देखा. एयर इंडिया के दोनों कर्मचारी व्हील चेअर को लाइन के बराबर से निकालते हुए इमिग्रेशन काउंटर पर सीधे ले गए. रास्ते में पार्टीशन के लिए लगाई गयीं पेटियों को खोलते जाते और तेज़ी से आगे बढ़ते जाते. जब मैं काउंटर पर पहुंचा तो मेरा पासपोर्ट और इमिग्रेशन फॉर्म वहां बैठी माहिला ने ध्यान से देखा और फिर मेरे चेहरे की ओर. मैं उस महिला की चमकदार आँखों से आँखें न मिला पाया. शायद कुछ गिल्ट सा रहा होगा. लेकिन मुझे लगा कि वो शायद सब-कुछ समझ गयी थी. उसने मुस्कराते हुए मुझे देखा, कुछ सोचा और फिर इमिग्रेशन स्टेम्प लगा दी. मोहर लगने के बाद मैंने कार्मचारी से कहा कि अब तुम लोग जाओ, मैं स्वयं चला जाऊँगा. इस पर कर्मचारी मुस्कराए और बोले मरवाएंगे क्या? जो आदमी अभी-अभी व्हील चेअर पर आया है दौड़ता हुआ जहाज में चढ़ेगा क्या? अब आप शांत बैठे रहिये. ये यात्रा तो आपकी ऐसे ही होगी. आगे से ध्यान रखना. कर्मचारी मुझे जहाज में अन्दर तक छोड़ने ले गया. एयर होस्टेस के हवाले किया. जहाज में अन्दर पहुंचते ही मैं जैसे पुनः स्वस्थ हो गया और अपना सामान उठाकर केबिन में रखने लगा. एयर स्टाफ ने मेरी मदद करनी चाही, पर मेरे मना करने पर मुस्कराते हुए चले गए. सामान रखकर मैं अपनी सीट पर बैठा. तुरंत जहाज का दरवाज़ा बंद हुआ और मैं हांगकांग के लिए उड़ लिया. हांगकांग पहुंचकर एयर होस्टेस ने व्हील चेअर के लिए उद्घोषणा की. पास आकर उसने हंसते हुए पूछा कि सर अब व्हील चेअर की आवश्यकता तो आपको नहीं पड़ेगी, शायद? पूरा रहस्य उसकी इस ‘शायद’ में ही छुपा था. मैं भी मुस्करा दिया. उसको धन्यवाद कहा और केबिन से ब्रीफकेश उठाकर दूसरी फ्लाइट पड़ने के लिए बाहर निकल गया.

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