शनिवार, 25 मार्च 2017

कोरिया संस्मरण

पहली बार कोरिया मैं नवम्बर 1996 में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन के सन्दर्भ में आया था. मेरे साथ हिंदी के दो अन्य भारतीय प्रोफ़ेसर भी थे. उनमें से एक से मैं पूर्व परिचित नहीं था, दूसरे सज्जन से मैं परिचित नहीं था. कोरिया में हवाई जहाज से उतरते समय ही हमारा आपस में पारिचय हुआ. इंचोन एअरपोर्ट पर कांफ्रेंस के आयोजकों ने हमको संगोष्ठी-स्थल तक ले जाने की व्यवस्था कर रखी थी. सम्मलेन हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय के ग्लोबल कैम्पस, योंगिन में था. वहीं गेस्ट हाउस में हम लोगों के रहने की व्यवस्था भी थी. सौभाग्य कहिये या कुछ और हम तीनों ही शाकाहारी थे. कोरिया मूलत: शाकाहारी देश नहीं है. इतना ही नहीं शाकाहारी लोगों के लिए कोरिया में होटलों खाने की पर्याप्त व्यवस्था भी बहुत कम है. भाषा की दिक्कतों के कारण भी परेशानियाँ होती हैं. खैर ये समस्याएं तो ऐसे सभी देशों में हैं जहाँ अंग्रेजी का चलन नहीं है. यह तो उन देशवासियों के लिए ख़ुशी और गर्व की बात है जो देश अपनी भाषा और संस्कृति को तरजीह देते हैं. भारत में अंग्रेजी और अन्ग्रेज़ियत अधिक हावी है. इसलिए हमारे देश की परिस्थितियां किंचित भिन्न हैं. खैर हम तीनों ने तय किया कि भोजन करते समय कुछ सावधानी बरती जाय. देख-भाल कर खाया जाय. हम तीनों में एक विद्वान् खाने के बारे में सर्वाधिक सचेत थे. हालाँकि खान-पान नितांत व्यक्तिगत मामला है. किसी को भी अन्य के खान-पान पर टिपणी करने से बचना चाहिए. पर साथी सज्जन को तो प्याज़ आदि से भी परहेज़ था. मुझको अपने कोरियाई मित्रों के कारण कोरिया के खाने के बारे में कुछ अनुभव था, अतः मैंने उनसे कहा कि जब आप भोजन करें तो मेरे साथ ही रहें. हम मांसाहारी खाद्य से बचे रहेंगे. ऐसा ही हुआ भी. पर एक दिन डिनर के समय वे किसी से बात करते-करते खिसक लिए. थोड़ी देर बाद हाथ में खाने के सामान से भरी प्लेट लेकर मुस्कराते हुए हाज़िर हो गए. मुझको गोपनीय-सी कुछ जानकारी देने के अंदाज़ में कहने लगे कि बहुत सुन्दर और स्वादिष्ट पुलाव बना है, चलिए, आप भी ले लीजिए. मैंने उनकी प्लेट में रखा पुलाव देखा और चुप रहा. जो मेरी प्लेट में था वह खाता रहा. वे फिर बोले, अरे चलिए भी. मेरे कुछ न कहने और देखने के रुख से उनको कुछ शक हुआ. खाना रोक दिया और बोले क्या बात है? कुछ गड़बड़ है क्या? मैंने कहा कि मित्र सब ठीक है, आप खाइए, मेरे पास पर्याप्त है. लेकिन हमारे साथ खड़ा एक कोरियाई विद्यार्थी भी हमारी बातचीत को रहा था. बातचीत सुनकर उस नादान से रहा न गया. उसने कह ही दिया कि यदि आप शाकाहारी हैं तो ये भोजन मत खाइये. खाद्य का नाम लेना ठीक नहीं है पर अज्ञानता में उस दिव्य पुरुष ने तो यह भी भेद खोल दिया कि इसमें ऐसा कुछ है जो हमारे खाने के लिए नहीं है. इतना सुनते ही साथी का चेहरे का भाव बदल गया. प्लेट रखकर सीधे वाशरूम गए. फिर कमरे चले गए. मैं भी डिनर करने के बाद अपने कमरे में चला गया. रात के लगभग 1 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई. दरवाज़ा खोला तो देखा कि मित्र मुंह लटकाए खड़े हैं. मैंने कहा अन्दर आइये. आये और नाराज़गी में ऐसा मुंह बनाया जैसे कि मुझसे बहुत बड़ा कोई अपराध हो गया है. संयत होकर बोले कि डा. साहब, खूब उलटी कर चुका और लगभग बीस बार ब्रश भी. पर मन नहीं मान रहा. ऐसा लग रहा है कि पेट में अभी भी कुछ शेष है. मैं साथी का चेहरा देखता रहा. जब नहीं रहा गया तो बोला कि यदि आप अपने सभी दांत ब्रश कर-करके तोड़ भी डालें तब भी जो पेट के अन्दर खाना जा चुका है उसको निकालना संभव नहीं है. भूल जाइये और निश्चिन्त होकर सो जाइए. हाँ एक उपाय है बस. बोले क्या? मैंने कहा कि भारत पहुंचकर सीधे हरिद्वार जाना और गंगा में दस डुबकी लगाकर प्रायश्चित कर लेना. हर धर्म में माफ़ी का विधान है. लगा कि मेरी बात से उनको थोड़ी राहत-सी मिली. फिर बाकी दो दिन उन्होंने केवल ब्रेड, दही, और चीज़ खाकर बिताये. अब चीज़ बनाने की प्रक्रिया के बारे में उनको क्या बताता.

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