रविवार, 29 जनवरी 2017

सुप्रसिद्ध कथाकार असग़र वजाहत के साथ मेरा सम्बन्ध लगभग 36 साल पुराना है. उनसे मेरी पहली मुलाकात जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में हुई. मैं उस समय भारतीय भाषा केंद्र में एम. फिल. कर रहा था और असग़र वजाहत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक परियोजना के तहत जनेवि में पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च हेतु तीन वर्ष के लिए आये थे. मैं उनके नाम से परिचित था, उनकी कहानियां मैंने पढ़ी थीं पर कभी मुलाकात नहीं हुई थी. लेकिन पूर्व परिचित न होते हुए भी जब मेरी असग़र साहब से भेंट हुई तो लगा ही नहीं कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा हूँ. संभव है यही अनुभव प्रायः अन्य लोगों के भी हों क्योंकि असग़र साहब का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि कोई जब उनसे मिलता है तो बिना प्रभावित हुए रह नहीं सकता. अतः एक बार मुलाकात हुई और जो सम्बन्ध बना तो समझ लीजिये कि आज भी वाही सम्बन्ध उसी तरह बना हुआ है. यह भी संयोग है की वजाहत भाई से मेरी मुलाकात पीएच. डी. के एक अन्य विद्यार्थी नगेन्द्र प्रताप सिंह के माध्यम से हुई. यह जनेवि के पुराने परिसर की बात है. हुआ यह कि मैं नामवर सिंह जी के कक्ष से क्लास करके बाहर जब चाय पीने के लिए जा रहा था तो देखा की नगेन्द्र अपनी उम्र से बड़े दिखने वाले एक सज्जन के साथ बहस में उलझे हुए थे. जिज्ञासावश मैं उन दोनों के पास पहुँचा तो देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जिस महान व्यक्तित्व के बारे में मैंने केवल सुना था वो साक्षात् मेरे सामने है. आपसी परिचय के बाद जब मैंने बहस का कारण जानना चाहा तो पता चला कि असग़र साहब की एक कहानी को लेकर बहस हो रही है. नगेन्द्र बहुत नाराज़गी के साथ और उत्तेजना में बार-बार असग़र वजाहत से एक ही बात कहे जा रहा था कि ‘आपने इस कहानी में मुझे पात्र क्यों बनाया है’ और वजाहत साहब हालाँकि किंचित क्रोधित थे पर बड़े ही शांत भाव से नगेन्द्र प्रताप सिंह को समझा रहे थे कि कहानी से उसका कोई लेना देना नहीं है. पर नगेन्द्र था जो मानने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैंने क्योंकि कहानी पढ़ी थी और नगेन्द्र को भी कुछ ज्यादा ही जानता था तो किसी तरह उसकी नाराज़गी कम करने की कोशिश की और किंचित कामयाब भी हो गया. जब मामला कुछ शांत सा हुआ तो हम तीनों चाय पीने चल दिए. दरअसल ‘खूंटा’ नाम की असग़र वजाहत की कहानी में साहित्येश्वर एक चरित्र है जो कहानी का प्रमुख पात्र भी है. वो ऐसा चरित्र है जो शहर की तमाम साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहता है. और जगह-जगह घूम-घूमकर एक दूसरे की शिकायतें करता है. वस्तुतः तो वह साहित्यिक सूचनाओं का केंद्र और वाहक भी है.हालाँकि नगेन्द्र भी कहानी के किसी पात्र से कम नहीं थे. वे स्वयं जनेवि में इस भूमिका का निर्वाह करते पाए जाते थे. उसका नाम ही साहित्येश्वर पड़ गया था. लोग-बाग कहते थे कि साहित्येश्वर नाम नगेन्द्र को डा. गुरुवर प्रो. नामवर सिंह ने दिया था. हो सकता है यही सही रहा हो. पर मुझे लगता है कि कहानी प्रकाशित होने के बाद उसने यह नाम स्वयं अपने कार्य कलापों से अर्जित किया था, वह नामानुसार व्यवहार करके धीरे-धीरे अपने नाम को सार्थक करने की ओर बढ़ा था. कहानी के साहित्येश्वर और असल ज़िन्दगी के साहित्येश्वर में सम्बन्ध खोजना कहानी के साथ न्याय नहीं था. खैर मेरे लिए महत्वपूर्ण यह था कि असग़र वजाहत के साथ नगेन्द्र की उस बहस ने मुझे उनसे मिलवा दिया था. उस समय तो मैं शोध कार्य कर रहा था और फेलोशिप भी मिल रही थी इसलिए रोज़ी-रोटी की कोई चिंता नहीं थी. इसलिए अक्सर असग़र वजाहत के साथ शहर निकल जाता और देर रात को लौटता. असग़र जी का कार्यक्षेत्र इतना व्यापक था कि जिधर भी जाते उधर कोई न कोई उनका जानकार, पाठक या प्रशंसक अवश्य मिल जाता. कभी कॉफ़ी हॉउस,कभी साहित्यिक कार्यक्रमों में, कभी किसी अख़बार के दफ्तर में, कभी किसी हिंदी प्रेमी सरकारी अधिकारी के पास, कभी किसी प्रियजन के घर और न जाने कहाँ कहाँ उनके साथ जाना हुआ. सभी जगह उनके मित्र और उनके साहित्य प्रेमी मिलते. वजाहत साहब सबसे स्नेह भाव से मिलते और यथानुसार हर बात पर अपनी राय देते. मैंने उनके साथ रहकर देखा कि वे अनेक प्रकार के ऐसे महत्वपूर्ण परामर्श और मूल्यवान ‘आइडियाज’ लोगों को देते रहे हैं जो आज पैसे खर्च करके भी आसानी से न मिलें. उनके जानने वाले और प्रशंसकों का दायरा तब भी बहुत विस्तृत था और आज भी है बल्कि आज तो उसमें कई गुना और वृद्धि हो चुकी है. आज वो सही माने में एक ‘पब्लिक फिगर हैं (असग़र वजाहत पर शीघ्र प्रकाश्य एक संस्मरण से)

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