गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

मित्र उवाच

मित्र-उवाच
मित्र का घर में मन नहीं लगता. मैंने कहा कि ‘यार यह बताओ कि मन है क्या, जो नहीं लगता?’
मित्र बोले कि ‘मन क्या है, यह बताया नहीं जा सकता. इसको तो केवल महसूस किया जा सकता है’.
मैंने कहा कि ‘कैसे महसूस करूं? जरा प्रकाश डालें.’
मित्र कहने लगे कि ‘आप चाहे जैसे महसूस करें या करना चाहें, पर अभी उतना नहीं कर पायेंगे. जितना अवकाश प्राप्त करने पर.’
मैंने कहा कि ‘ऐसा क्यों?’
इस पर वे कहने लगे कि ‘अवकाश प्राप्त होक के बाद यानी रिटायर होने लके बाद आप घर पर ज्यादा रहेंगे और घर वाले, आपको उतना समय घर पर देखने के आदि हैं नहीं. तब आपके हर एक्शन पार टोकेंगे और आप भी. दोनों एक दुसरे की बात का बुरा मानेंगे पर कहेंगे कुछ नहीं. तनाव बढेगा तो उसको दूर करने के लिए आपको ही क़ुरबानी देनी होगी.’
मैंने कहा कि ‘क़ुरबानी?’
वे मेरी चिंता का भाव समझ गए. तुरंत संभल गए और बोले कि ‘यार, सच वाली क़ुरबानी नहीं बल्कि अपनी मौजूदगी की को घर में कम करके बाहर रहने की क़ुरबानी.’
मैंने कहा कि यार पहेली मत ब्झाओ और साफ-साफ़ समझाओ कि क्या बताना चाहते हो?’
बारिश बहुत तेज़ हो रही थी. मैं तो वैसे भी नहीं भीगता पर सर्दी में तो भीगने का मन हरगिज़ नहीं था. इसलिए मित्र को अपनी कार में बैठाया और एक रेस्तरां पर ले गया. जहाँ जगह मिली बैत्ढ़ गया और दोस्त को गाजर का गरमागरम हलवा और पनीर के चटपटे पकडे खिलवाये. दोस्त का दुखी मन ठीक करना जो था. सबकुछ खा पी लेने के बाद मित्र ने घोषणा की कि ‘आप जैसा समझ रहे हैं ऐसा कुछ भी नहीं है. वह तो मेरी बात आपको बताने का तरीका था. दरअसल मैंने अपने कमरे में न तो एसी लगवाया है और न ही हीटर. पुराना समाजवादी जो हूँ.’
मैंने मित्र को अपनी आँख पर लगा चश्मा हटाकर ध्यान से देखा. कुछ कहने वाला ही था कि मित्र ने आकाशवाणी की. ‘अरे इसमें सोचने की कोई बात नहीं है. घर में सबकुछ है पर घरवालों के लिए. मैं तो ज्यादा बहर ही रहता था. पड़ौस की मार्किट में कुछ दुकानदारों से दोस्ती कर ली थी. आज भी है. सबने अपने यहाँ एसी लगा रखे हैं. समाचार, क्रिकेट मैच, और कोई पसंदीदा प्रोग्राम वाहीन बैठकर देखता हूँ. उनको ज्ञान देता हूँ और वे खातिर करते रहते हैं. दोस्त यह है. तुम क्या जानो. आज तेज़ बारिश में मित्र की अनुभवी बातें सुनकर मेरी हालत ऐसी हो गयी कि ‘मुझे काटो तो खून ही खून.’ 

सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

मित्र की डायरी

यह बात लगभग तीस साल पुरानी है जब मैं अपने मित्र के साथ उसके किसी दूर के रिश्तेदार के घर गया था. मित्र के घर पर उसके की बात चल रही थी और मित्र थे कि अपने विवाह का जिक्र आते ही बिदक जाते थे. इस ऊहापोह की हालत में कई साल बीत गए. एक दिन मित्र अपने परम्पगत स्वाभाव में किंचित परिवर्तन लाते हुए से दिखे. सुबह-सुबह मेरे कमरे आये और कहने लगे कि ‘आज शाम को वसंत विहार चलना है.’ मैंने मन में सोचा कि क्या खास बात है इसमें? वसंत विहार तो निकट ही था और हम अक्सर वहां जाते रहते थे. यह बात अलग थी कि हम जे एन यू के छात्र थे और मार्क्सवाद में नए-नए दीक्षित हुए थे. इसलिए वसंत विहार या ऐसे ही अन्य स्थान जो अमीरी के द्योतक थे हमको चिढाते थे. चार सौ रूपये की कमीज या पेंट का महत्व नहीं था. अगर आप पहनते हों तो पहनें कोई नहीं जानना चाहता था, आपसे उसके बारे में उन दिनों, लेकिन दस रुपये की जनपथ के फुटपाथ से खरीदी हुई शर्ट हमारे बीच चर्चा का विषय बन जाती थी. शानदार शादी ब्याह तो बुर्जुआ वर्ग के लक्षण कहे जाते थे. खैउर, जब मित्र ने कहा कि वसंत विहार चलना है तो मैं चौंका. मेरे चौंकते ही मित्र मेरा आशय समझ गए और तुरंत बोले कि ‘वसंत विहार तो मैंने यूं ही कह दिया था. वसुत्श तो हमें वसंत गाँव के समीप बने डीडीए फ्लेट्स में चलना है.’ मैंने कहा कि ‘ठीक है. कब चलना है और क्यों चलना है?’ इस पर मित्र थोडा शरमाते हुए बोले कि ‘यार किसी से अभी कुछ मत कहना. घर से बहुत दबाव है. एक लड़की देखने जाना है.’ मैं चुप हो गया. अच्छा भी लगा कि एक शुभकाम के लिए मित्र का साथ देना है. वैसे अनेक तरह की लुम्पिनगीरी में तो साथ निभा ही चुके थे. ....शाम को सात बजे वसंत गाँव के डीडीए फ्लेट के निकट मित्र के बताये स्थान पर पहुँच गया. थोड़ी देर में मित्र भी आ गए. हम दोनों साथ-साथ कन्या के घर गए. वह एक एमआईजी फ्लेट था. ड्राइंग रूम में एक ओर सोफा था. पीछे भारी जूडावाला शायद 25 इंच का एक टीवी चल रहा था. बीच वाले थ्री सीटर सोफे पर फ्लेट के मालिक यानी संभवतः लड़की के पिताजी बैठे हुए थे. वे न जाने क्यों बैठे ही रहे यानी हमारे स्वागत के लिए उठे नहीं. हो सकता है उन्होंने हमको इस लायक न समझा हो. या अपनी गोद में बैठे कुत्ते को डिस्टर्ब न करना चाह हो. कुत्ते से हम दोनों ही डरते थे. मित्र और मैं. हम कुत्ते को देख रहे थे और अन्दर ही अन्दर डर भी रहे थे. कुत्ता लगातार हमको देख रहा था और कुत्ते के मालिक कुत्ते के सिर पर लगातार हाथ फिरा रहे थे. थोड़ी देर में लड़की और उसकी माताजी किचेन बहर निकलकर ड्राइंग रूम में आ गयीं. दोनों शायद हमारे लिए कुछ खान-पान का सामान तैयार कर रही थीं. माताजी एक तौलिये से अपना एक हाथ पोंछते हुए आते ही मित्र की ओर मुखातिब हुईं और हाल-चाल जानने लगीं. लड़की बिना शर्माए अपनी लम्बाई को गर्दन तानकर और भी लम्बा करते हुए मित्र को निहार रही थी. कुछ इस भाव के साथ कि कहो, आ गए बच्चू? बच्चू यानि मित्र लगातार सिकुड़े जा रहे थे. अगर मैं उनको चिकोटी न काटता तो सोफे के साइज से भी और छोटे हो जाते.

खैर थोड़ी देर में चाय आई, बिस्कुट आये और  बहुर दिनों के बाद दिखने वाले पकोड़े भी. खाने का सामान देखते ही मैंने धीरे से मित्र से कहा कि लड़की अच्छी है. मित्र ने मेरी बात को अनसुना कर दिया और लड़की की बजाय कुत्ते को देखते रहे. कुता भी बहुत ढीठ था. लड़के यानी मित्र से निगाह मिलाने की लगातार कोशिश कर रहा था. हम बिस्कुट उठाने का प्रयास करते और कुत्ता भौंकता. कुत्ते के भौंकते ही बिस्किट हाथ से छूट जाता. कई बार प्रयास किया और फिर केवल चाय का प्याला उठा लिया. लड़की के पिताजी कुछ लेने का आग्रह करते और कुत्ता न लेने देने का. खैर थोड़ी देर औपचारिक-सी बातचीत करने के बाद हम विदा लेकर वापर अपने हॉस्टल लौट आये. मित्र ने लड़की के स्वाभाव, या निगाह के उसके चश्मे या कुत्ते की हठधर्मिता को देखकर निर्णय कर लिया कि वे उस लड़की के लिए नहीं बने हैं. मैंने मित्र का साठ दिया. क्योंकि खा तो कुछ मैं भी नहीं सका था.    

बुधवार, 2 जनवरी 2019

नाई और उसका उस्तरा

प्राचीनकाल से ही उस्तरा और नाई का गहरा संबंध रहा है. हालाँकि उस्तराशब्द आज भी बहुत चलता है. पर आज उस्तरे के मूल रूप से सब लोग परिचित नहीं हैं. वैसे लोग प्रायः कहते मिल जायेंगे कि चलो अपने सिर पर उस्तरा फिरवालो’. या अरे उस्तरा लग गया’ ‘उस्तरे से बालों को घोटमघोट करा लोअथवा आपके बाल उस्तरे से काटूं या मशीन से?’ आदि-आदि अनेक वाक्य बहुधा कहे और सुने जा सकते हैं. लेकिन उस्तरे के आरंभिक रूप को अब लोग लगभग भूल-सा गए हैं. आजकल यूज एंड थ्रोवाले उस्तरे भी बाज़ार में आ गए हैं लेकिन दाढ़ी बनाने के लिए विशेष रूप से नाइयों की दुकानों में और घर पर भी सर्वाधिक प्रचलित माध्यम रेज़र ही है, जिसमें ब्लेड लगाया जाता है. आजकल उस्तरे में भी ब्लेड लगाया जाता है. पहले उस्तरे में ब्लेड नहीं लगाया जाता था. बहुत पहले की बात मुझे याद है कि जब गाँव में नाई बाल काटने आया करता था तो सबसे पहले साथ लाई अपनी पोटली खोलकर एक-एक करके उसके अन्दर का सामान निकाला करता था. इस प्रक्रिया में सबसे पहले वह कपडे की एक पोटली निकालता था जिसमें उस्तरा लपेटा हुआ होता था. उस पोटलीनुमा कपडे की एक-एक तह को खोलता जाता था. उसके अन्दर से उस्तरा निकालकर एक तरफ को रख देता था. उसके बाद कटोरी निकालकर रख देता था. एक पत्थर भी निकाला जाता था जो सिलेटी रंग के एक साबुन के आकार का होता था. पत्थर उस्तरे पर धार लगाने के लिए होता था यानी उस्तरे को पैनाने के लिए. पत्थर पर पानी लगाकर उस्तरे को उसपर बार-बार घिसने के कारण ऊपर से एक कर्व-सा बन जाता था. उस्तरा और पत्थर निकालने के बाद नाई पोटली में से चमड़े का एक पट्टा-सा लिकालकर एक ओर को अलग रख देता था. कभी-कभी एक सस्ते साबुन की गोलाकार डिब्बी भी साथ में होती थी जो दाढ़ी बनाते समय काम में आती थी. सब सामान को निकलने के पश्चात् उस्तरे को साथ लाये पत्थर पर काफी देर तक घिसा जाता था. यह एक कलात्मक काम होता था. पत्थर के बाद नाई महोदय उस उस्तरे को दाढ़ी पर इस्तेमाल करने से पहले उस चमड़े के पट्टे पर रगड़ना नहीं भूलते थे. यदि नाई गलती से भी उसको चमड़े पर रगड़ना भूल जाता था तो उसके इस्तेमाल से दाढ़ी पर न जाने क्यों दाने-से निकल आते थे. इसलिए पहली बार उस्तरे पर धार लगाने के बाद नाई उसको चमड़े पर उलट-पलटकर एक बार ज़रूर रगड़ता था.
मैंने बचपन में एक बुजुर्ग नाई को देखा था जिसका हाथ कांपता था. उस्तरे की धार भी वह ठीक प्रकार नहीं लगा पाता था. वह तो उस्तरे को पत्थर पर थोडा-सा रगड़ने के बाद अपने दायें पैर की पिंडली पर उलटते-पुलटते ज़रूर रगड़ता था और इसीलिए उसकी पिंडली के उस हिस्से पर एक भी बाल शेष नहीं बचा था, जहाँ उस्तरे को उल्टा-पलटा जाता था. एक बात और कि ब्लेड का उपयोग शुरू हो जाने के बाद ब्लेड से बनाई गयी दाढ़ी को उस्तरे से बनाना कठिन हो जाता था. वह हार्डहो जाती थी. इसलिए  यदि उस नाई का यजमान किसी कारण कभी ब्लेड से अपनी दाढ़ी बना लेता था तो हमारे घर का वह नाई बहुत नाराज़ हो जाता था और दाढ़ी बनाने से मना तक कर देता था. वह रेज़र से दाढ़ी बनाने के कारण उस व्यक्ति से तो नाराज हो ही जाता था, साथ ही उस्तरे के इस्तेमाल की भी अनेक कमियां गिनाने लगता था. लोग उस समय कहा करते थे कि यह नाई ब्लेड लगे रेज़र से दाढ़ी बनने की इसलिए बुराई करता है ताकि कोई रेज़र को उस्ताएर का विकल्प न बना ले और नाई का महत्व कम न हो जाए. एक बार ऐसा हुआ भी था कि सुक्खी नाई ने ब्लेड से बाल बनवाने वालों के बाल काटने से मन कर दिया था और उस घर का काम करना ही छोड़ दिया था. हालाँकि शादी-ब्याह बगैरा में उसने काम करना नहीं छोड़ा था. बुलाने पर ही नहीं यदि उसको पता चल जाए तो भी ज़रूर आ जाता था. वैसे कोई भी परिवार बिना नाई के उन दिनों काम नहीं चला पता था. शादी के लिए प्रस्ताव लाने से लेकर शादी हो जाने के एक वर्ष बाद तक पड़ने वाले सभी तीज-त्योहारों पर सामन ले जाने और लाने का काम नाई ही किया करता था. वह जब भी किसी लड़की की ससुराल जाता तो उस गाँव में रहने वाली अपने गाँव की सभी लड़कियों, चाहे वह बुजुर्ग ही क्यों न हो गयी हो, अवश्य मिलकर आया करता था. सभी घरों में उसके बेरोक-टोक आने-जाने की अनुमति थी. कुछ लोग उसको उसके नाम यानी सुक्कीनाई कहकर पुकारते और बाकी लोग उसको ससम्मान नाई ठाकुरकहकर संबोधित करते. जो लोग नाम लेकर आवाज़ देते तो सुक्की को कम पसंद आता था. नाई ठाकुर संबोधन उसको अच्छा लगता था. मैं सुको सदैव सुक्कीही कहता था. हालाँकि मेरे चाचाजी की उम्र का था पर और लोगों से सुन-सुनकर सुक्कीनाई ही कहता. उसको बुरा लगता था लेकिन कहता कुछ नहीं था. मैं भी उस समय नहीं जान पाता था कि उम्र में अपने चाचा के बराबर होने के बावजूद मैं चाचा को तो चाचा कहता पर नाई को सदैव उसके नाम से ही पुकारता. बड़ा होने पर जब रिश्तों का बोध हुआ तो भी व्यवसायगत अंतर के कारण सुक्की मेरे लिए सुक्की ही रहा. हालाँकि मैं बड़ा हो चुका था और सुक्की तो और भी बड़ा हो चुका था. पर नाई और उसके यजमान के रिश्ते में आजतक कोई अंतर नहीं आया.
सुक्की पूरे गाँव का नाई था. लेकिन वह केवल ब्राह्मणों के बाल ही बनाता था. गाँव की अन्य जातियां जो विभिन्न व्यवसायों से जुडी थीं और मुख्यतः किसानों की फसल पर ही निर्भर जातियां थीं क्योंकि उनके पास खेती के लिए जामीन नहीं थी. बाल आदि कटाने के लिए उनकी अपनी व्यवस्था हुआ करती थी. अब नाइयों की शैली बहुत बदल गयी है गाँव में कम पर शहर में ज्यादा. शहर में तो तरह-तरह के उपकरण और सामान आ गए हैं. तरह-तरह का सामान, सुन्दर कुर्सियां, आकर्षक शीशे एलसीडी और वह भी चलता हुआ. यानी बिना किसी व्यस्तता के अब आप नाई की दूकान पर थोड़ी देर बैठकर अपनी बारी का इंतजार भी कर सकते हैं, बिना बोर हुए. सामान में भी तौलिया, बाल काटने से पहले लगाने वाला कपडा और ब्रश आदि भी नए प्रकार के आ गए हैं. सुन्दर कपड़ा लगाने से पहले कागज का एक टेप की पट्टी जैसी चीज गले के चारों ओर लगायी जाती है. उसके ऊपर पर कपड़ा बाँधा जाता है. सब काम एक करीने से किया जाता है. जितने सलीके से काम किया जाता है उतने सलीके के पैसे भी लिए जाते हैं. गाँव का नाई तो अपने हाथ को पानी में भिगोकर उससे दाढ़ी को पलता रहता था और सॉफ्ट हो जाने के बाद शेव करना शुरू करता था. यहाँ तो ट्यूब से फोम निकालकर लगाईं जाती है, फिर उस्तरे को खोलकर उसे डिटोल से धोया जाता है. फिर एक स्टाइल के साथ एक ब्लेड को तोड़कर उसके आधे हिस्से को उस उस्तरे में लगाया जाता है. उसके बाद ही शेव की जाती है. यह एक लंबी प्रक्रिया है इसलिए फीस की राशि भी ठीक-ठाक होती है. सड़क किनारे के नाइयों की कहानी बाद में.  

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

सन्नाटा और साथी

कल अपने मित्र के साथ किसी के यहाँ एक कार्यक्रम में गया तो खाने में रायता भी बनाया गया था. मुझे क्योंकि अनुभव था इसलिए जब रायता देखा तो चौंका. स्वाद का थोडा लोभ भी था पर थोडा चौंका इसलिए कि सन्नाटा बहुत मारक होता था. सामने वाला दर्शनीय ‘आइटम’ केवल रायता मात्र नहीं था बल्कि पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में ब्याह-शादियों या ऐसे ही समारोहों के अवसर पर परोसे जाने वाले भोजन का अनिवार्य हिस्सा रहने वाला ‘सन्नाटा’ था और उसी की तरह प्रभावकारी भी. सन्नाटा बनाने की प्रक्रिया कुछ इस तरह है कि देहात में शादी या समारोह के लगभग पंद्रह दिन पहले से छाछ एकत्रित करना शुरू कर देते थे. गर्मिंयों के मौसम में तो इतने दिन रहने के बाद वह छाछ अत्यधिक खट्टी हो जाती थी, किसी अम्ल की तरह. उसके बाद तेज़ नमक और ढेर सारी तेज़ मिर्चें डालकर उस मट्ठे को अच्छी तरह जीरे और हींग के द्वारा छोंक लगाकर ‘धुमार’ दिया जाता था. इस तैयार माल का देहात में उन दिनों बहुत आकर्षण हुआ करता था. पहले तो लोग कई गिलास ‘सूंत’ जाते थे पर अब हो सकता है कि आजकल लोग पचा भी न पायें. लोग कहते थे कि इसके सेवन से आद्द्मी खाना कम खता है और पानी अधिक पीता है. अब आजकल कुल्हड़ तो रहे नहीं, फैशन का हिस्सा बन चुके हैं, पर किसी ज़माने में कुल्हड़ तथा सकोरे खाने के समय पत्तल का अनिवार्य भाग हुआ करते थे. धीरे-धीरे कागज और प्लास्टिक की प्लेटों और गिलासों ने उन्हें लगभग गायब ही कर दिया और उसी के साथ-साथ गायब हो गयी कुम्हारों की आमदनी. आधुनिक विकास का एक रूप यह भी है. खैर, मैं सन्नाटे की बात कर रहा था. ‘सन्नाटा’ नाम शायद रायते के पेट में जाने के त्वरित ‘एक्शन’ के कारण पड़ा है. पीते ही यह ‘सन्न’ करता हुआ निकल जाता है और आपकी सभी इन्द्रियों को अचानक जागृत कर देता है. यानी छाछ या मट्ठे से बने इस द्रव्य का एक घूँट लेते ही आपका हाथ स्वभावतः पानी के गिलास की ओर जाना लाज़मी है. पानी पीते ही आप पेट की आवश्यकता और मुंह की शांति के लिए पुनः खाने का एकाध कौर मुंह में डालेंगे, इसके बाद मुंह का जायका बनाने के लिए फिर सन्नाटे का पहले से थोडा हल्का घूँट लेंगे और मुंह खाली होते ही सन्नाटे के कारण पैदा हुई मुंह की जलन शांत करने के लिए इस बार पहले से ज्यादा पानी पीयेंगे. थोडा लड्डू खायेंगे, मुंह मीठा करने और मिर्चों का असर कम करने के लिए. कोई देखे या न देखे लेकिन तेजी से घटित हो रही आपकी इस खाद्य-प्रक्रिया में किसी तरह का अंतर नहीं आएगा. मिर्चों के प्रभाव से बना तेज-तर्रार सन्नाटा, भयंकर चीनी से भरे लड्डू और बर्फ पड़े पानी को पी-पीकर आप अपना पेट इतना भर चुके होंगे कि बाकी कुछ भी खाने के लिए आपके पेट में जगह शेष न रहेगी. मेरा हाल जो हुआ सो हुआ पर मित्र का बहुत बुरा हाल तो उससे भी बुरा हुआ. क्योंकि मिठाई मैं पसंद नहीं करता, बर्फ का पानी कभी पीता ही नहीं. अब बचा सन्नाटा तो केवल स्वाद के लिए थोडा-सा ही लिया. क्योंकि बाद में होने वाले उसके असर के बारे में मैं जानता था. लेकिन मेरे साथी की आदत और किंचित लोभ के कारण सन्नाटे का असर उनपर कुछ ज्यादा ही हो गया. वैसे भी लड्डू और सन्नाटा उन्होंने बहुत लिया ही था. मैं सन्नाटे के बारे में उनको सचेत तो करना चाहता था पर रुक गया. मैंने सोचा कि भोजन के बीच में उनका ध्यान-भग्न नहीं करना चाहिए. वैसे भी ‘भोजन भट्ट’ होने के कारण वे मेरी कहाँ सुनने वाले थे. इसलिए उनको भरपूर आनंद लेने दिया. सन्नाटे का स्वाद पहली बार ले रहे थे. उनको अच्छा भी लगा इस कारण सचमुच ले गए. और भरपूर भी. परिणामस्वरूप असर होना ही था. सुबह-सुबह उनका फोन आया था. सोफा और बाथरूम के बीच चक्कर लगा रहे हैं. अब लगता है दो या तीन दिन तक सन्नाटे का असर रहने वाला है. पहले तो कभी किया नहीं लेकिन अब कहते हैं कि ‘पश्चाताप आज बहुत हो रहा है’. 

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

साथी का केक

बार-बार मना करने पर भी साथी न माने और केक बना ही दिया. लेकिन जो बना शायद वह किसी कुशल पाकशास्त्री के लिए भी पहचानना मुश्कल हो जाय कि अपने रंग और शक्ल में मिल्क केक जैसा दिखने वाला यह खाद्य पदार्थ वास्तव में मिल्क केक है या कुछ और. आपको आश्चर्य होगा कि यह सच में ‘मिल्ककेक’ नहीं है, सचमुच केक ही है. पर नाम बड़े और दर्शन छोटे की भांति इसमें केक का एक भी गुण नहीं है. दरअसल निर्माता की पाक-कला की गलतियों की सजा केक को मिलने के कारण यह केक के नाम को ही बहुत बट्टा लगा रहा है. हुआ यह कि मुझे अपने एक साथी के साथ विश्वविद्यालय के दूसरे परिसर में जाना था जो वहाँ से दूर था. काफी इंतजार के बाद भी जब वे नहीं आये तो मैंने फोन किया. फोन पर कुछ बदली हुई आवाज़ आ रही थी. मैंने पूछा तो बोले कि ‘आप ही आ जाइए मेरे यहाँ, मेरे तो आज दांतों में दर्द है.’ वैसे दांत दर्द किसी को भी हो सकता है लेकिन मुझे अन्दर से कुछ अच्छा नहीं लगा कि हँसते-खेलते मेरे इतने युवा साथी को दांत-दर्द हो जाय. मानव स्वाभाव के विश्लेषण के आधार पर भी वे सब दर्दों से परे लगते थे. अतः दांत के दर्द का कारण पूछने के बदले मैं उनके अपार्टमेंट में गया तो उदास बैठे थे. मैने कहा कि क्या हुआ? आप तो उदास होते अच्छे नहीं लगते. उन्होंने कुछ बोलने से पहले समीप रखा केक मेरी ओर सरका दिया. उनके उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए मैंने केक की ओर हाथ बढाया. उन्होंने तो उत्तर देने में जल्दी नहीं की, लेकिन मैंने केक का एक पीस अपने हाथ में पकड़कर खाने के लिए जल्दी से अवश्य उठाया. मगर स्पर्श करते ही ऐसा लगा जैसे सीमेंट और बदरपुर की खुरदुरी मगर किसी मज़बूत दीवार को तोड़ने पर उससे निकली ईंट का सीमेंट लगा टूटा हुआ, भयानक खुरदुरा-सा कोई टुकड़ा छू दिया हो, लगभग वैसा ही टुकड़ा जिसके स्पर्श से कभी-कभी हाथ भी छिल जाता है. हाथ में लेकर दवाया तो अंगूठे में ही दर्द हो गया. दीवार पर मारकर देख नहीं सकता था ज़रूर आवाज़ होती. फिर यहाँ की दीवारें भी लोगों की तरह औपचारिक-सी और कृत्रिम स्वाभाव की लगती हैं. लगा कि गुस्से में दीवार में मारकर देखा भी तो पार निकलकर, यदि हमारी तरह ही पड़ौसी भी फालतू बैठा हो तो उसका सिर ही न फूट जाय. मुझे इस स्थिति में देखकर प्रोफेसर साहब हंसने लगे. शायद उनको मेरी ऐसी ही प्रतिक्रिया की आशा थी. मैंने कहा कि केक बना रहे थे या कोरिया में घर बनाने के लिए ईंटें? आपसे जब कहा था कि अपने आप को सामान्य दाल-चावल अथवा खिचड़ी पर ही कन्सेंट्रेट करो. विदेश में अतिरिक्त जोखिम मोल न लो. तो रोज-रोज ये नए अनुसन्धान करते ही क्यों हैं. बोले, गूगल पर सर्च करके देखा है. केक बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है. बस अनुपात ठीक हो. पहली बार प्रयास किया, पर लगता है कि अनुपात ही बिगड़ गया. अंडा मैं खाता नहीं. और यहाँ की भाषा के कारण बाज़ार से लाकर कुछ ऐसा भी नहीं डाल सका कि जिससे केक में थोड़ी सॉफ्टनेस आये, फिर कल आपका फोन बार-बार आ रहा था तो समय पर ओवन बंद करना भी भूल गया. देखने में तो अच्छा लग रहा था. लोभवश थोडा-सा ही खाया था, परिणामस्वरूप एकाध दांत में नहीं पूरे मुंह और मसूड़ों में ही ज़बरदस्त दर्द है. आपको अतिश्योक्ति लगेगी मगर रात को दर्द इतना था कि दवा लेनी पड़ी. बोलने में ही कठिनाई हो रही है. कक्षा क्या लूँगा. आप भी तो ज़रा-सा खाकर देखिये. इतना बुरा नहीं है. उन्होंने ‘शानदार केक’ के लिए मुझे ही दोबारा दोषी ठहराते हुए पुनः कहा, ‘आपके फोन के कारण ही तो ऐसा बना है. समय पर ओवन बंद करना भूल गया थान. अब थोडा-सा तो आप भी खाइए ही.’ मैं उनका चेहरा देखने लगा. कहा कि ‘यार आप मित्र हैं या शत्रु? हर काम में...  जब आपको पता चल ही गया है अपने करामाती प्रयोगों का और कल के उस प्रयोग के कारण कष्ट भी उठा रहे हैं, तो मुझे जानबूझकर अपने कष्ट में इस तरह शामिल क्यों कर रहे हैं कि मेरे भी दांत टूट जाएँ? मेरी आपके प्रति पूर्ण सहानुभूति है. मैं इतना रिस्क ले सकता हूँ कि इस बचे हुए केक को किसी गोपनीय स्थान पर दफनाने में आपकी मदद कर सकता हूँ. वर्ना इस तरह कहीं बाहर फेंकोगे तो लोगों को बेकार में शक होगा. समझ तो कोई पायेगा नहीं कि यह क्या है और क्यों बनाया गया है. और ‘जिस चीज के बारे में कुछ पता न हो वह बम भी हो सकती है’ वाली बात के आधार पर तो कुछ भी हो सकता है. यदि किसी कोरियाई को पता चला तो न जाने क्या सोचे. ‘नार्थ’ वैसे भी यहाँ से समीप ही है.’ इस पर भी साथी न समझे और कहने लगे कि ‘चलिए, आज फिर एक बार कोशिश करते हैं’. मैंने कहा कि ‘आराम करो. यदि केक ही खाना है तो मैं आते समय बाज़ार से लेता आऊंगा. आप कम्प्लीट बेडरेस्ट करें. शाम को बाहर चलकर खायेंगे’. बोले इतना भी बीमार नहीं हूँ. चलिए. आपकी बात ही सही. इस केक को दोनों कहीं नीचे फेंक आते हैं. एक तो इन्होंने न जाने क्यों, नीचे दस तरह के कूड़ेदान क्यों रखे हैं. कन्फ्यूज़ करके रख दिया है. यहाँ कुछ ज्यादा ही चक्कर है. हर तरह के वेस्ट के लिए अलग पोलीथिन तैयार करो और इतना ही है तो ऐसे केक अदि के लिए भी फिर लिख दें. इसको कहाँ डालें?

  

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

साथी प्रोफ़ेसर

जामिया ज्वाइन करने के बाद जब मैं एक दिन हिंदी विभाग पहुँच तो सबसे पहले विभाग में पाठक जी बैठे मिल मिल गए. दोपहर का समय था. उन दिनों दोपहर एक बजे के बाद जामिया लगभग वीरान-सी हो जाती थी. इसके कई कारण थे. एक तो अधिकाँश विषयों में एम ए की पढाई शुरू से नहीं होती थी. दूसरे जामिया आवासीय विश्वविद्यालय नहीं थी. तीसरे जो छात्र ओखला के बाहर से आते थे उनके लिए दूसरी जगहों के लिए जाने वाली सभी विश्वविद्यालय स्पेशल बसें एक से दो बजे के बीच ही चली जाती थीं. इसलिए विद्यार्थी अन्य गतिविधियों के बारे में तो कम और अपनी बसों के लिए विशेष रूप से सचेत रहा करते थे. कारण कि यदि किसी विद्यार्थी की बस छूट जाय तो जामिया से बाहर जाने के लिए विकल्प उन दिनों बहुत ही सीमित हुआ करते थे. निष्कर्ष यह कि जामिया एन आरंभ के दिनों में एक कॉलेज जैसा ही वातावरण हुआ करता था. यहाँ तक कि जामिया आने वाली सभी बसों पर भी लिखा होता था ‘जामिया कॉलेज’. प्रमाण के लिए कुछ बस स्टॉप्स पर आप आज भी लिखा हुआ पढ़ सकते हैं ‘जामिया कॉलेज’. खासकर इंजीनियरिंग कॉलेज के बाहर. आज से उस ज़माने के जामिया की कोई बराबरी नहीं. खैर, मुझे पाठक जी से मिलवाते समय असग़र भाई ने मेरी तारीफ के पुल तो भली-भांति बांधे ही साथ ही पाठक जी को भी मेरे समक्ष हिंदी के श्रेष्ठ कवियों में स्थापित कर दिया. लेकिन साथ ही यह एक बात कहना भी न भूले कि ‘यदि पाठक जी अपनी शायरी को जामिया तक महदूद न रखते तो सचमुच हिंदी के एक बड़े कवि हो जाते. अपनी इतनी प्रशंसा सुनते ही राधेश्याम पाठक जी अपने आप को रोक न सके और तुरंत लिखी अपनी एक कविता मुझे सुना दी. पाठक जी की एक विशेषता थी कि वे किसी को नया या पुराना परिचित नहीं मानते थे. जिससे मिलते कुछ इस तरह मिलते कि जैसे लम्बे समय से उसे जानते हैं. मुझे भी उन्होंने ऐसा ही पूर्व परिचित समझा क्योंकि जैसे ही वजाहत साहब मुझे उनसे मिलवाकर कहीं चले गए, संभवतः अपनी कक्षा में, तो पाठक जी ने अनेक किस्से मुझे सुना डाले. मैं तो नया था और उससे भी नए थे पाठक जी के किस्से जो अधिकांश जामिया और जामिया के लोगों से ही जुड़े थे. मैं तो जामिया से था ही अपरिचित और पाठक जी के अधिकांश पात्र हिंदी अथवा मानविकी संकाय की अन्य भाषाओँ से सम्बद्ध अध्यापक ही नहीं जामिया के विभिन्न विषयों के लोग थे. मैं समझ गया कि पाठक जी जामिया के मारे हुए हैं. उनके जेहन में जामिया बसी थी और वे जामिया में. धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि उठते-बैठते, सोते-जागते, पढ़ते-पढ़ाते उनको जामिया ही दिखाई देती थी.
स्व. राधेश्याम पाठक मूलतः अनूपशहर (बुलंदशहर) के रहने वाले थे. मैं भी वहीं का रहने वाला. हिंदी के प्रसिद्ध मध्यकालीन रीति कवि सेनापति भी अनूपशहर के रहने वाले थे. हालाँकि पाठकजी को नहीं मालूम थ कि वे सेनापति के शहर के हैं. मैंने जब उनको बताया तो उन्होंने सेनापति की शैली कि अपनी लिखी कुछ कवितायेँ सुनायीं. उनमें से एक तो जामिया के ही प्रोफ़ेसर पर उन्होंने नाराज़गी की मुद्रा में लिखी थी. उनके लिखे एक कवित्त की बानगी देखिये :
‘तुम जीए ज़िया जी न जीते हुए, गलियन में बड़ी बदनामी भई.
सब काम किये अपने ही लिए अपने ही लिए मनमानी रही.
सुनने को सुनी नहीं संतान की लुच्चन की पसंद कहानी रही.
षड्यंत्र किये, भरपूर किये जीवन की अजब कहानी रही.’ 

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

प्रोफ़ेसर त्रिशंकु

एक लम्बे अंतराल के बाद कल न चाहते हुए भी त्रिशंकु जी दिखाई दिए. न जाने अबतक कहाँ छिपे हुए थे. प्रोफेसर विट्ठलनाथ ‘त्रिशंकु’ आधुनिक परंपरा के आचार्य हैं. देखने में बिलकुल लघुमानव की तरह. शायद उन दिनों विजयदेव नारायण साही उस निबंध को लिख रहे होंगे जिन दिनों श्री वल्लभनाथ का जन्म हुआ था या वल्लभनाथ के माता-पिता ने भविष्य के गर्भ में छिपी लेकिन ऐतिहासिक महत्व प्राप्त करने की सम्भावना वाली अपनी संतान के बारे में कल्पना की होगी. उनके बचपन के बारे में तो कुछ भी कहना आज संभव नहीं है क्योंकि उनका बचपन एक किवदंती की भांति है जिसे केवल उनके माता-पिता ने देखा था और वे जन्म के अनुक्रम के हिसाब से अपने तीसरे बेटे को खलनायकी से भरी इस दुनिया में न जाने किसके हवाले करके बैकुंठलोक सिधार गए. बालत्रिशंकु ने स्वयं भी अपना बचपन उस तरह नाहीं देखा था जैसा वे देखना चाहते थे और यदि कुछ देखा भी होगा तो प्रो. त्रिशंकु उसे अब याद नहीं करना चाहते. कारण यह है कि वे अपने बचपन की खट्टी-खट्टी यादों में अब वे लौटना नहीं चाहते. वैसे देखा जाय तो ज्ञान प्राप्ति के दिनों में तो कष्टों में बीता उनका जीवन ही उनकी सबसे बड़ी पूँजी था, उनका संबल था पर जैसे ही उनको ब्रह्म-ज्ञान मिला, सत्य का आभास हुआ अथवा परमसत्य का इलहाम हुआ तो उनका कष्टों से भरा वही बेशकीमती अतीत ही उनके लिए समस्या बन गया. न जाने क्यों अब वे उसको किसी नव धनाड्य – नए-नए बने धनवान व्यक्ति - की भांति बिसरा देना चाहते थे. परिणामस्वरूप जो भी व्यक्ति उनके उस अतीत की याद दिलाता उसको वे बेहद नापसंद करते. उनके पूर्व परिचित और मुसीबतों में साथी रहे लोग और खासकर वो जो उन्हें पुराने चश्मे से देखते थे, बिलकुल नहीं भाते थे. ऐसे लोगों से बचने के लिए प्रो. विट्ठलनाथ ने अपना पता भी बदल दिया, फोन नंबर बदल दिया, यहाँ तक कि अपना पुराना फोन यानी फोनयंत्र तक बदल दिया. फोन डायरेक्टरी तो वे कब की बदल चुके थे बल्कि उसको जल समाधि दे चुके थे. मैंने ऐसा पहला चरित्र देखा कि तरक्की के साथ-साथ जिसकी शक्ल और अक्ल दोनों बदल गए हों. पुरानी स्मृतियों को वे अपने पुराने कस्बे में घर के समीप से निकलने वाली किसी गंगनहर में बहा आये थे और नयी स्मृतियों के पीछे दौड़ लगाने लगे थे. परिणामस्वरूप नए शहर, नयी नौकरी, नए लोगों और नए विचारों में रच-बसकर वे खुद भी नित नूतन होते गए. सांसारिक और अलौकिक बौद्धिक सम्पदा से संपन्न परम तत्व ज्ञानी. परम स्वतंत्र और नंगे सिर. मतलब कि ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई’ जैसा भाव लिए हुए. किसी का हाथ तो क्या वह गाँधी टोपी तक जिसके अन्दर से सर्दी के मौसम में केवल उनकी आँखें ही दिखाई देती थीं, उन्होंने अपने सिर पर न रहने दी. किसी समय वह टोपी ही उनकी पहचान हुआ करती थी. जिस किसी ने उनको देखा होगा वह वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के भूतपूर्व स्पिनर लैरी गोम्स की पुरानी तस्वीर देखकर उनके प्राचीन रूप का अंदाज बड़ी आसानी से लगा सकता है. उनके गाल और बाल दोनों ठीक गोम्स की तरह ही हुआ करते थे. अब शक्ल और अक्ल दोनों बिगड़ गयी हैं. प्रतिष्ठित भारतीय विद्वानों में से तो किसी से उनकी तुलना नहीं की जा सकती पर विदेशी आचार्यों में भी किसी से उनकी उपमा देने के लिए तलाश चल रही है. ज्ञान के भार से इतने गंभीर हो गए है कि किसी को देख ही नहीं पाते. कंधे इतने झुके हुए कि किसी भी तरह का कोई हल्का-सा थैला भी वहां स्थान नहीं पा सकता, आँखे छोटी पर नीचे झुकी हुई जैसे ज़मीन के अन्दर का सम्पूर्ण रहस्य जानने को उद्यत हों. एक हाथ में अपनी दाहिनी तरफ सीने से लगाकर ले जाई जा रही आलोचना की चार-पांच भारी-भारी पुस्तकें जिनके शीर्षक देखने और उनको पढने में ही किसी विद्यार्थी को आधा घंटा लग जाए. साथ में लिए हुए कक्षा में पहुँचते हैं. कभी नहीं हँसते और किसी समूह में तो कदापि नहीं लेकिन सुना है कि वे अकेले में कमरा बंद करके मुस्कराते हैं. अगर मान लिया जाय कि आचार्य सचमुच मुस्कराते हैं तो दुनिया के पहले विद्वान व्यक्तित्व होंगे जो मुस्कराते हैं तो आवाज करते हैं. उनको देखकर और उनसे बात करके आपको लग सकता है कि जितना उनको पढना था या फिर पढने की जितनी सामर्थ्य उनमें थी, वे उसे बीस वर्ष पूर्व ही पढ़ चुके हैं. उनके शरीर पर केवल ज्ञान का बोझ ही शेष रह गया है जिसके नीचे नित्य-प्रति वे दबे चले जा रहे हैं. अब वे सूफियों की भांति स्वयं ही किसी को ज्ञान दें तो बोझ कम हो और आचार्य किंचित हल्के हों. उन ज्ञानियों की भांति जिनके बारे में बचपन में सुना करते थे कि ज्ञान के अपच से वे बहुत परेशान रहा करते थे. परेशां भी इतने कि जब तक किसी सुपात्र पर उस ज्ञान को उड़ेल न दें उनको और उनकी आत्मा को किसी तरह भी शांति नसीब नहीं होतो थी. आचार्य भी इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि किसी तरह ज्ञान-दान करके उनके शरीर को आराम मिले. ........