शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

श्वान प्रकरण

प्रमाण के लिए बता दूँ कि नीचे दी जा रही उनकी तस्वीर जिनके विषय में मैं कुछ जानकारी आपसे शेयर करने जा रहा हूँ, मेरे घर के सामने की है और उसमें दिखाई दे रहा कार का पिछला टायर मेरी पुरानी मारुति जेन कार का है। ये मेरी ओर देख रहे हैं क्योंकि मेरे हाथ में iPad है और जिसके बारे में संभवत: ये जानते हैं। आपको यह जानकर कैसा लगेगा कहना तो मुश्किल है पर एक बात स्पष्ट है कि तस्वीर में दिखाई दे रहे ये सज्जन वैसे नहीं हैं जैसा आप देख रहे हैं या फिर सोच रहे हैं. यानी दिखने में ज़रूर यह कुत्ते जैसे हैं पर निश्चित जानिए कि कुत्ता नहीं है. दरअसल कुत्ते की परंपरागत अवधारणा में और विषय-विशेषज्ञों की दृष्टि में भी किसी कुत्ते में जो गुण होने चाहिए, इनमें शक्ल के अलावा ऐसा कुछ नहीं है. न तो ये चीखते-चिल्लाते है, न भोंकते हैं, न अन्य कुत्तों की भांति किसी खाद्य वस्तु के लिए लालायित रहते हैं, न चाट-विद्या में इनकी कोई रूचि है और न ही काट-विद्या में. किसी पहुंचे हुए संत की भांति रहते हैं और कभी कुत्तों की तरफ मुंह उठाकर भी नहीं देखते. कहाँ छुप जाते हैं नहीं कह सकता, लेकिन इतना सच है कि मेरे घर के सामने उस समय आते हैं जब ब्राउनी नहीं होती (एक फीमेल डॉग का नाम जिससे इनका सैद्धांतिक वैर है और जो इनको देखते ही भम्भोर डालती है. फीमेल डॉग इसलिये कहा कि ब्राउनी की सज्जनता देखकर मुझे उसे कुतिया कहना अच्छा नहीं लगा. माफ़ करें). इनका मौजूदा यह ताज़ा पोज़ मलाई लगी ब्रेड मिलने से पहले का है. ये ब्रेड के लिए लगभग 10 या 15 मिनट तक भी इंतजार कर लेते हैं पर सज्जनता के साथ, किसी लोभ भावना के तहत नहीं. ये कभी नहीं बोलते या मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि मैंने इनकी आवाज़ को कभी नहीं सुना. यहाँ तक कि कालोनी में किसी ने भी इनकी आवाज को नहीं सुना. पता नहीं कुत्तों की भांति बोलते हैं या इंसानों की भांति. कोई कह रहा था कि ये हालत तब बनती है जब किसी कुत्ते के कुत्तागत गुण इन्सानगत हो जाएँ. अब पता चले तो प्रयास भी किया जाय. वर्ना ये ऐसे ही रह जायेंगे ओर वो वैसे ही. खैर जैसी दुनिया बनाने वाले की मर्ज़ी.

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

मुखिया का अंत

मेरे पिताजी ने मुझे एक कहानी सुनाई थी. कहानी एक ऐसे आदमी के बारे में थी जो जीवन पर्यंत लोगों को बात-बेबात परेशान ही करता रहता है. मुखिया था इसलिए लोग खुलकर उसका विरोध नहीं कर पाते थे. प्रतिदिन किसी न किसी को नाहक कष्ट देता और नयी-नयी परेशानियाँ पैदा कर देता. कहने का आशय यह कि सब सोचने लगे कि मुखिया के जीवित रहते तो किसी प्रकार उससे राहत मिल नहीं सकती, उसके मरने पर मिल जाय तो भी जान बचे. खैर भगवान है तो सबकी सुनता है. उस गाँव के लोगों की भी सुनी. अतः विधि के बनाये विधान के अनुसार मुखिया के जीवन की सांध्य  बेला आ गयी तो मुखिया ने गाँव के लगभग सभी प्रमुख लोगों को बुलाया. मुखिया ने अपनी बुझती हुई लेकिन स्पष्ट आवाज में उन प्रमुख लोगों से ज़िन्दगी भर उनको परेशान करते रहने की बात स्वीकार की. गाँव वाले मुखिया की स्वीकारोक्ति सुनकर मन ही मन बहुत खुश हुए और रहत की सांस ली. गाँव के लोगों के खिले चेहरे पढ़कर मुखिया को कुछ विशेष प्रकार की अनुभूति हुई. ऐसी अनुभूति जिसके कारण मुखिया ने एक और फैसला, यानी अंतिम फैसला किया. कुछ सोचकर गाँव वालों से मुखातिव होकर बोला कि ‘मैंने तुमको सचमुच बहुत परेशान किया है, बहुत कष्ट दिए हैं. अब मेरे बाद ऐसा सब नहीं होगा. आपसे मेरी अब एक ही अंतिम इच्छा है. जिसको तुम सब मिलकर पूरा कर दो तो मैं आराम से अंतिम सांस ले सकूंगा और मरने के बाद मेरी आत्मा को शांति भी मिलेगी.’ गाँव के लोग थोड़ी देर के लिए तो हतप्रभ रह गए. पर दुष्ट ही सही था तो मुखिया. अतः अपने मुखिया की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हो गए. मुखिया का निवेदन इस प्रकार था- ‘मेरे मरने के बाद तुम लोग शमशान तक मेरे शरीर को घसीटते हुए ले जाना और बीच-बीच में जूतों से पिटाई भी करना’ इतना सुनते ही गाँव वाले एक दूसरे को देखने लगे पर बोल कुछ नहीं पाए. मुखिया समझ गया और फिर बोला कि ‘वादा करो कि जैसा मैंने कहा है वैसा करोगे कि नहीं;. अब गाँव वालों के पास मुखिया की बात मानने के आलावा कोई अन्य चारा बचा भी नहीं था. अतः आदतन सब पंक्ति में खड़े होकर हाथ जोड़कर बोले कि ‘जैसी आपकी इच्छा महाराज. वादा करते हैं कि जैसा आप चाहते हैं ठीक वैसा ही करेंगे’. अगले दिन मुखिया के प्राण निकल गए और जैसा कि प्राण निकल जाने पर आमतौर पर होता है कि आदमी मर जाता है तो मुखिया भी मर गया. गाँव वालों ने उसके शारीर को अर्थी पर रखा और मुखिया की अंतिम इच्छा को आदेश मानकर सब लोग उसके शारीर को शमशान भूमि तक घसीटते हुए ले चले. रास्ते मैं उसके शरीर को जूतों से पीटना न भूलते. अब जिंदा आदमी चाहे कितना भी शरारती क्यों न हो मरने के बाद वह भी श्रद्धा का पात्र बन ही जाता है सो मुखिया भी श्रद्धा का पात्र बन गया. लोगों को मालूम नहीं था कि वह जाते-जाते उनका पक्का इंतजाम कर गया है यानी मरने के बाद गाँव वाले उसके मृत शारीर के साथ जो करेंगे इसकी सूचना पुलिस को दे गया था. वही हुआ जिसके बारे में गाँव वाले सोच भी नहीं सकते थे. अभी रचनात्मक कार्यक्रम करते हुए गाँव वाले आधे रास्ते ही पहुंचे थे कि पुलिस आ गयी और गाँव वालों की हरकत देखकर सबको पकड़कर थाने ले गयी. पिटाई की सो अलग से. लुटे-पिटे गाँव वाले अपने किये पर पछताते हुए थाने से अपने घर की ओर चले और रस्ते में यथोचित सुन्दर शब्दों में मुखिया की प्रशंसा करते हुए कहते जाते कि जब जिंदा था तो परेशान करता ही था मरने के बाद दोगुना परेशान कर गया. ईश्वर उसके साथ है तो रहे पर ऐसे दुष्ट की आत्मा को शांति कभी न दे. पर झूटी तसल्ली इस बात की थी कि शायद अगला मुखिया ऐसा न होगा.

रविवार, 29 जनवरी 2017

सुप्रसिद्ध कथाकार असग़र वजाहत के साथ मेरा सम्बन्ध लगभग 36 साल पुराना है. उनसे मेरी पहली मुलाकात जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में हुई. मैं उस समय भारतीय भाषा केंद्र में एम. फिल. कर रहा था और असग़र वजाहत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक परियोजना के तहत जनेवि में पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च हेतु तीन वर्ष के लिए आये थे. मैं उनके नाम से परिचित था, उनकी कहानियां मैंने पढ़ी थीं पर कभी मुलाकात नहीं हुई थी. लेकिन पूर्व परिचित न होते हुए भी जब मेरी असग़र साहब से भेंट हुई तो लगा ही नहीं कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा हूँ. संभव है यही अनुभव प्रायः अन्य लोगों के भी हों क्योंकि असग़र साहब का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि कोई जब उनसे मिलता है तो बिना प्रभावित हुए रह नहीं सकता. अतः एक बार मुलाकात हुई और जो सम्बन्ध बना तो समझ लीजिये कि आज भी वाही सम्बन्ध उसी तरह बना हुआ है. यह भी संयोग है की वजाहत भाई से मेरी मुलाकात पीएच. डी. के एक अन्य विद्यार्थी नगेन्द्र प्रताप सिंह के माध्यम से हुई. यह जनेवि के पुराने परिसर की बात है. हुआ यह कि मैं नामवर सिंह जी के कक्ष से क्लास करके बाहर जब चाय पीने के लिए जा रहा था तो देखा की नगेन्द्र अपनी उम्र से बड़े दिखने वाले एक सज्जन के साथ बहस में उलझे हुए थे. जिज्ञासावश मैं उन दोनों के पास पहुँचा तो देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जिस महान व्यक्तित्व के बारे में मैंने केवल सुना था वो साक्षात् मेरे सामने है. आपसी परिचय के बाद जब मैंने बहस का कारण जानना चाहा तो पता चला कि असग़र साहब की एक कहानी को लेकर बहस हो रही है. नगेन्द्र बहुत नाराज़गी के साथ और उत्तेजना में बार-बार असग़र वजाहत से एक ही बात कहे जा रहा था कि ‘आपने इस कहानी में मुझे पात्र क्यों बनाया है’ और वजाहत साहब हालाँकि किंचित क्रोधित थे पर बड़े ही शांत भाव से नगेन्द्र प्रताप सिंह को समझा रहे थे कि कहानी से उसका कोई लेना देना नहीं है. पर नगेन्द्र था जो मानने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैंने क्योंकि कहानी पढ़ी थी और नगेन्द्र को भी कुछ ज्यादा ही जानता था तो किसी तरह उसकी नाराज़गी कम करने की कोशिश की और किंचित कामयाब भी हो गया. जब मामला कुछ शांत सा हुआ तो हम तीनों चाय पीने चल दिए. दरअसल ‘खूंटा’ नाम की असग़र वजाहत की कहानी में साहित्येश्वर एक चरित्र है जो कहानी का प्रमुख पात्र भी है. वो ऐसा चरित्र है जो शहर की तमाम साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहता है. और जगह-जगह घूम-घूमकर एक दूसरे की शिकायतें करता है. वस्तुतः तो वह साहित्यिक सूचनाओं का केंद्र और वाहक भी है.हालाँकि नगेन्द्र भी कहानी के किसी पात्र से कम नहीं थे. वे स्वयं जनेवि में इस भूमिका का निर्वाह करते पाए जाते थे. उसका नाम ही साहित्येश्वर पड़ गया था. लोग-बाग कहते थे कि साहित्येश्वर नाम नगेन्द्र को डा. गुरुवर प्रो. नामवर सिंह ने दिया था. हो सकता है यही सही रहा हो. पर मुझे लगता है कि कहानी प्रकाशित होने के बाद उसने यह नाम स्वयं अपने कार्य कलापों से अर्जित किया था, वह नामानुसार व्यवहार करके धीरे-धीरे अपने नाम को सार्थक करने की ओर बढ़ा था. कहानी के साहित्येश्वर और असल ज़िन्दगी के साहित्येश्वर में सम्बन्ध खोजना कहानी के साथ न्याय नहीं था. खैर मेरे लिए महत्वपूर्ण यह था कि असग़र वजाहत के साथ नगेन्द्र की उस बहस ने मुझे उनसे मिलवा दिया था. उस समय तो मैं शोध कार्य कर रहा था और फेलोशिप भी मिल रही थी इसलिए रोज़ी-रोटी की कोई चिंता नहीं थी. इसलिए अक्सर असग़र वजाहत के साथ शहर निकल जाता और देर रात को लौटता. असग़र जी का कार्यक्षेत्र इतना व्यापक था कि जिधर भी जाते उधर कोई न कोई उनका जानकार, पाठक या प्रशंसक अवश्य मिल जाता. कभी कॉफ़ी हॉउस,कभी साहित्यिक कार्यक्रमों में, कभी किसी अख़बार के दफ्तर में, कभी किसी हिंदी प्रेमी सरकारी अधिकारी के पास, कभी किसी प्रियजन के घर और न जाने कहाँ कहाँ उनके साथ जाना हुआ. सभी जगह उनके मित्र और उनके साहित्य प्रेमी मिलते. वजाहत साहब सबसे स्नेह भाव से मिलते और यथानुसार हर बात पर अपनी राय देते. मैंने उनके साथ रहकर देखा कि वे अनेक प्रकार के ऐसे महत्वपूर्ण परामर्श और मूल्यवान ‘आइडियाज’ लोगों को देते रहे हैं जो आज पैसे खर्च करके भी आसानी से न मिलें. उनके जानने वाले और प्रशंसकों का दायरा तब भी बहुत विस्तृत था और आज भी है बल्कि आज तो उसमें कई गुना और वृद्धि हो चुकी है. आज वो सही माने में एक ‘पब्लिक फिगर हैं (असग़र वजाहत पर शीघ्र प्रकाश्य एक संस्मरण से)

शनिवार, 28 जनवरी 2017

मेरे एक साथी अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। पहले अध्ययन और अध्यापन में बहुत व्यस्त रहते थे। जब रिटायर्मेंट क़रीब आया तो कोशिश की कि सेवा विस्तार मिल जाए। उनको पता ही नहीं था कि सभी सहयोगी उनके रिटायरमेंट का बेक़ाबू से इंतज़ार कर रहे थे सो सेवा विस्तार दिलाना तो दूर बल्कि वश चलता तो दो-तीन महीने पहले ही छुट्टी पा लेते। ख़ैर सिस्टम आख़िर सिस्टम है। सेवा विस्तार न हुआ। रिटायर हुए तो लगा कि कोई काम ही नहीं रह गया। घर पर अनमने से रहने लगे। बात-बात पर नाराज़ हो जाते। कभी चाय को लेकर तो कभी खाने में कम-ज़्यादा नमक मिर्च को लेकर अक्सर पत्नी से झगड़ा हो जाता। मैं मिलने गया तो पत्नी ने शिकायत की। अब सबकुछ ठीक चल रहा है। कारण है फ़ेसबुक की दुनिया। पिछले महीने मैंने उनको रिटायरमेंट के रुपयों में से एक लैपटॉप खरीदवाया। उनका फ़ेसबुक अकाउंट खुलवाया। दो दिन तक उनको अभ्यास करवाया और उनका फ़ेसबुक प्रोग्राम धूमधाम से चल निकला। सबसे ज़्यादा ख़ुशी की बात तो यह है कि अब पत्नी से लडना बंद हो गया है। लडना तो दूर उनको किसी से बात करने और खाना खाने तक की फ़ुरसत नहीं है। मेरी मुश्किलें ज़रूर बढ़ गयी हैं। उनकी क्वेरीज जो आती रहती हैं। संतोष की बात है कि धीरे-धीरे और एक अंगुली से टाइप करते हैं। ईश्वर करे देर से सीखें। चलिए नया शौक़ है। जय हो।

कुत्तों की दुनिया

सभी कुत्ते पहले आपका ध्यान आकर्षित करते हैं और फिर एक विशेष अंदाज में दंडवत जैसा कुछ करते हैं. अब कुत्ते करते हैं तो पता नहीं उसको दंडवत कहना उचित है या नहीं, कह नहीं सकता. खैर, कुत्ते अपने आगे के दोनों पैर आगे को फैलाकर और भी आगे की ओर झुकते हैं तथा एक लम्बी जम्भाई लेते हुए अपनी लम्बी जीभ निकलकर मुंह के चारों ओर घुमाते हैं. इस प्रक्रिया के दौरान वे अपनी पूँछ को थोडा सख्त करके दायें और बाएं घुमाना नहीं भूलते हैं. मैंने ध्यान से देखा है कि पहले वे थोडा दायें और फिर तेजी से बाएं घुमाते हैं. संभव है यह आज के सन्दर्भ में उनके तेजी से बदलते विचाधारात्मक आग्रहों का प्रतीक हो. मैंने एक कुत्ता विशेषज्ञ से इस कर्मकांड का कारण पूछा कि कुत्तों के इस विशेष दंडवत का क्या मतलब है? तो उन्होंने बताया कि इसका अभिप्रायः यह है कि वे कुत्ते आपसे कुछ चाहते हैं. उन्होंने यह भी बताया कि यदि आपने ठीक से ध्यान नहीं दिया तो कुत्ते ऐसी क्रिया एक से ज्यादा बार कर सकते हैं. मुझे कुछ विश्वास नहीं हुआ. लेकिन इस बात की मैंने आज और बिलकुल अभी जांच की. मैंने इस फार्मूले को अपनी प्रिय ब्राउनी पर आजमाया. जो नहीं जानते उनको बता दूं कि भ्रमित न हों. ब्राउनी कोई और नहीं एक कुतिया का नाम है जिसका एक पैर और एक आँख भी ख़राब है. हालाँकि संकट के समय या फिर जब उसे उचित लगे वह चारों पैरों का इस्तेमाल करते हुए बहुत तेजी से भागती है. खैर, मैं अभी घर की ओर जा रहा था कि अचानक बगल से ब्राउनी आ गयी और जम्भाई लेते हुए वही दंडवत वाली क्रिया करने लगी. मैंने तुरंत निगाह फेर ली और दूसरी ओर को चल दिया. आश्चर्य हुआ कि वह मेरा रास्ता काटकर ब्राउनी उधर भी आ गयी और फिर वही पोज़ बनाने का प्रयास करने लगी. मैंने फिर अनदेखा करने की कोशिश की तो वह इस बार गुस्से से थोडा गुर्रायी. फिर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि उसको अनदेखा करूं. मुझे लगा कि यह आधुनिकता बोध का असर है और इसको मान लेना चाहिए.

रविवार, 25 सितंबर 2016

हंडिया और कुत्ता

एक कहावत बहुत पहले सुनी थी कि ‘दो पैसे की हंडिया गयी सो गयी पर कुत्ते की जात तो पहचानी गयी.’ अब न वो हँड़िया बचीं और न उतने कर्मठ कुत्ते जो किसी भी प्रकार की हँड़िया को बहुत आसानी से उठा ले जाया करते थे. आजकल के कुत्ते कमजोर भी हैं और घायल भी या यूँ कहिये कि व्यवस्था से त्रस्त भी और निहायत अव्वल दर्जे के आलसी. चोट लगने अथवा बीमार पड़ने पर किसी डाक्टर को दिखाने भी नहीं जाते और यदि जाते भी हैं तो मनुष्य के पास. किसी कुत्ते के पास नहीं. यानी उन्हें कुत्ते पर तो भरोसा ही नहीं है और है भी तो कुत्तों के डाक्टर इन्सान पर. ये है अपनी जात विशेष पर से विश्वास उठ जाना. केवल इन्सान ही ऐसे हैं जो अपनी जात वालों पर पूरा भरोसा करते हैं. बल्कि कुल-गोत्र वालों पर तो और भी ज्यादा. पर कुत्ते, वे ऐसे नहीं हैं. जात-वात में विश्वास नहीं करते. कुछ दिनों पहले ही मैंने कुत्तों के बारे मैं एक पोस्ट डाली थी. लिखा था कि हमारे क्षेत्र के कुत्ते आजकल लंगड़े हो गए हैं, अगर किसी व्यक्ति ने उन्हें नुकसान पहुँचाया होता तो यह किसी एक या दो के साथ होता. सब के साथ क्यों होता? किसी व्यक्ति अथवा समूह के द्वारा ऐसा किया गया है इसका कोई भौतिक प्रमाण नहीं मिलता. लेकिन जब ऐसी ही स्थिति मैंने अन्य जगहों पर भी देखी तो थोडा शक हुआ कि अवश्य इसकी कोई ठोस वजह तो होनी चाहिए. एक दो नहीं कुत्तों का पूरा झुण्ड का झुण्ड ही अपना एक पैर उठाकर तेजी से भागा जा रहा था. यह देखकर तो मुझे और आश्चर्य हुआ कि उन कुत्तों में जो सबसे आगे और लगभग नेतृत्व की मुद्रा में चल रहा था, वह लंगड़ा नहीं था और जो सबसे पीछे चल रहा था वह भी लंगड़ा नहीं था. वह तो बल्कि अधिक आत्म-विश्वास के साथ आगे के कुत्तों को लगभग खदेड़ते हुए मटक-मटक कर चल रहा था. विश्वास सा नहीं हुआ कि कुत्ता और मटक कर चल रहा है. आजकल तो अच्छे-भले इन्सान को ठीक से चलने की फुर्सत नहीं है और ये कुत्ता. इसका क्या कारण हो सकता है कि पूरे शहर के कुत्ते लंगड़िया गए हैं .....लेकिन एक बात ध्यान देने की है कि लंगड़ेपन के कारण उनकी चाल में एक विशेष प्रकार की तेज़ी या यूं कहिये कि तीव्रता आ गयी है. कल नेहरुप्लेस में तो कुत्तों का और भी अजीब व्यवहार देखने को मिला. यहाँ पर तो हाईटेक मामला था. सभी लंगड़े कुत्ते आगे के केवल दायें पैर को पश्चिम दिशा में एक जैसी ऊंचाई पर उठाकर उत्तर की ओर बिलकुल एक-सी गति के साथ भागे जा रहे थे. मुझे लगा कि इसके पीछे यदि कोई ख़ास वजह है या कोई गोपनीयता है तो उसको सार्वजनिक किया जाना लोकहित में हो सकता है. अनुरोध है कि प्लीज कोई और अर्थ न निकालें. मैं अविधा में लिखना ही पसंद करता हूँ. 

हंडिया और कुत्ता

एक कहावत बहुत पहले सुनी थी कि ‘दो पैसे की हंडिया गयी सो गयी पर कुत्ते की जात तो पहचानी गयी.’ अब न वो हँड़िया बचीं और न उतने कर्मठ कुत्ते जो किसी भी प्रकार की हँड़िया को बहुत आसानी से उठा ले जाया करते थे. आजकल के कुत्ते कमजोर भी हैं और घायल भी या यूँ कहिये कि व्यवस्था से त्रस्त भी और निहायत अव्वल दर्जे के आलसी. चोट लगने अथवा बीमार पड़ने पर किसी डाक्टर को दिखाने भी नहीं जाते और यदि जाते भी हैं तो मनुष्य के पास. किसी कुत्ते के पास नहीं. यानी उन्हें कुत्ते पर तो भरोसा ही नहीं है और है भी तो कुत्तों के डाक्टर इन्सान पर. ये है अपनी जात विशेष पर से विश्वास उठ जाना. केवल इन्सान ही ऐसे हैं जो अपनी जात वालों पर पूरा भरोसा करते हैं. बल्कि कुल-गोत्र वालों पर तो और भी ज्यादा. पर कुत्ते, वे ऐसे नहीं हैं. जात-वात में विश्वास नहीं करते. कुछ दिनों पहले ही मैंने कुत्तों के बारे मैं एक पोस्ट डाली थी. लिखा था कि हमारे क्षेत्र के कुत्ते आजकल लंगड़े हो गए हैं, अगर किसी व्यक्ति ने उन्हें नुकसान पहुँचाया होता तो यह किसी एक या दो के साथ होता. सब के साथ क्यों होता? किसी व्यक्ति अथवा समूह के द्वारा ऐसा किया गया है इसका कोई भौतिक प्रमाण नहीं मिलता. लेकिन जब ऐसी ही स्थिति मैंने अन्य जगहों पर भी देखी तो थोडा शक हुआ कि अवश्य इसकी कोई ठोस वजह तो होनी चाहिए. एक दो नहीं कुत्तों का पूरा झुण्ड का झुण्ड ही अपना एक पैर उठाकर तेजी से भागा जा रहा था. यह देखकर तो मुझे और आश्चर्य हुआ कि उन कुत्तों में जो सबसे आगे और लगभग नेतृत्व की मुद्रा में चल रहा था, वह लंगड़ा नहीं था और जो सबसे पीछे चल रहा था वह भी लंगड़ा नहीं था. वह तो बल्कि अधिक आत्म-विश्वास के साथ आगे के कुत्तों को लगभग खदेड़ते हुए मटक-मटक कर चल रहा था. विश्वास सा नहीं हुआ कि कुत्ता और मटक कर चल रहा है. आजकल तो अच्छे-भले इन्सान को ठीक से चलने की फुर्सत नहीं है और ये कुत्ता. इसका क्या कारण हो सकता है कि पूरे शहर के कुत्ते लंगड़िया गए हैं .....लेकिन एक बात ध्यान देने की है कि लंगड़ेपन के कारण उनकी चाल में एक विशेष प्रकार की तेज़ी या यूं कहिये कि तीव्रता आ गयी है. कल नेहरुप्लेस में तो कुत्तों का और भी अजीब व्यवहार देखने को मिला. यहाँ पर तो हाईटेक मामला था. सभी लंगड़े कुत्ते आगे के केवल दायें पैर को पश्चिम दिशा में एक जैसी ऊंचाई पर उठाकर उत्तर की ओर बिलकुल एक-सी गति के साथ भागे जा रहे थे. मुझे लगा कि इसके पीछे यदि कोई ख़ास वजह है या कोई गोपनीयता है तो उसको सार्वजनिक किया जाना लोकहित में हो सकता है. अनुरोध है कि प्लीज कोई और अर्थ न निकालें. मैं अविधा में लिखना ही पसंद करता हूँ.