रविवार, 26 मार्च 2017

फ्लाइट और समय

दूसरी बार 1998 में हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय, सियोल, कोरिया में अध्यापन हेतु मेरा आना हुआ. मैंने एयर इंडिया की फ्लाइट से अपना टिकट बुक कराया. किताबों और कुछ आवश्यक सामान के साथ-साथ अन्य वस्तुओं के रूप में खान-पान की सामग्री भी थी. एक वर्ष के लिए आना था इसलिए बहुत सा सामान ले जाना था. ग़लती ये हुई की एअरपोर्ट जाने से पहले सामान का वजन नहीं किया. इसलिए हड़बड़ी में सामान का कुछ अंदाज-सा करके ही एअरपोर्ट के लिए चल दिया. रास्ते में एयर इंडिया से फोन आया कि फ्लाइट 2 घंटे लेट है. थोडा ही दूर पहुंचा था, अतः घर के लिए वापस लौट लिया. फिर भी सामान को नहीं तौला . थोड़ी देर घर पर आये मेहमानों के साथ बातचीत करके नियत समय पर एअरपोर्ट के लिए पुनः चल दिया और समय पर पहुँच गया. 11 बजे की उड़ान थी पर एक बजे जानी थी. मैं क्योंकि सपरिवार और कुछ मित्रों के साथ एअरपोर्ट पहुंचा था, तो थोड़ा समय मित्र-मिलन और विदाई आदि में लग गया. सोचा कि कुछ समय और बात कर लेते हैं. पता था कि देर हो चुकी है पर फिर भी समय का ध्यान नहीं रहा. खैर, जब दो घंटे शेष रह गए तो अन्दर दाखिल हुआ और एयर इंडिया के काउंटर पर सामान बुक करने और बोर्डिंग पास के लिए पहुंचा. वहां देखा तो काउंटर बंद था. मुझे आश्चर्य हुआ. सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है. दो घंटे अभी फ्लाइट छूटने को हैं तो काउंटर खुला होना चाहिए. मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, लोगों से पूछताछ की. डरा कि कहीं फ्लाइट चली तो नहीं गयी. किसी ने गलत फोन कर दिया हो. दोस्त दुश्मन तो सबके होते ही हैं. मेरे भी थे. उस समय भी थे और आज भी. जल्दी से एयर इंडिया के ऑफिस पहुंचा. तसल्ली हुई यह देखकर कि वहां एक दो अधिकारी विद्यमान थे. कुल मिलाकर तो तीन या चार लोग रहे होंगे पर उनमें एक अधिकारी कुछ अनमने से बैठे हुए थे. शायद वे थके हुए भी थे. जिस प्रकार से निर्लिप्त भाव से मुंह लटकाए हुए बैठे थे उसके आधार पर उनकों उस समय वहां मौजूद लोगों में गिनना बेकार था. मैंने कुछ सज्जन से दिखने वाले एक अधिकारी को अपनी समस्या बताई और अनुरोध किया कि काउंटर पर किसी को भेजें. उन्होंने मेरा चेहरा देखकर न जाने क्या पढ़ लिया कि नसीहत-सी देने लगे. नैतिक उपदेशक का चेहरा बनाते कुछ गुस्से में बोले कि ‘आपको समय से आना चाहिए था. मालूम नहीं था कि काउंटर फ्लाइट के समय से कितने बजे पहले बंद हो जाता है?’ मैंने कहा कि ‘अभी तो फ्लाइट में दो घंटे शेष हैं. 11 बजे की फ्लाइट एक बजे जानी है, दो घंटे तो वैसे ही लेट है. सवारियों को तकलीफ हुई सो अलग से. फिर काउंटर पहले ही बंद क्यों कर दिया गया’. वे बोले कि ‘आपको मालूम है कि पूरी बोर्डिंग समय पर हो चुकी है. आप ही लेट आये हैं. स्वयं लेट आकर भी शिकायत हमारी कर रहे हैं’. मैंने उनसे बहस करने के बजाय अनुरोध करना ही उचित समझा. उनको भी बहस छोड़कर मेरा अनुरोध करना अच्छा लगा. मेरी ओर देखते हुए अपने फोन से किसी अन्य कर्मी को कहा कि वह मेरा बोर्डिंग पास बना दे. मुझसे बोले कि ‘आप काउंटर पर पहुँचिये. मैं कुछ व्यवस्था करता हूँ’. मैंने उनको धन्यवाद कहा और अपना सामान उठाये पुनः काउंटर की ओर चल दिया. काउंटर पर पहुँचा तो देखा कि वहां दो सरदारजी भी अब बोर्डिंग पास के लिए पंक्ति में खड़े थे. अपने सामान को एक्स रे मशीन से निकालते समय मेरी उनसे भेंट हो चुकी थी. सामान का एक्स रे करने में उन्होंने मेरी मदद भी की थी. लेकिन उन दोनों को कहीं और जाना था. शायद पेरिस या लंदन. समय क्योंकि बहुत कम बचा था और एक बहुत बड़ी लाइन लगी दिखाई दे रही थी इमिग्रेशन चेक के लिए तो मेरी घबराहट बढने लगी. अधिकारी का भेजा हुआ जो कर्मचारी काउंटर पर आया वह इस प्रकार भेजे जाने से खुश नहीं था. बहुत कुपित-सा लग रहा था. मुझे लगा कि शायद इसको वो काम करने के लिए कह दिया गया है जो यह नहीं करना चाहता है. अब मुझे क्या पता कि उसकी क्या समस्या रही होगी. मैं तो अपनी ही उलझन में उलझा हुआ था. डर अलग रहा था कि सामान कहीं ज्यादा न निकल आये. घरवालों विशेष रूप से पत्नी और बच्चों ने प्यार से अनेक बहुत-सी खाने की और उपयोगी चीजें साथ में रख दी थीं. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा था कि यदि वजन अधिक हो तो हम बाहर इंतजार कर लेते हैं सामान वापस दे जाना. खैर, कर्मचारी ने सामान बेल्ट पर रखने के लिए कहा. मैंने डरते-डरते अपनी दोनों अटैचियाँ बेल्ट के ऊपर रख दीं. वजन तौलने वाली इलेक्ट्रोनिक मशीन और मेरे दिल की धड़कन की मशीन, दोनों में जैसे होड़-सी लग गयी. सामान तौलने वाली मशीन तो 45 किलो पर जाकर कम्पन के साथ धीरे-धीरे रुक गयी, पर दिल वाली मशीन धीरे-धीरे बढती ही जा रही थी. सज्जन दिख रहे उस कर्मचारी ने मेरी ओर देखा और बेरुखी से बोला कि ‘सर जी, इतना सामान नहीं जा सकता. आपको पता होना चाहिए था कि केवल जहाज में केवल 20 किलो लगेज ले जाने की ही अनुमति है’. मैंने उसको समझाने की, उस कर्मचारी को अपना परिचय और अपनी हालत का हवाला देकर द्रवित करने की अनेक प्रकार से कोशिश की. उसकी सहानुभूति बटोरने के लिए अपने शाकाहारी होने तक की दुहाई दी. बहुत एक्सपर्ट तो नहीं हूँ चेहरा पढने में, पर मुझे लगा कि वह कर्मचारी नाम से शाकाहारी होना चाहिए. इसलिए बोला कि मैं अंडे तक नहीं खाता. कोरिया ऐसा देश है जहाँ शाकाहारी खाना बहुत ही कम मिलता है. इसलिए थोडा खाने का सामान अधिक है. दयावान हो जाओ. कुछ भी असर न होता देख फिर मैंने उसको अपना ट्रम्प कार्ड दिखाया. यानी अध्यापक होने का प्रमाण. इन सभी प्रयासों का उस पर कोई विशेष असर किसी प्रकार पड़ता नहीं दिखा. होता भी कैसे, सामान दोगुने से भी अधिक था. गलती मेरी ही थी, इसमें वो क्या करता? तभी वह फोन पर किसी से बात करने लगा. संभवतः उसके किसी प्रियजन का फोन आया था. दूसरी तरफ से बोलने वाले के द्वारा शायद कोई ख़ुशी की बात सुनाई दे गई होगी, जिसका उसपर साफ़ असर हुआ. चेहरे का अपना थोड़ा हाव-भाव बदलकर बोला कि सरजी, आप क्योंकि प्रोफ़ेसर हैं और मैं अध्यापकों की बहुत इज्जत करता हूँ, अतः आपको 30 किलो तक अलाउड कर सकता हूँ. पर 45 किलो ले जाना तो असम्भव है. आप ऐसा करिए कि दस किलो सामान के रुपये जमा कर दीजिए और मैं अपने अधिकारी से बात करके पांच किलो आपको एक्स्ट्रा ले जाने की व्यवस्था कर दूंगा. मैंने सोचा कि चलो ठीक है. लेकिन जब रुपये पूछे तो उसने बताया कि केवल चार हज़ार. आप चार हज़ार रुपये की रशीद कटवा लीजिये, बस. सुनकर शरीर और मन दोनों का तनाव बढ़ने लगा. दस किलो सामान के चार हज़ार रुपये. मुझे कुछ जंचा नहीं. बहुत ही घाटे का सौदा लगा. समय कम था. मैंने अपने घर वालों को इधर-उधर देखा, पर वे कहीं दिखाई नहीं दिए. विकल्पहीनता की स्थिति में कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मेरी भ्रम की स्थिति देखकर एयर इंडिया के काउंटर पर बैठा वह कर्मचारी बोला कि साहब जो करना है जल्दी कीजिए. काउंटर बंद करना है. मैंने अनुमान लगाया कि दस किलो सामान कुल चार सौ रुपये का है और जायेगा 4000 रुपये में. लेकिन कभी-कभी व्यक्ति के लिए चीज की कीमत से अधिक उसकी उपयोगिता महत्वपूर्ण होती है. मुझे भी उस समय ऐसा ही महसूस हो रहा था. रुपये से ज्यादा सामान प्यारा लग रहा था. उपयोगिता और आवश्यकता दोनों जो थी उसकी. पर फिर भी सोचा कि सामान ही कम कर देता हूँ. मैंने सामान की सील तोड़ी. मोह और निर्मोह की हालत से गुज़रते हुए काफी सारा अतिरिक्त सामान निकाल कर वहां रखे बॉक्स में डाल दिया. घर से तो सामान पत्नी द्वारा व्यवस्थित करके सजाया गया था. जब मैंने वापस बॉक्स में रखा तो उसमें समाये ही नहीं. लगा कि जैसे सामान भी अपनी बेकद्री से नाराज़ हो गया था. बार-बार उलट-पुलट करने पर सामान की हालत भी कबाड़ जैसी हो चुकी थी और मेरी कबाड़ी जैसी. लोग भी मुझे ही घूर रहे थे. हो सकता है न भी घूर रहे हों पर मुझे ऐसा ही लग रहा था कि पूरी दुनिया ही मुझे घूर रही है और मन ही मन मेरी हालत पर मुस्करा रही है. अच्छा ये हुआ कि वहां खड़े एयर इंडिया के दो तीन कर्मचारी मेरी मदद करने के लिए आगे आये और बिखरे जा रहे सामान को सहेजने में मेरी सहायता करने लगे. उनकी मदद से कुछ अतिरिक्त सामान निकालकर मैं दोबारा सील लगवाने गया और आकर कम किया हुआ सामान पुनः बेल्ट पर रख दिया. घनघोर आश्चर्य, कमबख्त अब भी 35 किलो से ज्यादा ही निकला. अब तो मुझे सामान पर और अपने आप, दोनों पर ही गुस्सा आने लगा और गुस्से में ही एयर इंडिया कर्मचारी से बोला कि जो करना है करो भाई. जितना किराया लगाना है लगाओ. पर जल्दी करो. मेरी फ्लाइट भी छूट सकती है. कर्मचारी बहुत अच्छे स्वभाव का निकला. मुझे लगाने लगा कि पहले मैंने उसका आकलन ठीक नहीं किया था. वह मेरी स्थिति भली प्रकार समझ रहा था. लेकिन अपनी सीमाओं में ही तो कुछ मदद कर सकता था. बोला ठीक है. आप बहुत दुखी न हों. केवल 2500 रुपये जमा कर दीजिए. मैं बाकी देखता हूँ. मेरे पास न रुपये थे, न क्रेडिट कार्ड और न घर वालों से संपर्क करने के लिए फोन. क्या करता? थोड़ी देर पहले ही तो रुपये डॉलर में बदलवाये थे. मैंने उससे कहा भी कि दोस्त डॉलर है वही ले लीजिये. पर दोस्त का उत्तर नकारात्मक था. मैंने तो चार हज़ार रुपये देने का मन भी बना लिया. वह 2500 जमा करने के लिए ही कह रहा था. अतः मुझे उसका सुझाव बुरा नहीं लगा था. शायद मेरी हालत पर तरस खाकर बुकिंग क्लर्क का मन भी बदल चुका था. अतः कर्मचारी की बात ही मान लेना मुझे लाभप्रद लगा. सो मान गया. डॉलर को रुपये में पुनः बदलवाने के लिए अपने उन्हीं सरदार साथियों की मदद ली. सामान उन दोनों के हवाले करके दौड़कर रुपये बदलवा लाया. ऑफिस में अन्दर जाकर रशीद भी ले ली. समस्या बन चुका सामान बुक किया जाने लगा. अब बुकिंग क्लर्क को न जाने क्या सूझा कि उसने मुझे पूरा सामान साथ ले जाने की छूट भी दे दी. हो सकता है उसने मेरा हैण्ड बैग देखकर कहा हो. लेकिन मेरे लिए तो अब सामान को पुनः खोलकर, अच्छी तरह रखकर और फिर एक बार दोबारा सील करने के लिए लेजाकर वापस आने की हिम्मत ही नहीं बची थी. सामान बुक हो जाने पर एक दो बार बाहर घरवालों से मिलने के लिए झाँका भी पर घर के लोग दिखाई नहीं दिए. हालाँकि मुझे विश्वास था कि वे सब वहीं कहीं बाहर होंगे. मैं चाहता था कि बचा हुआ सामान घर वालों को दे दूं. लेकिन कुछ नहीं हो सका. मुझे लगा कि मिलने-जुलने का पूरा कोटा मैं पहले ही इस्तेमाल कर चुका हूँ. इसलिए त्यागे गए सामान पर एक एक बार पुनः प्यार भरी दृष्टि डाली. काउंटर पर खड़े कर्मचारियों का मन मेरे प्रति शुरू से ही सहानुभूतिपूर्ण था. अतः वे मेरे पास आये और पुनः बोले कि सर, ये बचा हुआ सामान आप अपने केबिन बेग में डाल लीजिये. इसका वजन कम है. केवल लेपटॉप ही तो है. एक कर्मचारी ने तो मेरा बेग खोलकर जितना संभव था सामान उसमें रख भी दिया. फिर भी पांच किलो आटा शेष रह ही गया. वही ऐसी चीज थी जिसकी कोरिया में सर्वाधिक अवश्यकता थी. अतः लोभ छोड़कर और आटे के बेग को प्यार के साथ निहारते हुए दोनों सरदार साथियों से विदा लेते हुए इमिग्रेशन चेक के लिए चल दिया.
जहाज के उड़ने में अब थोडा ही समय बचा था, पर देखा कि पहले से ही लम्बी लाइन वैसी ही लम्बी है. उसमें अब भी कोई कमी नहीं आई है. जिस गति से इमिग्रेशन हो रहा था, लगा कि यदि मैं नियमानुसार पंक्ति में इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो भी कम से कम दो तो अवश्य ही बजेंगे. फ्लाइट एक बजे की थी. पहले से ही लेट फ्लाइट को एक घंटा और लेट क्यों करेंगे? लेकिन अन्दर ही अन्दर निश्चिन्त भी था कि अब मेरे पास बोर्डिंग पास है और सामान बुक हो चुका है. अबतक तो जहाज में भी लोड भी किया जा चुका होगा, अतः अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि जहाज मुझे बिना लिए चला जाय. हां मेरी वजह से सबको देर अवश्य होगी. मैं पुनः काउंटर पर पहुँच और एयर इंडिया स्टाफ को अपनी समस्या बताई. गनीमत रही कि उनकी समझ में सब आसानी से तुरंत आ गया. एक कर्मचारी ने दूसरे की ओर देखा, उसने कुछ समझाया. दोनों सक्रिया हो गए. एक कर्मचारी दौड़कर इमिग्रेशन फार्म ले आया और दूसरा व्हील चेयर. मेरा माथा ठनक गया. मैंने कहा मजाक क्यों करते हो. सीधी तरह जो हो सके मदद करो, वरना रहने दो. वे बोले ठीक है रहने देते हैं. मैंने सोचा कि लो अब मरे. मेरा दिल बैठने लगा. व्हील चेअर देखी, फिर कर्मचारी को देखा. कर्मचारी बोला कि भीड़ इतनी है कि  सीधी तरह तो सर कुछ हो ही नहीं सकता. लोग शोर मचाएंगे अलग से. कोई चारा नहीं है आपके इस व्हील चेअर पर बैठने के अतिरिक्त. कोई पूछे तो कहिये कि आप अस्वस्थ हैं, बस. बाकी हम पर छोडिये. जो कुछ वहां पिछले एक घंटे से हो रहा था, उससे गुजरने के बाद कोई अच्छे से अच्छा पहलवान भी अस्वस्थ हो सकता था. मैं तो था अदना-सा मास्टर. मुझे सचमुच लगने लगा कि मैं अस्वस्थ हो गया हूँ. मैंने उनके इस सद्विचार के प्रति अपनी सहमति व्यक्त कर दी. जीवन में पहली बार व्हील चेअर पर बैठने का अनुभव साथ में मिल रहा था. मैं मुस्कराते हुए बैठ गया. उन कर्मचारियों ने मेरा सूटकेस इस तरह मेरे ऊपर रख दिया कि व्हील चेअर पर बैठे हुए मेरा केवल चेहरा ही दिखाई दे रहा था. एक लेपटॉप बेग साथ में था, उसको भी सूटकेस पर रख दिया गया. व्हील चेअर पर मैं और मेरा सामान बैठकर इमिग्रेशन के लिए लगी लम्बी लाइन को बिना किसी रोक-टोक के पार करते हुए चल दिए. लोग-बाग़ मेरी ओर देख रहे थे. मैं डर रहा था कि कहीं कोई परिचित न मिल जाए और सोचे कि मुझे अचानक ये हो क्या गया है. इस तरह क्यों ले जाया जा रहा है, आदि-आदि. ठीक उसी समय मुझे अपने वही दोनों सरदार साथी भी दिख गए जिनसे थोड़ी ही देर पहले ही मेरी बात हुई थी और जो निरंतर मेरी मदद करते रहे थे. मैं थोड़ा डरा. सोचने लगा कि मेरी इस हालत को देखकर एअरपोर्ट पर अभी-अभी मित्र बने ये दोनों साथी बहुत दुखी ही होंगे और अवश्य पूछेंगे कि मेरी ये स्थिति कैसे हो गयी? शक भी करेंगे कि जो व्यक्ति अभी दौड़-दौड़ कर दिलेरी के साथ सब काम कर रहा था वो अचानक व्हील चेअर पर कैसे आ गया? मैं चुप रहा. कर्मचारी पहले ही सचेत कर चुके थे कि किसी से रास्ते में कोई बात नहीं करनी. थोडा गंभीर और दुखी चेहरा बनाये रखना. किसी परिचित को तो बिलकुल भी नहीं पहचानना. मैंने ठीक वही किया भी. दोनों सरदारों की ओर देखकर भी नहीं देखा. एयर इंडिया के दोनों कर्मचारी व्हील चेअर को लाइन के बराबर से निकालते हुए इमिग्रेशन काउंटर पर सीधे ले गए. रास्ते में पार्टीशन के लिए लगाई गयीं पेटियों को खोलते जाते और तेज़ी से आगे बढ़ते जाते. जब मैं काउंटर पर पहुंचा तो मेरा पासपोर्ट और इमिग्रेशन फॉर्म वहां बैठी माहिला ने ध्यान से देखा और फिर मेरे चेहरे की ओर. मैं उस महिला की चमकदार आँखों से आँखें न मिला पाया. शायद कुछ गिल्ट सा रहा होगा. लेकिन मुझे लगा कि वो शायद सब-कुछ समझ गयी थी. उसने मुस्कराते हुए मुझे देखा, कुछ सोचा और फिर इमिग्रेशन स्टेम्प लगा दी. मोहर लगने के बाद मैंने कार्मचारी से कहा कि अब तुम लोग जाओ, मैं स्वयं चला जाऊँगा. इस पर कर्मचारी मुस्कराए और बोले मरवाएंगे क्या? जो आदमी अभी-अभी व्हील चेअर पर आया है दौड़ता हुआ जहाज में चढ़ेगा क्या? अब आप शांत बैठे रहिये. ये यात्रा तो आपकी ऐसे ही होगी. आगे से ध्यान रखना. कर्मचारी मुझे जहाज में अन्दर तक छोड़ने ले गया. एयर होस्टेस के हवाले किया. जहाज में अन्दर पहुंचते ही मैं जैसे पुनः स्वस्थ हो गया और अपना सामान उठाकर केबिन में रखने लगा. एयर स्टाफ ने मेरी मदद करनी चाही, पर मेरे मना करने पर मुस्कराते हुए चले गए. सामान रखकर मैं अपनी सीट पर बैठा. तुरंत जहाज का दरवाज़ा बंद हुआ और मैं हांगकांग के लिए उड़ लिया. हांगकांग पहुंचकर एयर होस्टेस ने व्हील चेअर के लिए उद्घोषणा की. पास आकर उसने हंसते हुए पूछा कि सर अब व्हील चेअर की आवश्यकता तो आपको नहीं पड़ेगी, शायद? पूरा रहस्य उसकी इस ‘शायद’ में ही छुपा था. मैं भी मुस्करा दिया. उसको धन्यवाद कहा और केबिन से ब्रीफकेश उठाकर दूसरी फ्लाइट पड़ने के लिए बाहर निकल गया.

शनिवार, 25 मार्च 2017

कोरिया संस्मरण

पहली बार कोरिया मैं नवम्बर 1996 में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन के सन्दर्भ में आया था. मेरे साथ हिंदी के दो अन्य भारतीय प्रोफ़ेसर भी थे. उनमें से एक से मैं पूर्व परिचित नहीं था, दूसरे सज्जन से मैं परिचित नहीं था. कोरिया में हवाई जहाज से उतरते समय ही हमारा आपस में पारिचय हुआ. इंचोन एअरपोर्ट पर कांफ्रेंस के आयोजकों ने हमको संगोष्ठी-स्थल तक ले जाने की व्यवस्था कर रखी थी. सम्मलेन हंकुक विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय के ग्लोबल कैम्पस, योंगिन में था. वहीं गेस्ट हाउस में हम लोगों के रहने की व्यवस्था भी थी. सौभाग्य कहिये या कुछ और हम तीनों ही शाकाहारी थे. कोरिया मूलत: शाकाहारी देश नहीं है. इतना ही नहीं शाकाहारी लोगों के लिए कोरिया में होटलों खाने की पर्याप्त व्यवस्था भी बहुत कम है. भाषा की दिक्कतों के कारण भी परेशानियाँ होती हैं. खैर ये समस्याएं तो ऐसे सभी देशों में हैं जहाँ अंग्रेजी का चलन नहीं है. यह तो उन देशवासियों के लिए ख़ुशी और गर्व की बात है जो देश अपनी भाषा और संस्कृति को तरजीह देते हैं. भारत में अंग्रेजी और अन्ग्रेज़ियत अधिक हावी है. इसलिए हमारे देश की परिस्थितियां किंचित भिन्न हैं. खैर हम तीनों ने तय किया कि भोजन करते समय कुछ सावधानी बरती जाय. देख-भाल कर खाया जाय. हम तीनों में एक विद्वान् खाने के बारे में सर्वाधिक सचेत थे. हालाँकि खान-पान नितांत व्यक्तिगत मामला है. किसी को भी अन्य के खान-पान पर टिपणी करने से बचना चाहिए. पर साथी सज्जन को तो प्याज़ आदि से भी परहेज़ था. मुझको अपने कोरियाई मित्रों के कारण कोरिया के खाने के बारे में कुछ अनुभव था, अतः मैंने उनसे कहा कि जब आप भोजन करें तो मेरे साथ ही रहें. हम मांसाहारी खाद्य से बचे रहेंगे. ऐसा ही हुआ भी. पर एक दिन डिनर के समय वे किसी से बात करते-करते खिसक लिए. थोड़ी देर बाद हाथ में खाने के सामान से भरी प्लेट लेकर मुस्कराते हुए हाज़िर हो गए. मुझको गोपनीय-सी कुछ जानकारी देने के अंदाज़ में कहने लगे कि बहुत सुन्दर और स्वादिष्ट पुलाव बना है, चलिए, आप भी ले लीजिए. मैंने उनकी प्लेट में रखा पुलाव देखा और चुप रहा. जो मेरी प्लेट में था वह खाता रहा. वे फिर बोले, अरे चलिए भी. मेरे कुछ न कहने और देखने के रुख से उनको कुछ शक हुआ. खाना रोक दिया और बोले क्या बात है? कुछ गड़बड़ है क्या? मैंने कहा कि मित्र सब ठीक है, आप खाइए, मेरे पास पर्याप्त है. लेकिन हमारे साथ खड़ा एक कोरियाई विद्यार्थी भी हमारी बातचीत को रहा था. बातचीत सुनकर उस नादान से रहा न गया. उसने कह ही दिया कि यदि आप शाकाहारी हैं तो ये भोजन मत खाइये. खाद्य का नाम लेना ठीक नहीं है पर अज्ञानता में उस दिव्य पुरुष ने तो यह भी भेद खोल दिया कि इसमें ऐसा कुछ है जो हमारे खाने के लिए नहीं है. इतना सुनते ही साथी का चेहरे का भाव बदल गया. प्लेट रखकर सीधे वाशरूम गए. फिर कमरे चले गए. मैं भी डिनर करने के बाद अपने कमरे में चला गया. रात के लगभग 1 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई. दरवाज़ा खोला तो देखा कि मित्र मुंह लटकाए खड़े हैं. मैंने कहा अन्दर आइये. आये और नाराज़गी में ऐसा मुंह बनाया जैसे कि मुझसे बहुत बड़ा कोई अपराध हो गया है. संयत होकर बोले कि डा. साहब, खूब उलटी कर चुका और लगभग बीस बार ब्रश भी. पर मन नहीं मान रहा. ऐसा लग रहा है कि पेट में अभी भी कुछ शेष है. मैं साथी का चेहरा देखता रहा. जब नहीं रहा गया तो बोला कि यदि आप अपने सभी दांत ब्रश कर-करके तोड़ भी डालें तब भी जो पेट के अन्दर खाना जा चुका है उसको निकालना संभव नहीं है. भूल जाइये और निश्चिन्त होकर सो जाइए. हाँ एक उपाय है बस. बोले क्या? मैंने कहा कि भारत पहुंचकर सीधे हरिद्वार जाना और गंगा में दस डुबकी लगाकर प्रायश्चित कर लेना. हर धर्म में माफ़ी का विधान है. लगा कि मेरी बात से उनको थोड़ी राहत-सी मिली. फिर बाकी दो दिन उन्होंने केवल ब्रेड, दही, और चीज़ खाकर बिताये. अब चीज़ बनाने की प्रक्रिया के बारे में उनको क्या बताता.

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

श्वान प्रकरण

प्रमाण के लिए बता दूँ कि नीचे दी जा रही उनकी तस्वीर जिनके विषय में मैं कुछ जानकारी आपसे शेयर करने जा रहा हूँ, मेरे घर के सामने की है और उसमें दिखाई दे रहा कार का पिछला टायर मेरी पुरानी मारुति जेन कार का है। ये मेरी ओर देख रहे हैं क्योंकि मेरे हाथ में iPad है और जिसके बारे में संभवत: ये जानते हैं। आपको यह जानकर कैसा लगेगा कहना तो मुश्किल है पर एक बात स्पष्ट है कि तस्वीर में दिखाई दे रहे ये सज्जन वैसे नहीं हैं जैसा आप देख रहे हैं या फिर सोच रहे हैं. यानी दिखने में ज़रूर यह कुत्ते जैसे हैं पर निश्चित जानिए कि कुत्ता नहीं है. दरअसल कुत्ते की परंपरागत अवधारणा में और विषय-विशेषज्ञों की दृष्टि में भी किसी कुत्ते में जो गुण होने चाहिए, इनमें शक्ल के अलावा ऐसा कुछ नहीं है. न तो ये चीखते-चिल्लाते है, न भोंकते हैं, न अन्य कुत्तों की भांति किसी खाद्य वस्तु के लिए लालायित रहते हैं, न चाट-विद्या में इनकी कोई रूचि है और न ही काट-विद्या में. किसी पहुंचे हुए संत की भांति रहते हैं और कभी कुत्तों की तरफ मुंह उठाकर भी नहीं देखते. कहाँ छुप जाते हैं नहीं कह सकता, लेकिन इतना सच है कि मेरे घर के सामने उस समय आते हैं जब ब्राउनी नहीं होती (एक फीमेल डॉग का नाम जिससे इनका सैद्धांतिक वैर है और जो इनको देखते ही भम्भोर डालती है. फीमेल डॉग इसलिये कहा कि ब्राउनी की सज्जनता देखकर मुझे उसे कुतिया कहना अच्छा नहीं लगा. माफ़ करें). इनका मौजूदा यह ताज़ा पोज़ मलाई लगी ब्रेड मिलने से पहले का है. ये ब्रेड के लिए लगभग 10 या 15 मिनट तक भी इंतजार कर लेते हैं पर सज्जनता के साथ, किसी लोभ भावना के तहत नहीं. ये कभी नहीं बोलते या मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि मैंने इनकी आवाज़ को कभी नहीं सुना. यहाँ तक कि कालोनी में किसी ने भी इनकी आवाज को नहीं सुना. पता नहीं कुत्तों की भांति बोलते हैं या इंसानों की भांति. कोई कह रहा था कि ये हालत तब बनती है जब किसी कुत्ते के कुत्तागत गुण इन्सानगत हो जाएँ. अब पता चले तो प्रयास भी किया जाय. वर्ना ये ऐसे ही रह जायेंगे ओर वो वैसे ही. खैर जैसी दुनिया बनाने वाले की मर्ज़ी.

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

मुखिया का अंत

मेरे पिताजी ने मुझे एक कहानी सुनाई थी. कहानी एक ऐसे आदमी के बारे में थी जो जीवन पर्यंत लोगों को बात-बेबात परेशान ही करता रहता है. मुखिया था इसलिए लोग खुलकर उसका विरोध नहीं कर पाते थे. प्रतिदिन किसी न किसी को नाहक कष्ट देता और नयी-नयी परेशानियाँ पैदा कर देता. कहने का आशय यह कि सब सोचने लगे कि मुखिया के जीवित रहते तो किसी प्रकार उससे राहत मिल नहीं सकती, उसके मरने पर मिल जाय तो भी जान बचे. खैर भगवान है तो सबकी सुनता है. उस गाँव के लोगों की भी सुनी. अतः विधि के बनाये विधान के अनुसार मुखिया के जीवन की सांध्य  बेला आ गयी तो मुखिया ने गाँव के लगभग सभी प्रमुख लोगों को बुलाया. मुखिया ने अपनी बुझती हुई लेकिन स्पष्ट आवाज में उन प्रमुख लोगों से ज़िन्दगी भर उनको परेशान करते रहने की बात स्वीकार की. गाँव वाले मुखिया की स्वीकारोक्ति सुनकर मन ही मन बहुत खुश हुए और रहत की सांस ली. गाँव के लोगों के खिले चेहरे पढ़कर मुखिया को कुछ विशेष प्रकार की अनुभूति हुई. ऐसी अनुभूति जिसके कारण मुखिया ने एक और फैसला, यानी अंतिम फैसला किया. कुछ सोचकर गाँव वालों से मुखातिव होकर बोला कि ‘मैंने तुमको सचमुच बहुत परेशान किया है, बहुत कष्ट दिए हैं. अब मेरे बाद ऐसा सब नहीं होगा. आपसे मेरी अब एक ही अंतिम इच्छा है. जिसको तुम सब मिलकर पूरा कर दो तो मैं आराम से अंतिम सांस ले सकूंगा और मरने के बाद मेरी आत्मा को शांति भी मिलेगी.’ गाँव के लोग थोड़ी देर के लिए तो हतप्रभ रह गए. पर दुष्ट ही सही था तो मुखिया. अतः अपने मुखिया की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हो गए. मुखिया का निवेदन इस प्रकार था- ‘मेरे मरने के बाद तुम लोग शमशान तक मेरे शरीर को घसीटते हुए ले जाना और बीच-बीच में जूतों से पिटाई भी करना’ इतना सुनते ही गाँव वाले एक दूसरे को देखने लगे पर बोल कुछ नहीं पाए. मुखिया समझ गया और फिर बोला कि ‘वादा करो कि जैसा मैंने कहा है वैसा करोगे कि नहीं;. अब गाँव वालों के पास मुखिया की बात मानने के आलावा कोई अन्य चारा बचा भी नहीं था. अतः आदतन सब पंक्ति में खड़े होकर हाथ जोड़कर बोले कि ‘जैसी आपकी इच्छा महाराज. वादा करते हैं कि जैसा आप चाहते हैं ठीक वैसा ही करेंगे’. अगले दिन मुखिया के प्राण निकल गए और जैसा कि प्राण निकल जाने पर आमतौर पर होता है कि आदमी मर जाता है तो मुखिया भी मर गया. गाँव वालों ने उसके शारीर को अर्थी पर रखा और मुखिया की अंतिम इच्छा को आदेश मानकर सब लोग उसके शारीर को शमशान भूमि तक घसीटते हुए ले चले. रास्ते मैं उसके शरीर को जूतों से पीटना न भूलते. अब जिंदा आदमी चाहे कितना भी शरारती क्यों न हो मरने के बाद वह भी श्रद्धा का पात्र बन ही जाता है सो मुखिया भी श्रद्धा का पात्र बन गया. लोगों को मालूम नहीं था कि वह जाते-जाते उनका पक्का इंतजाम कर गया है यानी मरने के बाद गाँव वाले उसके मृत शारीर के साथ जो करेंगे इसकी सूचना पुलिस को दे गया था. वही हुआ जिसके बारे में गाँव वाले सोच भी नहीं सकते थे. अभी रचनात्मक कार्यक्रम करते हुए गाँव वाले आधे रास्ते ही पहुंचे थे कि पुलिस आ गयी और गाँव वालों की हरकत देखकर सबको पकड़कर थाने ले गयी. पिटाई की सो अलग से. लुटे-पिटे गाँव वाले अपने किये पर पछताते हुए थाने से अपने घर की ओर चले और रस्ते में यथोचित सुन्दर शब्दों में मुखिया की प्रशंसा करते हुए कहते जाते कि जब जिंदा था तो परेशान करता ही था मरने के बाद दोगुना परेशान कर गया. ईश्वर उसके साथ है तो रहे पर ऐसे दुष्ट की आत्मा को शांति कभी न दे. पर झूटी तसल्ली इस बात की थी कि शायद अगला मुखिया ऐसा न होगा.

रविवार, 29 जनवरी 2017

सुप्रसिद्ध कथाकार असग़र वजाहत के साथ मेरा सम्बन्ध लगभग 36 साल पुराना है. उनसे मेरी पहली मुलाकात जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में हुई. मैं उस समय भारतीय भाषा केंद्र में एम. फिल. कर रहा था और असग़र वजाहत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक परियोजना के तहत जनेवि में पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च हेतु तीन वर्ष के लिए आये थे. मैं उनके नाम से परिचित था, उनकी कहानियां मैंने पढ़ी थीं पर कभी मुलाकात नहीं हुई थी. लेकिन पूर्व परिचित न होते हुए भी जब मेरी असग़र साहब से भेंट हुई तो लगा ही नहीं कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा हूँ. संभव है यही अनुभव प्रायः अन्य लोगों के भी हों क्योंकि असग़र साहब का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि कोई जब उनसे मिलता है तो बिना प्रभावित हुए रह नहीं सकता. अतः एक बार मुलाकात हुई और जो सम्बन्ध बना तो समझ लीजिये कि आज भी वाही सम्बन्ध उसी तरह बना हुआ है. यह भी संयोग है की वजाहत भाई से मेरी मुलाकात पीएच. डी. के एक अन्य विद्यार्थी नगेन्द्र प्रताप सिंह के माध्यम से हुई. यह जनेवि के पुराने परिसर की बात है. हुआ यह कि मैं नामवर सिंह जी के कक्ष से क्लास करके बाहर जब चाय पीने के लिए जा रहा था तो देखा की नगेन्द्र अपनी उम्र से बड़े दिखने वाले एक सज्जन के साथ बहस में उलझे हुए थे. जिज्ञासावश मैं उन दोनों के पास पहुँचा तो देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जिस महान व्यक्तित्व के बारे में मैंने केवल सुना था वो साक्षात् मेरे सामने है. आपसी परिचय के बाद जब मैंने बहस का कारण जानना चाहा तो पता चला कि असग़र साहब की एक कहानी को लेकर बहस हो रही है. नगेन्द्र बहुत नाराज़गी के साथ और उत्तेजना में बार-बार असग़र वजाहत से एक ही बात कहे जा रहा था कि ‘आपने इस कहानी में मुझे पात्र क्यों बनाया है’ और वजाहत साहब हालाँकि किंचित क्रोधित थे पर बड़े ही शांत भाव से नगेन्द्र प्रताप सिंह को समझा रहे थे कि कहानी से उसका कोई लेना देना नहीं है. पर नगेन्द्र था जो मानने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैंने क्योंकि कहानी पढ़ी थी और नगेन्द्र को भी कुछ ज्यादा ही जानता था तो किसी तरह उसकी नाराज़गी कम करने की कोशिश की और किंचित कामयाब भी हो गया. जब मामला कुछ शांत सा हुआ तो हम तीनों चाय पीने चल दिए. दरअसल ‘खूंटा’ नाम की असग़र वजाहत की कहानी में साहित्येश्वर एक चरित्र है जो कहानी का प्रमुख पात्र भी है. वो ऐसा चरित्र है जो शहर की तमाम साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहता है. और जगह-जगह घूम-घूमकर एक दूसरे की शिकायतें करता है. वस्तुतः तो वह साहित्यिक सूचनाओं का केंद्र और वाहक भी है.हालाँकि नगेन्द्र भी कहानी के किसी पात्र से कम नहीं थे. वे स्वयं जनेवि में इस भूमिका का निर्वाह करते पाए जाते थे. उसका नाम ही साहित्येश्वर पड़ गया था. लोग-बाग कहते थे कि साहित्येश्वर नाम नगेन्द्र को डा. गुरुवर प्रो. नामवर सिंह ने दिया था. हो सकता है यही सही रहा हो. पर मुझे लगता है कि कहानी प्रकाशित होने के बाद उसने यह नाम स्वयं अपने कार्य कलापों से अर्जित किया था, वह नामानुसार व्यवहार करके धीरे-धीरे अपने नाम को सार्थक करने की ओर बढ़ा था. कहानी के साहित्येश्वर और असल ज़िन्दगी के साहित्येश्वर में सम्बन्ध खोजना कहानी के साथ न्याय नहीं था. खैर मेरे लिए महत्वपूर्ण यह था कि असग़र वजाहत के साथ नगेन्द्र की उस बहस ने मुझे उनसे मिलवा दिया था. उस समय तो मैं शोध कार्य कर रहा था और फेलोशिप भी मिल रही थी इसलिए रोज़ी-रोटी की कोई चिंता नहीं थी. इसलिए अक्सर असग़र वजाहत के साथ शहर निकल जाता और देर रात को लौटता. असग़र जी का कार्यक्षेत्र इतना व्यापक था कि जिधर भी जाते उधर कोई न कोई उनका जानकार, पाठक या प्रशंसक अवश्य मिल जाता. कभी कॉफ़ी हॉउस,कभी साहित्यिक कार्यक्रमों में, कभी किसी अख़बार के दफ्तर में, कभी किसी हिंदी प्रेमी सरकारी अधिकारी के पास, कभी किसी प्रियजन के घर और न जाने कहाँ कहाँ उनके साथ जाना हुआ. सभी जगह उनके मित्र और उनके साहित्य प्रेमी मिलते. वजाहत साहब सबसे स्नेह भाव से मिलते और यथानुसार हर बात पर अपनी राय देते. मैंने उनके साथ रहकर देखा कि वे अनेक प्रकार के ऐसे महत्वपूर्ण परामर्श और मूल्यवान ‘आइडियाज’ लोगों को देते रहे हैं जो आज पैसे खर्च करके भी आसानी से न मिलें. उनके जानने वाले और प्रशंसकों का दायरा तब भी बहुत विस्तृत था और आज भी है बल्कि आज तो उसमें कई गुना और वृद्धि हो चुकी है. आज वो सही माने में एक ‘पब्लिक फिगर हैं (असग़र वजाहत पर शीघ्र प्रकाश्य एक संस्मरण से)

शनिवार, 28 जनवरी 2017

मेरे एक साथी अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। पहले अध्ययन और अध्यापन में बहुत व्यस्त रहते थे। जब रिटायर्मेंट क़रीब आया तो कोशिश की कि सेवा विस्तार मिल जाए। उनको पता ही नहीं था कि सभी सहयोगी उनके रिटायरमेंट का बेक़ाबू से इंतज़ार कर रहे थे सो सेवा विस्तार दिलाना तो दूर बल्कि वश चलता तो दो-तीन महीने पहले ही छुट्टी पा लेते। ख़ैर सिस्टम आख़िर सिस्टम है। सेवा विस्तार न हुआ। रिटायर हुए तो लगा कि कोई काम ही नहीं रह गया। घर पर अनमने से रहने लगे। बात-बात पर नाराज़ हो जाते। कभी चाय को लेकर तो कभी खाने में कम-ज़्यादा नमक मिर्च को लेकर अक्सर पत्नी से झगड़ा हो जाता। मैं मिलने गया तो पत्नी ने शिकायत की। अब सबकुछ ठीक चल रहा है। कारण है फ़ेसबुक की दुनिया। पिछले महीने मैंने उनको रिटायरमेंट के रुपयों में से एक लैपटॉप खरीदवाया। उनका फ़ेसबुक अकाउंट खुलवाया। दो दिन तक उनको अभ्यास करवाया और उनका फ़ेसबुक प्रोग्राम धूमधाम से चल निकला। सबसे ज़्यादा ख़ुशी की बात तो यह है कि अब पत्नी से लडना बंद हो गया है। लडना तो दूर उनको किसी से बात करने और खाना खाने तक की फ़ुरसत नहीं है। मेरी मुश्किलें ज़रूर बढ़ गयी हैं। उनकी क्वेरीज जो आती रहती हैं। संतोष की बात है कि धीरे-धीरे और एक अंगुली से टाइप करते हैं। ईश्वर करे देर से सीखें। चलिए नया शौक़ है। जय हो।

कुत्तों की दुनिया

सभी कुत्ते पहले आपका ध्यान आकर्षित करते हैं और फिर एक विशेष अंदाज में दंडवत जैसा कुछ करते हैं. अब कुत्ते करते हैं तो पता नहीं उसको दंडवत कहना उचित है या नहीं, कह नहीं सकता. खैर, कुत्ते अपने आगे के दोनों पैर आगे को फैलाकर और भी आगे की ओर झुकते हैं तथा एक लम्बी जम्भाई लेते हुए अपनी लम्बी जीभ निकलकर मुंह के चारों ओर घुमाते हैं. इस प्रक्रिया के दौरान वे अपनी पूँछ को थोडा सख्त करके दायें और बाएं घुमाना नहीं भूलते हैं. मैंने ध्यान से देखा है कि पहले वे थोडा दायें और फिर तेजी से बाएं घुमाते हैं. संभव है यह आज के सन्दर्भ में उनके तेजी से बदलते विचाधारात्मक आग्रहों का प्रतीक हो. मैंने एक कुत्ता विशेषज्ञ से इस कर्मकांड का कारण पूछा कि कुत्तों के इस विशेष दंडवत का क्या मतलब है? तो उन्होंने बताया कि इसका अभिप्रायः यह है कि वे कुत्ते आपसे कुछ चाहते हैं. उन्होंने यह भी बताया कि यदि आपने ठीक से ध्यान नहीं दिया तो कुत्ते ऐसी क्रिया एक से ज्यादा बार कर सकते हैं. मुझे कुछ विश्वास नहीं हुआ. लेकिन इस बात की मैंने आज और बिलकुल अभी जांच की. मैंने इस फार्मूले को अपनी प्रिय ब्राउनी पर आजमाया. जो नहीं जानते उनको बता दूं कि भ्रमित न हों. ब्राउनी कोई और नहीं एक कुतिया का नाम है जिसका एक पैर और एक आँख भी ख़राब है. हालाँकि संकट के समय या फिर जब उसे उचित लगे वह चारों पैरों का इस्तेमाल करते हुए बहुत तेजी से भागती है. खैर, मैं अभी घर की ओर जा रहा था कि अचानक बगल से ब्राउनी आ गयी और जम्भाई लेते हुए वही दंडवत वाली क्रिया करने लगी. मैंने तुरंत निगाह फेर ली और दूसरी ओर को चल दिया. आश्चर्य हुआ कि वह मेरा रास्ता काटकर ब्राउनी उधर भी आ गयी और फिर वही पोज़ बनाने का प्रयास करने लगी. मैंने फिर अनदेखा करने की कोशिश की तो वह इस बार गुस्से से थोडा गुर्रायी. फिर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि उसको अनदेखा करूं. मुझे लगा कि यह आधुनिकता बोध का असर है और इसको मान लेना चाहिए.